LATEST:


शुक्रवार, 20 मई 2011

बोल भी दो अब कि ना बाबा ना


 पुजारी सर्वनारायण झा या बाबा धर्मदास उर्फ धर्म प्रकाश कपूर ढोंगी संतों-तांत्रिकों की फेहरिस्त में जुड़े कुछ और चमत्कारी नाम हैं। दोनों पर आरोप है महिला के साथ बलात संबंध बनाने का। झा ने तो यह कुकृत्य एक 17 साल की लड़की से उसी के घर में अकेलेपन का फायदा उठाकर किया। मामला खुलता देख वह फरार हो गया। दिल्ली पुलिस ने उसे बिहार में दरभंगा से गिरफ्तार किया है। झा जी की उम्र तकरीबन 60 के करीब है। पुजारी होने के नाते पूजा के विधान में ही वे अब भी अपने पाप को छुपाने का भरसक कोशिश कर रहे हैं। दलील दे रहे हैं गणेश की विशेष पूजा के लिए जांघ से जांघ मिलाना जरूरी होता है और बस यही उसने किया पीडि़त नाबालिग लड़की के साथ।
धर्मदास का रैकेट झा के मुकाबले बड़ा है और वह शातिर भी ज्यादा जान पड़ता है। अब तक कम से कम तीन महिलाओं ने उस पर रेप के आरोप लगाए हैं। पर आलम यह है कि विरोधियों से ज्यादा सक्रिय उनके समर्थक हैं जो उसके समर्थन में अदालत तक नारे लगाते पहुंच गए। बताते हैं कि धर्मदास ने बजाप्ता तैयारी के साथ अपना मंदिर बनवाया और फिर मिनटों में लोगों का कष्ट हरने का झांसा देकर रातोंरात अपने भक्तों की पूरी बिरादरी खड़ी कर ली। भांडा फूटने पर पता चला कि धर्मदास एक यौन अपराधी है और उसने धर्म की आड़ में वह सब कुछ किया, जिसकी इजाजत कम से कम कोई धर्म या पंथ तो नहीं देता।

अब तक जितने खुलासे हुए हैं उसमें धर्मदास या सर्वनारायण झा का अपराधी कद उतना बड़ा नहीं जितना है, जितना धर्म के कई कुख्यात ध्वजावाहकों का रहा है। इसी दिल्ली में पिछले साल हम देख चुके हैं कि धर्म के धुले आवरण में सेक्स दुनिया का 'इच्छाधारी' अपराधी कैसे फन काढ़ता है। देश के दूसरे हिस्सों से भी आए दिन धर्म के नाम पर 'नित्यानंद' के मामले सामने आते रहते हैं। दरअसल, यह एक ऐसे समय का भयावह सच है जिसमें धर्म ने बाजार, व्यापार और विस्तार का नया संसार रचा है। दिलचस्प है कि धर्म-धंधा का यह पूरा साम्राज्य जिस भरोसे के नाम पर खड़ा हुआ है, असल में उस भरोसे को ही उसने सबसे ज्यादा तोड़ा है, कई तरह के समझौते के लिए मोहताज बनाया है। एक धर्मभीरु समय और समाज के लिए धर्म और उसकी प्रवृतियों का क्या और कितना महत्व रह जाता है, उसकी छानबीन अगर कोई तफ्सील से करना चाहे तो उसे धर्मदास जैसे इच्छाधारियों के अपराध रिकार्ड में लंबे समय तक गोते लगाने होंगे।
अगर मौजूदा स्थितियां हमारी संवेदनाओं को झकझोरती हैं तो हमारी चेतना यह भी कबूलने से शायद ही परहेज करे कि परम भोग के चरम दौर की और कोई दूसरी नियति हो भी नहीं सकती। देश का कानून आैर न्याय के मंदिर इन मामलों पर चाहे जो फैसला करें, एक फैसला तो उस समाज को भी करना होगा जो भक्ति, ईश्वर और धर्म को ढोंग और पाखंड के स्वामियों के हाथों सौंपकर अपने कल्याण के सपने देखता है। हम कैसे यह भूल जाते हैं कि विषय-वासना का शमन ही धर्म है और भोगरहित संतोष ही उसकी प्राप्ति का अकेला मंत्र। अगर देश के दूरदराज के इलाकों में धर्म और तंत्र-मंत्र की दुनिया आबाद होती तो वहां की जहालत को भी इसका दोषी ठहरा दिया जाता पर अगर दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरू जैसे महनगरों में यह दुनिया आबाद हो रही है, फल-फूल रही है तो कहीं न कहीं मानना पड़ेगा कि हमारा सभ्य शिक्षित और आधुनिक नागरिक समाज अपनी सोच और चेतना के स्तर पर न सिर्फ तंगहाल है, बल्कि कुत्सित भी है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो वह आसानी और सहजता धर्म के इन धंधेबाजों को मुहैया नहीं हो जाती, जो महानगरों की रेशमी दुनिया में इन्हें सहज ही उपलब्ध हैं। लिहाजा, हम सामने देखकर चौकने, चीखने या भन्नाने की बजाय अपने हिस्से की कमजोरी के कबूलनामे से भी न कतराएं। क्योंकि हमारा अपना खालीपन अधर्म के गुरुत्व को संभव कर रहा है और यह बात हम जितनी जल्दी समझ जाएं उतना बेहतर होगा।   

2 टिप्‍पणियां: