फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता है जिधर कोई।
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।।
जगजीत सिंह, सुल्तान खां, भूपेन हजारिका, श्रीलाल शुक्ल, इंदिरा गोस्वामी, देवानंद... यह साल अपनी विदाई बेला में भी शायद उतना रुदन न लिख सके, जितना जीवन और समाज की संवेदनाओं को अपनी उपस्थिति से नम करने वाली कुछ अजीम शख्सियतों को हमसे छीनकर हमारे दिलों पर लिख दिया है। अभी गम को पुराने बादल छटे भी नहीं थे कि जनकवि अदम गोंडवी का साथ हमेशा के लिए छूट जाने की खबर ने सबको मर्माहत कर दिया। इसे हिंदी पत्रकारिता के दिलो-दिमाग में उतरा देशज संस्कार कहें या जमीनी सरोकार कि तमाम अखबारों ने अदम के देहांत की खबर को स्थान देना जरूरी समझा।समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।।
अदम जनता के शायर थे और अपनी शख्सियत में भी वे आमजन की तरह ही सरल और साधारण थे। पुराने गढ़न की ठेहुने तक की मटमैली छह-छत्तीस धोती, मोटी बिनाई का कुर्ता और गले में सफेद गमछा लपेटे अदम को जिन लोगों ने कभी मुशायरों-कवि सम्मेलनों में सुना होगा, उन्हें इस निपट गंवई शायर के मुखालफती तेवर के ताव और घाव आज ज्यादा महसूस हो रहे होंगे। हिंदी की कुलीन बिरादरी इस भाषा को किताबों और सभाकक्षों में चाहे जो स्वरूप देकर अपना सारस्वत धर्म निबाहे, इसकी आत्मा तो हमेशा लोक और परंपरा के मेल में ही बसती है। यही कारण है कि अपने समय की सबसे चर्चित और स्मृतियों का हिस्सा बनी काव्य पंक्तियों के रचयिता इस जनकवि को अदबी जमात ने अपने हिस्से के तौर पर मन से कभी नहीं कबूला।
अदम काफी हद तक कबीराई मन-मिजाज के शायर थे। इसलिए उन्हें इस बात का कभी अफसोस रहा भी नहीं कि उन्हें उनके समकालीन साहित्यकार और आलोचक किस खांचे में रखते हैं। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का हल्का और बाजारू चरित्र उन्हें खलता तो बहुत था पर वे इन मंचों को जनता तक पहुंचने का जरिया मानकर स्वीकार करते रहे। अपने कीब 63 साल के जीवन में उन्होंने हिंदुस्तान की उम्मीद और तकदीर का वह हश्र सबसे ज्यादा महसूस किया जिसने आमजन के भरोसे और उम्मीद को कुम्हलाकर रख दिया। सत्ता, सियासत और दौलत के गठबंधन ने गांव और गरीब को जैसे और जितनी तरह से ठगा, उसका जीवंत चित्र अदम की शायरी का सबसे बड़ा सरमाया है। अपने समय में सत्ता के खिलाफ वे सबसे हिमाकती और मुखालफती आवाज थे।
'काजू भुने प्लेट में व्हिसकी गिलास में/ उतरा है रामराज्य विधायक निवास में', 'इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया/ सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की', 'जो न डलहौजी कर पाया वो ये हुक्मरान कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे'....जैसे नारे और बगावती बयाननुमा पंक्तियों को लोगों की जुबान पर छोड़ जाने वाले अदम गोंडवी के बाद जनभावनाओं को निर्भीक अभिव्यक्ति देने वाली जनवादी काव्य परंपरा की निडरता शायद ही कहीं नजर आए।
जहां तक कथन के साथ काव्य शिल्प का सवाल है तो हिंदी में दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी अकेले ऐसे शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ हिंदी शायरी की जमीन का रकबा बढ़ाया बल्कि उसे मान्यता और लोकप्रियता भी दिलाई। हिंदी के काव्य हस्ताक्षरों की कबीराई परंपरा में अदम नागार्जुन और त्रिलोचन की परंपरा के कवि थे। अदम हिंदी और उर्दू की साझी विरासत के भी खेवनहार थे, यही कारण है कि हिंदी के साथ उर्दू बिरादरी भी उन्हें अपना मानती है। अपने समकालीन उर्दू शायरों में वे बशीर बद्र, मुन्नवर राणा, निदा फाजली, राहत इंदौरी और वसीम बरेलवी जैसे ताजदार नामों की तरह जनता की जुबां पर चढ़े शायर थे। शेर लिखने और अर्ज करने का उनका अंदाज बहुत नाटकीय नहीं था। उन्हें सुनने वाले उनके सीधे-सपाट पर बेलाग अंदाज के कायल थे। मानवीय अस्मिता के बढ़ते खतरों के बीच एक खरी और ईमानदार आवाज को मुखालफती जज्बों में बदलने का जोखिम उठाने वाले रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि।
जनकवि रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि।
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जवाब देंहटाएंहमने कभी इन्हें आमने सामने तो नहीं देखा,पर इनकी रचनाओं द्वारा इनके विराट और सरल जनकवि की जो छवि देखी,बरबस ही मस्तक श्रद्धानत झुक गया...
जवाब देंहटाएंसत्य है ऐसे चिन्तक, shrijankar कभी कभार ही अवतरित हो dhartee maa की khokh ko gourvanvit होने का अवसर देते हैं...