लोकतंत्र का सबसे बड़ा अनुष्ठान चुनाव भले है, पर यह व्यवस्था मैदान मारने की राजनीतिक चालाकी भर नहीं सिखाता। चुनावी हार-जीत और पक्ष-विपक्ष के आंकड़ों से ज्यादा वजनी हैं, वे नीतियां और आदर्श जो किसी दल को लोकतंत्र में अपनी राजनीतिक भूमिका की प्रेरणा देते हैं, उसके लिए संघर्ष करने का हौसला बढ़ाते हैं। सैफोलोजी की मास्टरी का दावा करने वाले यह कहकर भूल कर रहे हैं कि वाम राजनीति का पटाक्षेप हो चुका है और निकट भविष्य में उसके बाउंस बैंक होने की संभावना नहीं के बराबर है।
भारतीय राजनीति के कम से कम दो दिग्गजों ने यही सबक सिखाया कि गिनती में बढ़ना या पिछड़ना किसी मुद्दे की जीत या हार नहीं बल्कि समय और समाज की दरकार के साथ उसके सरोकार लोकतंत्र में मुद्दों का कद, उसका जीवनकाल तय करते हैं। लोहिया चुनावी राजनीति में हमेशा संघर्ष करते दिखे तो वहीं जेपी ने संसद और विधानसभा में खुद न प्रवेश कर जनतंत्र और जनमत का सबसे ऐतिहासिक आख्यान लिखा। लिहाजा, न यह बेला वाम राजनीति के शाम की है, न ही लाल सलाम कहने वाले कैडरों और होलटाइमरों का मार्क्स और लेनिन से मोहभंग हुआ है? वैसे सवालिया लहजे में खड़ा पर यह मुद्दा इतना भर नहीं है, जितना जल्दबाजी में समझा-बताया जा रहा है।
भारत दुनिया का वाहिद देश है, जहां वोट की राजनीति में कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने को तारीखी तौर पर शामिल किया, साबित किया है। कम्युनिस्ट राजनीति को सांगठनिक रूप से देखने वाले यह भूल करते हैं कि महज माकपा या भाकपा उसका चेहरा, उसका राजनीतिक औजार नहीं हैं। पूंजी और श्रम का संघर्ष डेवलपमेंट के ग्लोबल होड़ में कम होने के बजाय खतरनाक हुआ है। दुर्भाग्य से इस नई स्थिति में गांव, गरीब और मजदूर की चिंता को रेखांकित करने का दारोमदार जिन जनवादी संगठनों और नेताओं पर रहा, वे उसमें पूरी तरह नाकाम हुए। कह सकते हैं कि पूंजी और बाजार के गठजोड़ के आगे संघर्ष के वाम तकाजे न तो ढंग से आम लोगों की चिंताओं का प्रतिनिधित्व कर सके और न ही अंदरूनी बदलाव के लिए वाम दलों में कोई सामयिक ललक दिखलाई पड़ी। मामला केरल का हो या पश्चिम बंगाल का वहां वाम सरकारें केंद्रित उद्योग ढांचों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की आगवानी के लिए ठीक उसी तरह तैयार दिखीं, जैसे देश की दूसरी पार्टियां अपने शासित राज्यों में।
यही नहीं इस दौरान जो अंतर्मंथन जनवादी दलों में दिखा भी वह बगैर किसी बदलाव के अपने कुनबे की बची-खुची जागीरदारी बचाने के लिए। तकरीबन साढ़े तीन दशक की सत्ता की लाली अगर पश्चिम बंगाल ममता की हरियाली के आगे फीकी पड़ गई है, तो यह कई मायने में देश में कम्युनिस्ट राजनीति के लिए ऐतिहासिक वक्त है, जब उसे अपने भविष्य की नीति और रणनीति दोनों के लिए नए सिरे से कमर कसनी होगी। और अगर ऐसा नहीं होता है तो इस सूरत से भी इनकार नहीं किया जा सकता की सांगठनिक रूप में नए वाम अवतार हमारे सामने हों। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि देश की सत्ता में सबसे कम स्पेस को भरने वाली वामपंथी दलों में भीतरी बंटवारा बहुत ज्यादा है।
दिलचस्प है कि दंतेवाड़ा से झाड़ग्राम तक जिस नक्सल प्रभाव की चिंता केंद्र सरकार तक के सिरदर्द है, उसक उत्स भी वाम विचारधारा ही है। यही नहीं छात्र राजनीति की जमीन वैसे तो देश में काफी खिसक चुकी है पर अब भी वैचारिक रूप से वहां वाम विचारधारा की नुमाइंदगी बची हुई है। इससे अलग बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों की भूमिका आज भले देश के नए लोकतांत्रिक ढांचे में गौण पड़ गई हो पर इस जमात की सर्वाधिक यकीनी और प्रतिबद्ध चेहरों की शिनाख्त आज भी प्रगतिशील तबके के रूप में ही है। इसका एक रंग अभी पश्चिम बंगाल में भी दिखा, जहां यही प्रगतिशील तबका वाम मोर्चा की सरकार के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़ा हुआ। लिहाजा, पोलित ब्यूरो और काडर डिसिप्लीन वाले कम्युनिस्ट दलों के लिए यह वक्त का तकाजा है कि वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को सामयिक तकाजों से जोड़ें ताकि जनवादी राजनीति की उसकी परंपरा का आधुनिक कल्प भी सामने आए और आम लोगों का भरोसा उस पर कायम हो। नहीं तो जैसा कि सीपीआई नेता एबी बर्धन कहते हैं कम्युनिस्ट नेता और पार्टियां समय और समाज के हाशिए पर फेंक दिए जाएंगे और इस सिलसिले की बजाप्ता शुरुआत हो चुकी है।
आप की बात सही है। लेकिन वर्तमान वाम दलों से आशा करना व्यर्थ है। मेरी समझ में आज देश में कोई भी कम्युनिस्ट पार्टी नहीं है जो कि क्रांति के लिए काम कर रही हो। मुझे लगता है कि उसे अभी बनना शेष है। वर्तमान में जो समूह काम कर रहे हैं। वे ही किसी दिन एकत्र हो कर उस का निर्माण करेंगे।
जवाब देंहटाएं