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बुधवार, 7 दिसंबर 2011

जैक्सन, जफर और देव साहब !

उम्र को थामने की जिद कामयाबी और शोहरत के साथ जिस तरह मचलती है, वह तारीख के कई नामवर शख्सयितों की जिंदगी की शाम को उसकी सुबह से बहुत दूर खींचकर ले गई। सौंदर्य को पाने और देखने की दृष्टि के कोण चाहे न चाहे उम्र के चढ़े और ढीले लगाम ही तय करते हैं। पर यह सब जीवन की नश्वरता के खिलाफ एक स्वाभाविक मोह भर नहीं है। कुछ लोग जिंदगी को रियलिटी की बजाय एक फैंटेसी की तरह जीने में यकीन करते हैं। इस फैंटेसी को दिल से दिमाग तक उतार पाना और फिर अपने लिए जीने का अंदाज तय करना जिंदगी को इतिवृतात्मक गद्य की बजाय कविता की तरह जीना है। जब तक कोई याद नहीं दिलाता, मुझे अपनी उम्र याद नहीं आती। यह कोई फलसफाना बयान भले न सही पर शो बिजनस की दुनिया के एक अस्सी साला सफर का उन्वान जरूर है। 
चार साल पहले जब सदाबहार अभिनेता देवानंद की आत्मकथा लोगों के हाथों में पहुंची, तो शायद ही किसी को इस बात पर हैरानी हुई होगी कि उन्होंने उसका नाम 'रोमांसिंग विद लाइफ' रखा। यह रोमांस सिर्फ एक कामयाब या सदाबहार अभिनेता या देश के पहले स्टाइल आइकन का कैमरे की दुनिया की तिलस्म के प्रति नहीं था, बल्कि इस रोमांस के कैनवस को असफल प्रेमी से लेकर हरदिल अजीज इंसान का सतरंगी शख्सियत मुकम्मल बनाता था। तभी तो उनके बाद की पीढ़ी के अभिनेता ऋषि कपूर कहते हैं कि वे मेरे पिता की उम्र के थे पर उनके जीने का अंदाज मेरे बेटे रणबीर कपूर के उम्र का था।
यह हमेशा जवान रहने की एक लालची जिद भर नहीं थी। उनकी ही फिल्म के ही एक मशहूर गाने की तर्ज पर कहें तो यह हर सूरत में जिंदगी का साथ निभाने का धैर्यपूर्ण शपथ था, जिसे उन्होंने कभी तोड़ा नहीं बल्कि आखिरी दम तक निभाया। यह विलक्षणता अन्यतम है। अमिताभ बच्चन ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि में कहा भी कि उनके बाद उनकी जगह दोबारा नहीं भरी जा सकती क्योंकि यह एक युगांत है। राज कपूर, दिलीप कुमार 
और देवानंद ने ऐतिहासिक रूप में हिंदी सिनेमा के सबसे गौरवशाली सर्ग रचे, उस तिकड़ी की एक और कड़ी टूट गई। अब हमारे बीच सिर्फ दिलीप साहब रह गए हैं। इस त्रिमूर्ति के बाद भी हिंदी सिनेमा की चमक और चौंध कम होगी ऐसा नहीं है पर सूरज आंजने की कलाकारी तो शायद ही देखने को मिले।
अपने 88 वर्ष के जीवन में देवानंद ने तकरीबन सौ फिल्में की 
और 36 फिल्में बनाई। आंकड़ों में यह सफरनामा आज बॉलीवुड के औसत दर्जे के अभिनेता भी पा लेते हैं पर देवानंद होने की चुनौती इनसे कहीं बड़ी है। दिलचस्प है कि जिस फिल्मफेयर ने उन्हें 1966 में फिल्म 'गाइड' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा था, उसी ने तीन दशक से कम समय में इस लाजवाब प्रतिभा के फिल्मी करियर के अंत की भी घोषणा कर दी, उन्हें लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार थमा कर। यह देवानंद ही थे कि उन्होंने ऐसे पुरस्कार तब भी और बाद में भी विनम्रता से कबूले पर अपने सफर के जारी रहने की घोषणा हर बार करते रहे। कुछ लोगों की यह शिकायत जायज ही है कि अपने जीवन में ही एक बड़े अकादमी के रूप में स्थापित हो चुके देव साहब के तजुर्बे और प्रतिभा का सही इस्तेमाल न तो सरकार ने किया और न ही हिंदी फिल्म उद्योग ने अपनी किसी बड़ी पहल का उन्हें साझीदार बनाया। अब जब वे हमारे बीच नहीं रहे तो इस बात की कचोट और ज्यादा महसूस हो रही है।
देव साहब ने आखिरी सांस लंदन में ली। पर उनके लिए यह कोई ऐसी शोक की बात नहीं थी कि वह आखिरी मुगलिया बादशाह बहादुरशाह जफर की तरह शायराना अफसोस जताते। उन्होंने तो पहले से ही कह रखा था कि उनके शव को उनके देश न लाया जाए। दरअसल, देव साहब जिस आनंद के साथ अपनी जिंदगी को आखिरी दम तक जीते रहे, उसका सिलसिला वे जिंदगी के बाद भी खत्म नहीं होने देना चाहते थे। उनकी चाहत थी कि वे अपने चाहनेवालों की जेहन में हमेशा एक ताजादम हीरो की तरह बसे रहे। अपने लाइफ स्केच को पूरा करने का ये रोमानी 
और फैंटेसी से भरा अंदाज शायद ही कहीं और देखने को मिले।
माइकल जैक्सन के अंत को याद करते हुए इस सदाबहार अभिनेता की जीवटता की जीत को समझा सकता है। जैक्सन का हीरोइज्म कहीं से कमजोर नहीं था पर शोहरत 
और कामयाबी की चमक में उसके खुद का वजूद कहीं खोकर रह गया था। इस खोए-खोए चांद को देव साहब ने अपने आसमान के आस्तीन पर हमेशा टांक कर रखा। ...और इस चांद का मुंह हमारी यादों में शायद ही कभी टेढ़ा हो। 

10 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे प्रिय अभिनेता हैं।
    विनम्र श्रद्धांजलि।

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  2. बहुत सुन्दर ढंग से रखा आपने एक महान कलाकार के जीवन और दर्शन को...

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