लांसेट की रिर्पोट हमेशा से ही हंगामाखेज रही हैं। इससे पहले जब उसने युवाओं में लैंगिक रूप में सेक्स प्रवृत्तियों में आए बदलाव का जिक्र किया था, तो आरोप यहां तक लगे थे कि वह कंडोम बनाने वाले एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के लिए काम कर रही है। सेक्स सर्वे चर्चा को सतह पर लाने का आज एक माना हुआ जरिया हो गया है और इसका इस्तेमाल ठंडे कमरों में क्रांति की आंच पैदा करने वाले एक्टिविस्टों से लेकर मीडिया तक के लिए दौड़ में बने रहने का सबसे आसन्न औजार बन गया है।
बहरहाल, बात लांसेट के हालिया अध्ययनों की। महज कुछ ही दिनों के अंतराल पर उसकी यह दूसरी रिपोर्ट है, जिसने भारत सहित कई देशों की एक ऐसी तस्वीर दुनिया के सामने रखी है, जो न सिर्फ चिंता बढ़ाने वाली है बल्कि आईना दिखाने वाली भी है। दिल्ली में मिलने वाले पेयजल में सुपरबग मिलने के खुलासे पर बवाल अभी थमा भी नहीं था कि इस प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ने यह आकलन छापकर सनसनी मचा दी कि दुनिया में हर रोज सात हजार से ज्यादा मृत बच्चे पैदा होते हैं। दिलचस्प है कि इनमें 68 फीसद मृत बच्चे मारत, चीन और बांग्लादेश सहित दस देशों में पैदा होते हैं। लांसेट ने अपने विश्लेषण में इस समस्या को सीधे आमदनी से जोड़ा है। उसके मुताबिक 98 फीसद मृत बच्चे उन देशों में पैदा हुए जहां आमदनी कम है।
भारत की गिनती भी अगर विपन्नता के मारे ऐसे देशों में होती है तो इसकी वजह यह नहीं है कि हमारे यहां अरबपतियों या धनकुबेरों की कोई कमी है। फोर्ब्स जो सूचियां दुनियाभर के रइसों की छापती है, उनमें भारतीयों का दबदबा लगातार कायम है। पर अमीरी और संपन्नता की गाढ़ी मलाई जिस दूध-पानी पर तैर रही है, उसकी सचाई अब भी खासी स्याह है। लांसेट के नए खुलासे भी इस तथ्य पर मुहर लगाते हैं। आलम यह है कि जो देश अपनी शिनाख्त को पिछले तकरीबन दो-ढ़ाई दशकों में लगातार एक बड़ी इकोनमी पावर के रूप में शिद्दत से गढ़ने में लगा है, वह कोख में नौ माह तक पलने के बाद एक नवजात को दुनिया का मुंह तक देख पाने की वांछित स्थिति और सुविधाएं मुहैया कराने में सबसे पिछड़ा है।
विकास का यह कोढ़ कम से कम हमारे उद्यम और संपन्नता के आंकड़ों और दावों को तो किसी सूरत में मानवीय नहीं ठहराते। अच्छी बात यह है कि अब विकास के इस विरोधाभास को सरकार और उसके योजनकार भी नकारने की बजाय मानने लगे हैं तभी तो विकास की सरपट और प्रतिस्पर्धी दौर में मैदान मारने के बजाय बात अब हो रही है इन्कलूसिव डेवलपमेंट यानी समावेशी विकास की। पंचायतों के सशक्तिकरण से विकास योजनाओं को अमली जाम पहनाने के तंत्र का जो विकेंद्रित रूप सामने आया है, उससे अब गैरबराबरी वाले विकास की खाई को पाटने में मदद मिल रही है। पर अभी यह आगाज मात्र है। सरकार को अपने प्रयासों को इस दिशा में अभी और सघन और कारगर बनाना पड़ेगा तभी गांव-देहातों में स्वास्थ्य सुविधा की बात करें या जच्चा-बच्चा की सुरक्षा की, हमारे देश-समाज का हर हिस्सा हर लिहाज से संपन्न, सुरक्षित और विकसित हो सकेगा। 'गरीबी हटाओ' भारतीय लोकतंत्र में लोकप्रियता हासिल करने का अब तक का सबसे कारगर नारा रहा है। दिल्ली में अभी जो सरकार सत्ता में अपनी दूसरी पारी खेल रही है, उसने भी अपनी सफलता की वजह गांव और गरीब तक पहुंचने वाली मनरेगा जैसी योजना को ही माना है। पिछले कई चुनावों में वोटरों ने तमाम दूसरे वादों के बजाय क्षेत्र के विकास को ज्यादा महत्व देकर अपनी मानसिकता और इरादे में आए फर्क को दर्ज कराया है। क्या अगले कुछ सालों में भारत की खुशहाली का वह चेहरा दुनिया के सामने होगा, जिसमें उसका हर वर्ग, हर इलाका इतना संपन्न आैर खुशहाल हो कि उसका कोई विलोमी पक्ष कहीं से भी रेखांकित न हो। अगर उम्मीद की यह तस्वीर अब भी बेरंग और बेनूर है तो यह सचमुच एक खतरनाक स्थिति है।
