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गुरुवार, 19 मई 2011

बिग बी को बताओ, जीती कैसे आशा


ऑक्सफोर्ड की लाइब्रोरी में मैग्ना कार्टा चार्टर देखकर अमिताभ बच्चन जब अभिभूत होते हैं तो अखबारों, टीवी चैनलों के लिए यह न छोड़ी जा सकने वाली खबर होती है। यह स्थिति तकरीबन वैसी ही है कि पूरब में खड़े होकर कोई पश्चिम को सूर्य का घर माने और उसकी लाली से अपनी चेतना और इतिहास बोध को रंग ले। दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र की उन जड़ों की जिसकी डालियों पर झूला डालने वाले परिंदे आपको आज पूरी दुनिया में मिल जाएंगे। पर लोकतंत्र महज एक शासनतंत्र नहीं, एक जीवनशैली और मानवीय इच्छाशक्ति भी है। अगर यह बोध और सोच किसी को भावनात्मक अतिरेक लगे तो उसे भारत के पांच लाख गांवों के सांस्कृतिक गणतंत्र की परंपरा से परिचित होना चाहिए। परंपरा का यह प्रवाह आज जरूर पहले की तरह सजल नहीं रहा, पर है वह आज भी कायम अपने जीवन से भरे बहाव के साथ। अगर यकीन नहीं हो तो चलिए उस छोटे से गांव में जहां गणतंत्र आज भी सबसे बड़ी 'आशा' है, सबसे बड़ा यकीन है कल को आज से बेहतर होने का।
पिछले तीन दशकों में घाटी में उतनी बर्फ नहीं गिरी, जितनी आंच दिल्ली से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वहां के हालात को लेकर महसूस की गई। यह भारत की लोकतांत्रिक निष्ठा की कहीं न कहीं जीत ही है कि उसने अपने इस सबसे अशांत सूबे में भी लोकतांत्रिक शासन को लगातार बहाल रखा। जम्मू कश्मीर के हालात और राजनीति पर फारूख अब्दुल्ला ने कभी कहा था कि उनकी मजबूरी है कि वह हमेशा दिल्ली की सत्ता का साथ दें। पक्ष और विरोध के लोकतंत्र में दरअसल, यह तकाजा महज राजनीति का नहीं बल्कि उस तकाजे का भी है जो जम्मू कश्मीर को देश की मुख्यधारा के साथ एकमेक रहने की दरकार पेश करता है।  पिछले दिनों जब देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां चल रही थी, उसी दौरान जम्मू कश्मीर सहित कई प्रदेशों में लोकतंत्र का एक और बड़ा अनुष्ठान पंचायत चुनाव के रूप में चल रहा था। विधानसभा चुनावों, भ्रष्टाचार के खिलाफ अदालती कार्रवाई और नागरिक समाज की मांगों और आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन के खात्मे के शोरगुल में इस अनुष्ठान की तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। अलबत्ता स्थानीय लोगों की दिलचस्पी जरूर इसमें बनी रही। दिलचस्प तो यह रहा कि अशांत घाटी में इन चुनावों का औपचारिक निर्वाह ही जहां बड़ी कामयाबी ठहराई जा सकती थी, वहां अस्सी फीसद तक मतदान हुए। यही नहीं बिहार जैसे सूबे में जहां पंचायत की परंपरा को ऐतिहासिक मान्यता हासिल है, वहां भी यह चुनाव संगीनों के साए में होने के बावजूद खून के छीटों से बचे नहीं रहे। वहीं घाटी की वादियों में ये चुनाव तकरीबन शांतिपूर्ण संपन्न हुए।

दरअसल, पंचायत के बहाने इस चुनाव में घाटी के लोगों ने न सिर्फ लोकतांत्रिक सरोकारों की अपनी मिट्टी को एक बार फिर से तर किया है बल्कि दुनिया के आगे यह साफ भी किया है उनका जीवन, उनका समाज, उनकी संस्कृति उतनी उलझी या बंटी हुई नहीं है, जितनी बताई या समझाई जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कहीं से मुमकिन नहीं था कि कश्मीरी पंडित परिवार की एक महिला उस गांव से पंच चुनी जाती, जो पूरी तरह मुस्लिम बहुल है। यहां विख्यात पर्यटन स्थल गुलमर्ग जाने के रास्ते में एक छोटा सा गांव है- वुसान। आशा इसी गांव से पंच चुनी गई है जबकि यहां से इस पद के लिए मैदान में उतरी वह अकेली कश्मीरी पंडित महिला थी। इस सफलता को स्थानीय, आपवादिक या कमतर ठहराने वालों के लिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी से 1980 में करीब दो लाख कश्मीरी पंडित परिवारों को पलायन कर जाना पड़ा था।
इस बार भी जब यहां पंचायत चुनाव चल रहे थे तो आतंकी धमकियां मिली थी पर यहां के लोगों ने तमाम उन मंसूबों को धूल चटा दिया, जो बंटवारे और कट्टरता की भड़काऊ बातें करते हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि वुसान का संदेश घाटी के सच को नए पूर्वाग्रहरहित नजरिए से देखने की जरूरत को तो रेखांकित करेगा ही यहां से बही लोकतंत्र की धारा को देश की मुख्यधारा बनने की प्रेरणा भी देगा।  फिर फारूख साहब भी कहेंगे अपनी लोकतांत्रिक मजबूरी का रोना रोने की बजाय अपनी मजबूती का बखान करेंगे, सगर्व और खुशी-खुशी। 

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