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मंगलवार, 6 मई 2014

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


सीजन चुनाव का है तो आजकल बातें भी सबसे ज्यादा चुनावों को लेकर ही हो रही हैं। नेताओं के भाषणों से लेकर चाय की दुकानों पर होने वाली बहसों में जो एक बात कॉमन है, वह है भारत के नए वोटरों की बात। सभी यही कह रहे हैं कि 18 से 28 वर्ष की उम्र के नौजवान इस बार चुनावी निर्णय को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। इसी के साथ शुरू हो गया है एक नया विमर्श फ़ेसबुकिया पीढ़ी से लेकर ग्लोबल पीढ़ी की शिनाख्त पाने वाले नौजवान भारत को लेकर। ज्यादातर आग्रह इंपोजिग नेचर के हैं तो कुछ दलीलों में तथ्य कम आग्रह ज्यादा है। दरअसल, जिसे नए दौर की पीढ़ी कहते हैं, उसकी चेतना और मानस को समझने के लिए हम ग्लोबल तकाजों की तलाश करते हैं। पर उसकी दुनिया बिल्कुल वैसी ही नहीं है, जैसी मीडिया या फिल्मों में दिखाई पड़ती है। इस विभ्रम की सबसे बड़ी वजह देश की गुड़-माटी की समझ रखने वाले क्रिटिकल एप्रोच में तेजी से आई कमी है। 
लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चितन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए कि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा हैं। पर तथ्य के साथ सत्य भी यहीं आकर टिकता हो, ऐसा नहीं है। 
सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस
दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा हैं। ऐसा हो भी भला क्यों नहीं। क्योंकि इनमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सबको भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। 
ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि ग्लोबल इंडिया का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई की जो असली सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है। 
लोकतंत्र पर भरोसा 
इस दशक के तकरीबन आरंभ में 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉîमग वर्ल्ड : एटीट्यूड्स एंड परसेप्शन’ नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमîजग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उसकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं। 
साफ है कि पिछले दो-ढाई दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करिअर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों से ज्यादा के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
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चार बोतल बोदका
देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से एक बात और... रूढ़ियां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्ज़ा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। 
पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम 'इंडिया’ से 'भारत’ की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। 
नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है। 
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विकास का खाका और झांसा 
पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई। यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमîजग इकोनमी पावर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा लेते रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खानों में देश को खुशहाल जरूर बताया जा सकता है पर यह देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे लौटेंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले कई देश एक बार फिर संरक्षणवादी नीतियों को अमल में लाने लगे हैं।


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