बहरहाल, बात लांसेट के हालिया अध्ययनों की। महज कुछ ही दिनों के अंतराल पर उसकी यह दूसरी रिपोर्ट है, जिसने भारत सहित कई देशों की एक ऐसी तस्वीर दुनिया के सामने रखी है, जो न सिर्फ चिंता बढ़ाने वाली है बल्कि आईना दिखाने वाली भी है। दिल्ली में मिलने वाले पेयजल में सुपरबग मिलने के खुलासे पर बवाल अभी थमा भी नहीं था कि इस प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल ने यह आकलन छापकर सनसनी मचा दी कि दुनिया में हर रोज सात हजार से ज्यादा मृत बच्चे पैदा होते हैं। दिलचस्प है कि इनमें 68 फीसद मृत बच्चे मारत, चीन और बांग्लादेश सहित दस देशों में पैदा होते हैं। लांसेट ने अपने विश्लेषण में इस समस्या को सीधे आमदनी से जोड़ा है। उसके मुताबिक 98 फीसद मृत बच्चे उन देशों में पैदा हुए जहां आमदनी कम है।
भारत की गिनती भी अगर विपन्नता के मारे ऐसे देशों में होती है तो इसकी वजह यह नहीं है कि हमारे यहां अरबपतियों या धनकुबेरों की कोई कमी है। फोर्ब्स जो सूचियां दुनियाभर के रइसों की छापती है, उनमें भारतीयों का दबदबा लगातार कायम है। पर अमीरी और संपन्नता की गाढ़ी मलाई जिस दूध-पानी पर तैर रही है, उसकी सचाई अब भी खासी स्याह है। लांसेट के नए खुलासे भी इस तथ्य पर मुहर लगाते हैं। आलम यह है कि जो देश अपनी शिनाख्त को पिछले तकरीबन दो-ढ़ाई दशकों में लगातार एक बड़ी इकोनमी पावर के रूप में शिद्दत से गढ़ने में लगा है, वह कोख में नौ माह तक पलने के बाद एक नवजात को दुनिया का मुंह तक देख पाने की वांछित स्थिति और सुविधाएं मुहैया कराने में सबसे पिछड़ा है।
विकास का यह कोढ़ कम से कम हमारे उद्यम और संपन्नता के आंकड़ों और दावों को तो किसी सूरत में मानवीय नहीं ठहराते। अच्छी बात यह है कि अब विकास के इस विरोधाभास को सरकार और उसके योजनकार भी नकारने की बजाय मानने लगे हैं तभी तो विकास की सरपट और प्रतिस्पर्धी दौर में मैदान मारने के बजाय बात अब हो रही है इन्कलूसिव डेवलपमेंट यानी समावेशी विकास की। पंचायतों के सशक्तिकरण से विकास योजनाओं को अमली जाम पहनाने के तंत्र का जो विकेंद्रित रूप सामने आया है, उससे अब गैरबराबरी वाले विकास की खाई को पाटने में मदद मिल रही है। पर अभी यह आगाज मात्र है। सरकार को अपने प्रयासों को इस दिशा में अभी और सघन और कारगर बनाना पड़ेगा तभी गांव-देहातों में स्वास्थ्य सुविधा की बात करें या जच्चा-बच्चा की सुरक्षा की, हमारे देश-समाज का हर हिस्सा हर लिहाज से संपन्न, सुरक्षित और विकसित हो सकेगा। 'गरीबी हटाओ' भारतीय लोकतंत्र में लोकप्रियता हासिल करने का अब तक का सबसे कारगर नारा रहा है। दिल्ली में अभी जो सरकार सत्ता में अपनी दूसरी पारी खेल रही है, उसने भी अपनी सफलता की वजह गांव और गरीब तक पहुंचने वाली मनरेगा जैसी योजना को ही माना है। पिछले कई चुनावों में वोटरों ने तमाम दूसरे वादों के बजाय क्षेत्र के विकास को ज्यादा महत्व देकर अपनी मानसिकता और इरादे में आए फर्क को दर्ज कराया है। क्या अगले कुछ सालों में भारत की खुशहाली का वह चेहरा दुनिया के सामने होगा, जिसमें उसका हर वर्ग, हर इलाका इतना संपन्न आैर खुशहाल हो कि उसका कोई विलोमी पक्ष कहीं से भी रेखांकित न हो। अगर उम्मीद की यह तस्वीर अब भी बेरंग और बेनूर है तो यह सचमुच एक खतरनाक स्थिति है।
एक जरुरी पोस्ट हमारी ऑंखें खोलने में सक्षम, आभार
जवाब देंहटाएंयही है एक देश में दो देश की त्रासदी...
जवाब देंहटाएंजय हिंद...
शुक्रिया मित्रों...!!
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