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शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं


पिछले 10-15 सालों में लिखने-पढ़ने की दुनिया में जो बड़ा फर्क आया है, वह है लुगदी साहित्य की दुनिया का सिमटते जाना। यह सिमटना आज उस स्तर पर आ गया है कि वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है लुगदी साहित्य के पूरे कारोबार को। सुहागरात कैसे मनाएं से लेकर जीजा-साली की रंगीन शायरी तक नीली-पीली रोशनी में नहाई किताबों और पत्रिकाओं के आज न तो खरीदार बचे हैं और न ही इनके छापने वाले। दिलचस्प है कि यह परिवर्तन किसी पाठक जागरूकता या सामाजिक चेतना के चलते नहीं आया है। इसके पीछे वह बदली स्थितियां हैं, जिनके बीच आज का सामाजिक मनोविज्ञान गढ़ा जा रहा है। कमाल की बात है कि इस परिवर्तन के कारण न तो नंगेपन और यौनकर्म का गोपन भेदने की मानसिकता में कोई  कमी आई है और न ही न्यूड या पोर्न  की दुनिया का अंधेरा छंटा है। ऐसा लग रहा है जैसे सिंगल स्क्रीन थियेटरों की जगह मल्टीप्लेक्सों ने ली है, उसी तरह खुरदरे कागजों और नीली पन्नियों में लिपटा यौन साहित्य अब बेतार वर्चुअल  व विजुअल माध्यमों से अपनी पहुंच को ज्यादा सरल और ज्यादा सहज तरीकों से लोगों तक पहुंच रहा है। माउस के एक क्लिक पर जो हजारों-लाखों घंटों व पन्नों की जिस संपन्न दुनिया में दाखिला आज हरेक के लिए सुलभ है, वह सूचना या ज्ञान से भरा हो या नहीं उस आधुनिक मनोविज्ञान से जरूर भरा है। जो मानवीय और सामाजिक संबंधों के तमाम सरोकारों का सेक्स के बिस्तर पर लिटाकर परीक्षण करना चाहता है। इस परीक्षण की उत्सुकता जितनी बढ़ी है, उससे ज्यादा इसके लिए सुलभ हुए अवसर हैं। चाहें तो आप इंटरनेट पर सीधे किसी सर्च इंजन का सहारा लें या किसी ऐसे सोशल ग्रुप में शामिल हो जाएं, जो ज्यादा सक्रिय और ज्यादा प्रयोगवादी या आधुनिक हैं। अगर आपका संकल्प तगड़ा हो तो विकल्प के इन दोनों विकल्पी रास्तों पर आपको इतने जंक्शन मिलेंगे कि दंग रह जाएंगे।
चांद पर पानी है या नहीं, मंगल पर जीवन संभव है या नहीं और ग्लोबल वार्मिंग की दुरूह स्थितियां अगले कितने सालों में हमारे लिए असह्य होने वाली हैं, पूरी दुनिया में आज इन तमाम जिज्ञासाओं से ज्यादा यह चाहत है कि किसी भी स्त्री से भोगास्वादन के कितने विकल्प संभव हैं। इंटरनेट तो इंटरनेट मोबाइल फोन पर बार-बार आने वाले सर्विस कॉल बार-बार याद दिलाते हैं कि अगर आपकी दुनिया में रंगीनी कम हैं तो रंगीन मिजाज उन्मुक्त लड़कियां आपका इंतजार कर रही हैं।  यही आमंत्रण किसी भी अखबार के भीतरी पन्नों पर खुले ऑफर की शक्ल में मौजूद हैं। सो क्या हुआ, अगर काम और कोक के नाम पर बिकने वाले नीले-पीले साहित्य की छपाई बंद हो गई। अब सब कुछ हाई डेफिनेशन तकनीक के साथ मुहैया हो रही है।
तकनीक और यंत्र का दैत्यकारी विकास मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन, सबसे बड़ा दुश्मन है। गांधीजी यह बात सौ साल पहले कह गए। उनकी बात आज सही साबित हो रही है। पर आज सब कुछ देख-सुन लेने के बाद अगर वे अपनी बात कहते तो शायद यह भी जोड़ते कि तकनीक को अपनी मुट्ठी में कर आदमी शोषक ही नहीं बनता, आक्रमक तरीके से कामभोगी भी बनता है। स्त्री विमर्शवादी लहजे में कहें तो देह-भक्षण की प्रवृत्ति को जाग्रत और उन्मुख बनाए रखने में तकनीकी पहलू भी है। लिहाजा पुरुष तो पुरुष उसका तकनीकी आंदोलन भी स्त्री विरोधी है। इससे बेहतर तो वह खुरदरे पील-नीले कागजों की ही दुनिया थी, जहां फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. हर सिक्के के दो पहलु होते हैं.. उसी तरह इस अंतरजाल के भी दो पहलु हैं..
    बस सब कुछ इसी बात पर निर्भर करता है कि कौन इस किस तरह से इस्तेमाल करता है..

    अगर सही दिशा में कोई इंसान चला जाए तो वारे न्यारे हो जाएँगे अन्यथा गलत दिशा में जाने वालों की तो पंक्ति इतनी लंबी है कि अंत भी नहीं दिखता है...

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  2. @--इससे बेहतर तो वह खुरदरे पील-नीले कागजों की ही दुनिया थी, जहां फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं।

    So true !

    ,.

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  3. ...thanx...4 acknowledge or admit my view..
    ...Pratik..har sikka ka do phloo jrur hota han..pr hr bar asa nhi hota...kuch sikka khota bi hota han...anyway i welcome ur comment...

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  4. नीले-पीले कागजों की जगह आज समाजिक व जिंतन शील माने जाने वाले लेखकों ने ले ली हैं भले ही इनका कवर पृष्ठ कितना ही अलग हो रात के अधेंरों की कहानियाँ वहीं हैं।

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