दूर होकर भी हम किसी के बेहद करीब हो सकते हैं और कोई बेहद नजदीक होकर भी हमारा नहीं होता। ये बातें प्रेमाख्यानों और कविताई में ही नहीं, जिंदगी की कई दूसरी सूरतों में भी हम बारहा महसूस करते हैं। असल में दूरी और नजदीकी का सच समय, स्थान और परिवेश के साथ बदलता है। कहा यह भी जाता है कि दूरी हमारी पहचान के गाढ़ेपन को तो हल्का करती है पर उसके दायरे को बढ़ा देती है। नजरिया, मजहब, राजनीति, स्थान और बोली के अंतर देश में जिस अनेकता की लकीरों के रूप में दिखते हैं, देश के बाहर वही अनेकता हमें एकता के सूत्र में बांधती है। दूरी और मनुष्य के रिश्ते का यह मनोवैज्ञानिक सच तो है ही उसके सामाजिक और सार्वजनिक सलूक से जुड़ी बुनियादी बात भी है।
जिस अन्ना हजारे को अपने देश में और अपनी सरकार से अपनी बातें कहने-मनवाने के लिए 98 घंटे का अनशन करना पड़ा, उसी को लेकर सरकार को जब देश के बाहर अपनी बातें कहनी होती है तो वह इसे किसी टकराव या मतभेद के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली का नया आयाम बताती है। वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी उस लोकपाल बिल प्रारूप समिति के अध्यक्ष हैं, जिनमें पांच सदस्य सरकार की तरफ से और पांच सदस्य नागरिक समाज की नुमाइंदगी कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत की इतिहास में यह अभिनव प्रयोग है, जब कानून बनान के लिए सामज और सरकार एक साथ बैठी है। चूंकि प्रयोग नया है, लिहाजा इस पर प्रतिक्रियाएं भी कई तरह की हैं। सरकार के साथ राजनीतिक बिरादरी में अभी तक इस बात को लेकर बयानबाजी जारी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का प्रयोग सैद्धांतिक तकाजों पर कितना खरा या खतरनाक है। पर ये बातें देश के भीतर जिस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म दे रही हैं, देश की सीमा से बाहर उसका स्वरूप इससे नितांत भिन्न है। अमेरिका से लेकर यूके और फ्रांस तक में अन्ना के सत्याग्रही प्रयोग के कई प्रशंसक हैं और वे अपने-अपने तरह से इस पहल को ग्लोबल बनाने के लिए प्रयासरत भी हैं।
इस स्थिति से सरकार भी अवगत है और वह इसे लोकतांत्रिक ढांचे के सशक्तिकरण की कोशिश के रूप में ही दुनिया के आगे रखना चाहती है। तभी तो एशियाई विकास बैंक की बैठक के दौरान जब प्रणव मुखर्जी को जब अन्ना हजारे को लेकर प्रतिक्रिया जतानी पड़ी तो वह यह स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचके कि लोकपाल मुद्दे पर सामाजिक संगठनों के दबाव में सरकार को तत्काल कार्रवाई करनी पड़ी क्योंकि कोई भी जिम्मेदार और जवाबदेह सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती। मुखर्जी एक वरिष्ठ राजनेता हैं। वह यह जानते हैं कि लोकतंत्र की मर्यादाएं क्या हैं और किस तरह असहमतियों के बीच सहमति की गुंजाइश निकालनी पड़ती है। तभी तो वे इस मौके पर यह कहना भी नहीं भूले कि सरकार की कार्यप्रणाली के विभिन्न पहलू पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार मुक्त तो होना ही चाहिए।
देश के बाहर देश की जिस तस्वीर को हम निहायत ही भावुकता के साथ बनाते हैं, उस तस्वीर का सच देश के भीतर भी प्रकट हो तो विचार और वस्तुस्थिति की अनेकता के बीच एकता कायम होगी। लोकपाल बिल प्रारूप समिति की अभी तीन बैठकें हुई हैं। बैठक के टेबल से सहयोग और सौहार्द का संदेश ही बाहर जाए ऐसी कोशिश दोनों पक्षों की तरफ से रही है। देश के भीतर भी ऐसा ही माहौल रहे तो बड़ी बात होगी। क्योंकि परेदस में देस याद आना और देस में इस याद का बिसर जाना खतरनाक है। यह बात कोई और समझे न समझे प्रणव दा तो जरूर समझते होंगे।
अच्छा आलेख!
जवाब देंहटाएंbahut hein aachcha aalekh hai.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मित्रों !!
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