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मंगलवार, 10 मई 2011

दुष्कर्म पर कामिनी लॉ


देश में कविताई तक के लिए इतनी गरिमा का ध्यान रखा गया  कि वर्णन अगर 'स्वकीया प्रेम' का है तब तो ठीक है, 'परकीया प्रेम' को अवहेलनीय करार दिया गया। रीति और प्रगति की बदलावकारी बेला में हालांकि साहित्य की ये मर्यादाएं भी टूटीं। व्यावहारिकता को सचाई की ऐसी कसौटी माना गया, जिसमें 'क्या हो' की बजाय 'क्या है' का वर्णन जरूरी करार दिया गया। साहित्य जिस समाज से स्याही और कागज लेता है अपनी अक्षर दुनिया रचने के लिए, आज उसका सच तल्ख ही नहीं काफी हद तक क्रूर और वीभत्स हो चुका है। यही वजह है कि प्रेम का सदेह और संदेह भरा होना, स्त्री-पुरुष संबंध की आखिरी इबारत हो गई। संबधों के बांध से छलकी इच्छाओं में क्या कुछ और कितना कुछ डूबा या डूबेगा, आज इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है।
महिला आयोग से लेकर पुलिस की अपराध शाखा तक दर्जनों रिपोर्ट इस बात की खुली गवाही देती हैं कि महिला यौन उत्पीड़न के सबसे ज्यादा मामले उस परिवार और सामाजिक दायरे के बीच से सामने आ रहे हैं, जहां सुरक्षा और देखरेख की गारंटी सबसे ज्यादा है। नाबालिग से दुष्कर्म के हालिया एक मामले में दिल्ली की एक अदालत की जज कामिनी लॉ ने ऐसे दोषियों का बंध्याकरण तक कराने की मांग को कानूनी मान्यता देने की सिफारिश की है। दिलचस्प है कि जिस मामले में दोषी पुरुष को इस तरह का सबक सिखाने की बात कही गई है, वह कोई और नहीं उस अभागी बेटी का बाप है, जिसके शील को उसके पिता ने ही भंग कर दिया। कहने के लिए अभियुक्त बेटी का पिता तो है लेकिन सौतेला। गौरतलब है कि इस मामले में पीड़ित बेटी की मां को भी पुलिस ने सहअपराधी बनाया था।
साफ है कि अपराध से पहले संबंधों के वे डोर उलझे और टूटे हैं, जिसमें गलती से एक गांठ भी लग जाए तो आजीवन उसकी ऐंठन बनी रहती है। समाज, परिवार और परंपरा की जिस पाकिजगी ने सामाजिकता के सर्वाधिक सुलेख और आख्यान लिखे हैं, मौजूदा दौर में वह त्रियक ही सबसे ज्यादा आहत और क्षिन्न-भिन्न है। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि सुविधा और परमभोग की स्वीकार्यता आधुनिकता और विकास की सीढ़ियां बन चुके हैं। ये वही सीढ़ियां हैं, जो हमारे बेडरूम और डायनिंग रूम ही नहीं पहुंचते, सीधे-सीधे मन-मिजाज के भीतरी कोनों तक दाखिल होते हैं। अदालत और कानून के रास्ते जिस न्यायिक सक्रियता ने पिछले दिनों काफी चीजों को लीक पर लाने की कोशिश की है, उसकी भी अपनी सीमा है।
सरकार और समाज के हर दोष या अपराध के लिए कानून की देवी के आगे याचक बन जाना भी कोई बुद्धिमानी नहीं। जज कामिनी लॉ ने जिस सख्ती की वकालत की है, वह दुनिया के कई विकसित देशों में कानूनी तौर पर मान्य भी है। यह भी नहीं कह सकते कि इसका कोई असर वहां अपराध को कम करने पर नहीं पड़ा हो। कानूनी भय की एक अपनी भूमिका है और यह भूमिका जारी रहे, अपराधमुक्त नागरिक समाज के लिए यह जरूरी भी है। पर जिस खास मामले में जज ने इस तरह की दरकार को रेखांकित किया है, वह गंभीर तो है ही कई मायने में विलक्षण भी है। संबंधों के बांध स्वेच्छा से लांघते जाने की छूट अगर बनी रहेगी और विवाह-परिवार जैसी संस्थाओं को विघटनकारी हस्तक्षेपों से बचाने की हमारी तत्परता अगर प्रभावी नहीं होती, तब तक 'परकीया' का पराभव 'स्वकीया' के मुकाबले मुश्किल है।

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