बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है ।
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।
very nostalgic.. bahut utkrisht lekh likha hai aapne.. seeti pahle filmi hui thi ab sahityik ho gai..
जवाब देंहटाएंsiti se yaad aai ched-chaad aur use yaad aayaa pyar is hee vishay par maine bhi ek post likhi hai samay mile to aaiyegaa meri post par aapka svaagat hai....http://mhare-anubhav.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंsiti bajana manoranjan ka sadhan bhi raha hai aur ched-chhad ka bhi. siti yug mein siti se bhay nahin lagta thaa kyonki ye sach hai ki siti bajane wale shaaririk utpidan ya chot nahin karte they. parantu ab ke yug mein ched chhad mein siti ki jagah mms, phone call aur shaaririk utpeedan ho gaya hai. kraanti ka daur aana har yug ke liye achchha hai lekin iske sath hin maansik patan ho raha hai jo hamare liye durbhaagya ki baat hai. bahut achchhi tarah is vishay par aapne sameekshaatmak lekh likha hai, dhanyawaad.
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