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शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

विकल्पहीनता के विरोध का विमर्श

- प्रेम प्रकाश

विकल्पहीन नहीं है दुनिया - किशन पटनायक

नीदरलैंड्स इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरोसाइंस की सोशल न्यूरोलॉजिस्ट एमिली कैस्पर ने एक दिलचस्प शोध किया है। कैस्पर जानना चाहती थीं कि सत्ता के विरोध का निर्णय लोग निर्भीकता से करते हैं या ऐसा करते हुए वे किसी भय से दबे होते हैं। शोध के नतीजे से यह बात जाहिर हुई है कि अनजाने ही सत्ता के साथ सहमति की मनोवैज्ञानिक स्वाभाविकता हाल के दौर में बढ़ी है। अपने शोध अध्ययन की व्याख्या करते हुए कैस्पर कहती हैं कि बगैर उचित प्रशिक्षण और जागरुकता के लोग सत्ता के खिलाफ अपनी असहमति को खुले विरोध के मोर्चे तक ले जाने से भागते हैं। कैस्पर के अध्ययन और उसके नतीजे को अगर भारत के मौजूदा हालात से जोड़कर देखें तो विमर्श का एक नया आधार विकसित हो सकता है।

इस आधार को विकसित करने की पहल में पहला संदर्भ अगर मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के 325 के मुकाबले 126 वोटों के भारी अंतर से गिरने का लें तो इस परिणाम का प्रोजेक्शन सीधे 2019 के लोकसभा चुनाव पर करने के बजाय, इस पूरी स्थिति को इतिहास की रोशनी में धैर्य के साथ देखना होगा। भारतीय संसद के इतिहास में पहला अविश्वास प्रस्ताव पंडित जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में अगस्त 1963 में जेबी कृपलानी ने रखा था। तब इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 वोट पड़े थे और विरोध में 347 वोट पड़े थे। पर इस प्रस्ताव का महत्व महज इसलिए कम नहीं हो जाता कि वह गिर गया, बल्कि इसकी अहमियत इसलिए है क्योंकि इससे देश में कहीं न कहीं विपक्षी राजनीति की वह सैद्धांतिकी तय हुई, जिसे गैर-कांग्रेसवाद के रूप में हम जानते हैं। विपक्षी राजनीति की यह सैद्धांतिक धुरी आज भी कायम है। बस उसका नाम बदलकर गैर-भाजपावाद हो गया है। देश में राजनीतिक विरोध का यह सैद्धांतिक तकाजा विपक्ष और जनता दोनों के सामने है। लिहाजा इस तकाजे पर कौन अपनी भूमिका कैसे तय करता है, यह ज्यादा बड़ा सवाल है।

लोकतंत्र में विकल्पहीनता की बात एक खतरनाक स्थिति है। इसलिए आज जब नरेंद्र मोदी की विकल्पहीनता पर बहस के कई सिरे एक साथ खुले हैं तो उसमें हमें लोकतंत्र के कुछ बुनियादी सरोकारों की भी फिक्र करनी चाहिए। कैस्पर ने भी अपने अध्ययन में इस खतरे का जिक्र किया है। अंग्रेजी में इस खतरनाक स्थिति के लिए ‘टीना’ नाम से एक टर्म काफी लोकप्रिय है और इन दिनों काफी इस्तेमाल भी हो रहा है। ‘टीना’ यानी ‘देअर इज नो अल्टरनेटिव’। यहां यह साफ हो जाना चाहिए कि सत्ता और उसे हासिल करने का गणित ही लोकतंत्र में सब कुछ नहीं है। आज भी इस मुल्क की तारीख में अगर महात्मा गांधी से लेकर राममनोहर लोहिया, जेबी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण जैसे राजनेताओं के नामों के आगे उनके लोकतांत्रिक संघर्ष और राजनीतिक विवेक के कई-कई उल्लेख दर्ज हैं तो इसलिए क्योंकि उनके लिए लोकतंत्र में शक्ति का केंद्र सत्ता नहीं बल्कि लोकशक्ति है। 

