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सोमवार, 17 जनवरी 2011

हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी


यह दौर युवाओं का है। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे युवा पहली बार किसी दौर की अगुवाई कर रहे हैं याकि युवाओं की मौजूदगी को महसूस करना कोई आविष्कारिक घटना सरीखा है।  दरअसल, यह एक आशावादी दृष्टिकोण है भविष्य के प्रति। युवाओं के बहाने हम अपने भविष्य को बेहतर गढ़ना चाहते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं। वैसे कोई दौर उन तमाम लोगों का होता है, जो उस दौर के जीवनकाल को जीते हैं। यह अलग बात है कि नायकत्व की दावेदारी और अवधारणा दोनों ही समवेत की जगह भेड़िया और गड़ेरिया वाली समझ से बनती है। बहरहाल, ये बातें यहीं तक...आगे एक सीधा सवाल कि क्या हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी है? क्या नई पीढ़ी का मानस इतना आधुनिक आैर विकसित हो गया है कि वह अपने जनकों की परवाह किए बगैर भविष्य का रास्ता तय करना चाहते हैं?
अगर हम ऐसे कुछ सवालों से दो-चार होना चाहें तो अपने समय की एक अनुदार और निराशाजनक स्थिति की पूरी बुनावट समझ में आएगी। शहरों से लेकर गांव तक बुजुर्गों के अकेले और निहत्थे पड़ते जाने की नियति घनी होती जा रही है। तकरीबन तीन साल पहले केंद्र सरकार का ध्यान इस ओर गया और उसे जरूरी लगा कि वह बच्चों को अपने मां-पिता के प्रति कानूनी तौर पर जवाबदेह बनाए। केंद्र  ने तब इस मुद्दे को लेकर जो पहल की वह आज भी पूरी तरह कारगर नहीं है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों का गैरजिम्मेदार रवैया रहा। महज दस राज्यों में ही यह कानून पूरी तरह लागू हो पाया। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सबसे ज्यादा बुजुर्ग आबादी है। पर इन राज्यों ने बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानून को अपने यहां लागू करने की जरूरत ही नहीं समझी। रही जहां तक केंद्र सरकार की बात तो वह केंद्र शासित राज्यों से भी अपनी बात मनवाने में नाकाम रही। नतीजतन तीन साल पुरानी पहल के अनापेक्षित हश्र के बाद केंद्र के स्तर पर भी अब बुजुर्गों की सुरक्षा को लेकर किसी नई पहल या एजेंडे को लेकर कोई चिंता, कोई बहस नहीं चल रही है।
आलम यह है कि 1999 के बाद से राष्ट्रीय बुजुर्ग नीति की न तो समीक्षा हुई और न ही नई नीति पेश करने को लेकर कोई अंतिम सूरत सामने है। गैरतलब है कि देश में दस करोड़ से ज्यादा बुजुर्गों को इस कानून के तहत संरक्षण दिए जाने का लक्ष्य था। अब जबकि बुजुर्गों के भरण-पोषण और कल्याण के लिए बना यह कानून अपने लक्ष्य और उद्देश्यों को कहीं से भी पूरा करता नहीं दिखता तो एक सवाल तो जरूर कचोटता है कि क्या हम सचमुच इतने असंवेदनशील और क्रूर समय को जी रहे हैं, जिनमें उम्र की लाचारी की तरफ न देखना हमारी आदत और खुदगर्ज जरूरत का हिस्सा बन गया है। 
वरिष्ठ नागरिकों के नाम पर बैंकों के जमा खाते में कुछ फीसद का ब्याज बढ़ा देने और रेल यात्रा टिकटों में कुछ रियायत देकर हमारी सरकारें बुजुर्गों के प्रति जो टोकन रूप में फर्ज निभा रही हैं, उसकी एक असलियत यह भी है कि देश में अपराधी तो अपराधी, अपने बच्चों तक से इन उम्रदराज लोगों को जीवन का सबसे ज्यादा खतरा है। परिवार की संयुक्त अवधारणा के विसर्जन ने जहां नौजवानों के लिए सुविधाजनक एकल परिवार की संकल्पना सामने रखी, वहीं एक उम्र के बाद समय और समाज के लिए गैरजरूरी बोझ बनने की खतरनाक नियति को भी रच दिया। अगर हम सचमुच एक जागरूक, जवाबदेह और संवेदनशील भविष्य की कामना करते हैं तो हमारी सरकारों के साथ समाज को भी बुजुर्गों के प्रति पूरी तरह ईमानदार और जवाबदेह होना पड़ेगा।

2 टिप्‍पणियां:

  1. समाज और सरकार से कहीं अधिक यह मुद्दा संतानों की स्व-सोच पर आधारित होना चाहिये ।

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