वेंडर मशीनों से कंडोम का मुफ्त वितरण उतना ही जरूरी है जितना गली-मोहल्ले में खुले एटीएम से पैसे निकालने की आसानी। गुजरात में पिछले गरबा महोत्सव को हॉट इवेंट का दर्जा दिलाने के लिए गरबा पांडालों में ये दोनों ही सुविधाएं एक साथ मौजूद थीं। इससे पहले दिल्ली जैसे शहरों में रेड लाइट इलाकों को सेहत के लिहाज से कंडोम के मुफ्त वितरण के प्रयोग आजमाए जा चुके हैं। इस तरह की समझदारी अब नई नहीं रही, बात इससे आगे निकल चुकी है। कंडोम का बचावकारी मिथ अब टूट रहा है, उन पुरुषों के लिए जिनके लिए कभी भी यह स्वेच्छा का चुनाव नहीं रहा। हारे को हरिनाम और डरते को चलाना पड़े कंडोम से काम। हाल तक की स्थितियां यही थीं। पर अब बदल रहा है सब कुछ।
पिछले एक दशक में 'देह' को हर लिहाज से 'संदेहमुक्त' कराने की पराक्रमी कोशिशें हुई हैं। वैसे न तो ये कोशिशें नई हैं और न ही इनके पीछे की मंशा। फर्क है तो बस उस व्यग्रता और तेजी में जो इन डरे-सहमे और छिपे उपक्रमों को आज खुलेआम धार चढ़ा रहे हैं, रैशनल कसौटियों पर कस रहे हैं। कंडोम का झल्लीदार अवरोध सुरक्षा की चाहे जितनी अचूक गारंटी हो, पर इसे स्वीकार करने वाला पुरुष मन आज तक भारी रहा है। यह भारीपन तकरीबन वैसा ही है, जैसा नसबंदी से भागने वाली पुरुषवादी झेंप। पहली सूरत में ऐसा लगता है जैसा यौन मोर्चे पर पौरुष तेज को जानबूझकर निस्तेज किया जा रहा है जबकि दूसरी सूरत पौरुषपूर्ण पराक्रम को आत्मघाती तरीके से कमजोर करने की है। पर अब ये सारी दुविधाएं, सारी समस्याएं बीती बातें हो चुकी हैं। रियलिटी शोज के जमाने का रिलेशन भी रियल फील और थ्रिल से लबरेज है और इस फील को डंके की चोट पर मुहैया करा रही हैं आई-पील और अनवांटेड 72 जैसी रंग-बिरंगी गोलियां बनाने वाली कंपनियां।
प्रेम का महापर्व आनेवाला है। नई सदी में यह महापर्व अपना पहला दशक पहले ही पूरा कर चुका है। इस बार तो इसके विस्तार का नया चरण शुरू होगा। याद आती है 'डेबोनियर' की तर्ज पर हिंदी में प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका का पहला संपादकीय। संपादक महोदय ने ओशोवादी लहजे में प्रेम की देहमुक्ति की मांग पर आंखें तरेरी थीं। लिखा था- 'प्रेम वासना की कलात्मक अभिव्यक्ति है'। आज तो ऐसे तर्कों की दरकार भी नहीं। हिंदी के बौद्धिक जगत में तो ये बातें कई तरीके से कही जा चुकी हैं कि हर संबंध की असलियत बिस्तर पर खुलती है। संबंधों की यह यात्रा चाहे किसी भी रास्ते शुरू हो, उसकी परिणति एक है।
कह सकते हैं कि यह परिणति देह और प्रेम को एक सीध में ला खड़ा करती है और यह सिंपल फिनोमेना ग्लोबल है। लिहाजा अब प्रेम की न तो नसें बंद की जाएंगी और न ही किसी निरोध-अवरोध से इसके मचलते प्रवाह को बांधने की मजबूरी होगी। अब तो महिलाओं के पर्स में ही पुरुष की प्रेमी देह का सुरक्षा मंत्र भी होता है। अब तक पति या प्रेमी के दीर्घायु होने के लिए महिलाएं उपवास रखती थीं, अब उसके प्रेमाखेटन के लिए वह गोलियों का सेवन करती हैं, अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ की जोखिम भरी शर्त पर।
भूले न हों अगर आप तो याद करें मल्लिका सेहरावत की पहली हाहाकारी फिल्म 'ख्वाहिश'। कंडोम की डिब्बी दुकान से खरीदेने में लड़के की घिग्घी बंधती है और मल्लिका यही काम निस्संकोच तरीके से कर देती है, जिस पर सिनेमा हॉल के कुछ कोनों से तालियों भी उछलती है। नए दौर का वेलेंटाइन मार्का प्रेम अब इसी तरह की बेधड़की से परवान चढ़ेगा, जिसमें महिलाएं पुरुषों के सेफ खेलने के लिए इंतजाम अपने साथ रखेंगी और पुरुष लिंगवर्धक यंत्र और हाईपावर वियाग्रा डोज के सेवन से इस इंतजाम का भरपूर दोहन करेंगे। आखिर प्रेम के दैहिक भाष्य के दौर में संदेह की गुंजाइश है भी कहां? अगर किसी महिला के मन के कोने में संदेह है भी तो मान लीजिए कि न तो दफ्तर में बॉस उसे तरक्की देगा और न स्कूल-कॉलेज या पड़ोस का साथी उसे एकांत में मिलने के लिए प्रेमल मिस कॉल मारेगा।
अच्छा लगा पढ़कर। अंतिम लाईन (अगर किसी महिला के मन के कोने में संदेह है भी तो मान लीजिए कि न तो दफ्तर में बॉस उसे तरक्की देगा और न स्कूल-कॉलेज या पड़ोस का साथी उसे एकांत में मिलने के लिए प्रेमल मिस कॉल मारेगा।) का मतलब नहीं समझा। क्या आप कहीं यह इशारा तो नही कर रहे कि देह पर हो रहे पुरुषवादी दावे, बाजार के दावे खत्म हो जायेंगे। पुरूष और बाजार की महिला देह पर ललक खत्म हो जायेंगे? शायद आप यह नही कह रहे। इन दावों कै स्वरूप में अंतर आ रहा है जो आपके लेखन का भाव भी निकल रहा है। आशा है आगे भी इसी तरह के लेख पढ़ने को मिलते रहेंगे। पोलिमिकल और भाषा के साथ खेलना अच्छा लगा। यहां भी।
जवाब देंहटाएं...शुक्रिया सदन पहले तो प्रतिक्रिया के लिए...मैने वैसा बिलकुल नही कहा है जैसा आपने समझा है...मैने बाजार और पुरुष मन के सोच पर व्यंग्य मे एक बात कही है... सेक्स और सेंसेक्स के दौर में महिलाओं ने अपनी सफलता की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है...
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