कैस्पर ने अपने अध्ययन का संदर्भ बड़ा रखा है। लिहाजा उसके आधार पर अगर भारतीय राजनीतिक स्थिति का हम मूल्यांकन कर रहे हैं तो हमें तात्कालिकता से आगे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में विमर्श को ले जाना होगा। पहली बात तो यही कि यह शोध अध्ययन कहीं न कहीं इस बात को रेखांकित करता है कि दुनिया भर में सत्ता का ढांचा हाल के दशकों में मजबूत हुआ है। लिहाजा उसके खिलाफ विरोध की जमीन तैयार करना और उस जमीन पर टिक कर खड़ा होना एक बड़ी चुनौती बन गई है। अमेरिका से लेकर भारत तक जिस तरह सत्ता और राजनीति का सूर्य एक साथ दक्षिणायन हुआ है, उसने सत्ता पर अधिकार के लोकतांत्रिक संघर्ष को सीधे-सीधे राजनीतिक वर्चस्व में बदल दिया है। इस बदलाव ने लोकतंत्र के बुनियादी सत्य को भी पीछे धकेला और आगे आ गया है ‘पोस्ट ट्रूथ'। 

‘पोस्ट ट्रूथ’ यानी सत्य से ज्यादा प्रभावी प्रचार और शोरगुल। प्रचार का यह शोर बीते चार वर्षों में हर तरफ सुना जा सकता है। कैस्पर जिसे सत्ता की मजबूती के तौर पर देख रही हैं, वह सत्ता से ज्यादा उस सोच की मजबूती है कि जिसमें सरकारें विरोध और हस्तक्षेप के हर लोकतांत्रिक स्पेस को खत्म कर अपने शक्तिशाली होने के भान को पुष्ट करती हैं। किसी नेतृत्व को लेकर विकल्पहीनता का भान अगर सुनियोजित और प्रचारित है तो फिर इस पोस्ट ट्रूथ फिनोमेना को लोकतंत्र के बुनियादी सरोकारों को मिल रही चुनौती के रूप में देखना होगा। 

आखिर में एक बात यह कि 2019 का लोकसभा चुनाव निश्चित तौर पर अहम है, पर यह वर्ष देश के लिए अपने राष्ट्रपिता की 150वीं जयंती मनाने का भी होगा। संघर्ष और सद्भाव के बीच सत्य और अहिंसा जैसे उच्च मूल्यों को जीनेवाले देश में नेतृत्व और विकल्प की बात अगर महज व्यक्तिवादी चौंध में खो जाए तो यह विचार और मूल्य के स्तर पर बहुत बड़ी स्फीति होगी। 

(लेख 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में लिखा गया था। अब 2024 के चुनाव नतीजे भी सामने हैं। पर लोकतंत्र में विकल्प को लेकर चिंताएं अब भी उसी तरह कायम हैं।)

शनिवार, 14 अप्रैल 2018

बापू तो रहे याद भूल गए बा को!

- प्रेम प्रकाश


बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी

दो अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को लेकर सरकार और समाज दोनों उत्साहित हैं। खासतौर पर पीएम मोदी ने बापू की150वीं जयंती को राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के लक्ष्य के साथ जोड़कर इसे 2014 से ही चर्चा में ला दिया है। पर यह देश और सरकार दोनों भूल यह गई कि अगले वर्ष बापू के साथ बापू की भी 150वीं जयंती है। यही नहीं, कस्तूरबा (11 अप्रैल 1869 - 22 फरवरी 1942) चूंकि गांधी से 6 माह बड़ी थीं, इसलिए बा की जयंती दो अक्टूबर से पहले 11 अप्रैल को ही मनाई जाएगी।

कस्तूरबा और गांधी आधुनिक विश्व में दांपत्य की सबसे सफल मिसाल हैं। बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। तारीखी अनुभव के तौर पर भी देखें तो बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने न सिर्फ हर कदम पर अपने पति का साथ दिया, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का फैसला किया। यहां तक गांंधी के अहिंसक संघर्ष की राह में वे गांदी से पहले जेल भी गईं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी। उन्होंने नई तालीम को लेकर गांधी के प्रयोग को सबसे पहले अमल में लाई।

इसी तरह चरखा और स्वच्छता को लेकर गांधी के प्रयोग को मॉडल की शक्ल देने वाली कोई और नहीं, बल्कि कस्तूरबा ही थीं। इसको लेकर कई प्रसंगों की चर्चा खुद गांधी ने भी की है। कहना हो तो कह सकते हैं कि शिक्षा, अनुशासन और स्वास्थ्य से जुड़े गांधी के कई बुनियादी सबक के साथ स्वाधीनता संघर्ष तक कस्तूरबा का जीवन रचनात्मक दृढ़ता की बड़ी मिसाल है।

धन्यवाद के पात्र हैं गांधी की लीक पर चले रहे वे कुछ सर्वोदयी, जिन्होंने बा और बापू की प्रेरणा को साझी विरासत के तौर पर जिंदा रखा। इस मौके पर ‘बा-बापू 150’ के नाम से जहां गांधी के इन अनुयायियों ने देशव्यापी यात्रा काफी पहले शुरू कर दी है, वहीं इस अभियान के तहत कुछ और कार्यक्रम भी हो रहे हैं। पर जहां तक रही सरकार और समाज की मुख्यधारा की बात तो शायद उनकी स्मृति से बा की विदायी हो चुकी है। 

सोमवार, 14 नवंबर 2016

नोटबंदी के अलावा भी थे विकल्प



- प्रेम प्रकाश
अगर सरकार और समाज की व्यवस्था को लेकर सोच सुधारवादी नहीं रही तो हम समय के प्रवाह से कट जाएंगे। इसी तरह व्यवस्था के फैसले पर सवाल खड़े करने के अधिकार की जगह अगर जनता पर महज रजामंदी जाहिर करने का दबाव हो तो यह लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है। इस सैद्धांतिक टेक के साथ नोटबंदी के सरकार के हालिया फैसले पर गौर करें तो इसे फौरी तौर पर सराहने वाले भी अब कहने लगे हैं कि सरकार ने यह फैसला जल्दबाजी में लिया है। बेहतर होता कि सरकार फैसले के इस विकल्प तक पहुंचने से पहले पर्याप्त सोच-विचार करती। आलम यह है कि फैसले के चार दिन बाद भी स्थिति लगातार असामान्य बने हुए हैं। बैंकों और एटम मशीनों के आगे घंटों कतार में खड़ी जनता का सब्र आक्रोेश मंे बदले लगा है। यह आक्रोश अगर विस्फोटक शक्ल अख्तियार करता है तो कानून व्यवस्था की स्थिति को संभालना आसान नहीं रह जाएगा। सड़कों से लेकर मंडियों तक लूटपाट जैसी घटनाएं तो फैसले के दूसरे-तीसरे दिन से ही सामने आने लगी हैं। 
ऐसे में यह सवाल तो सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर नोटबंदी के बड़े एलान से पहले उसने ऐसी पक्की व्यवस्था क्यों नहीं कि जिससे आमजनों को हो रही परेशानी से बचाया जा सके। यह भी कि क्या यह कालाधन से निपटने का एकमात्र मुफीद तरीका रह गया था? क्योंकि कई विशेषज्ञ भी इस बात को कह रहे हैं कि सरकार के पास तमाम ऐसी जानकारियां हैं, जिससे वे अवैध धन इकट्ठा करने वालों के गिरेबान सीधे पकड़ सकती है। रहा बड़े नोटों का सवाल तो इस पर रोक की मांग पुरानी है। दिलचस्प है कि अपने नए फैसले में भी सरकार इन्हें बंद करने के बजाय सिर्फ बदल रही है। यही नहीं, पांच सौ और हजार के बाद वह दो हजार का नया नोट प्रचलन में ला रही है। इस तरह यह कार्रवाई बड़े नोटों को चलन से बाहर करने का तो कतई नहीं है। हां, सरकार के फैसले से कालाधन के नाम पर फर्जी नोटों पर कार्रवाई की दलील तो समझ में आती है पर इससे अवैध धन जमा करने के रास्तों और जुगाड़ों पर नकेल कसेगी, यह समझ से परे है। जहां तक सवाल है पुराने बड़े नोटों को अमान्य करने का तो इस काम को भी एकबारगी या क्रमिक तौर पर छपाई बंद करने का विकल्प ज्यादा बेहतर होता। इससे धीरे-धीरे बड़े नोट खुद ब खुद प्रचलन से बाहर हो जाते। पर सरकार ने ऐसा न कर एक ऐसा फैसला किया जिसमें घुन और गेंहू साथ-साथ पिस रहे हैं। ये तमाम सवाल मौजूदा हालात में इसलिए जरूरी हैं क्योंकि सरकार की तरफ से अब भी कोई ऐसा आश्वासन नहीं कि वह आमजनों की परेशानी के साथ बिगड़े हालात पर जल्द काबू पा लेगी। 
आठ दिसंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विमुद्रीकरण की घोषणा की तो अगले दो दिनों में एटीएम के साथ बैंकों के सामान्य कामकाज का एक तरह से भरोसा देश को दिलाया था। पर चार दिन बाद आलम यह है कि सरकार की तरफ से यह सफाई आने लगी कि कि दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिए खुले पैसे की समस्या से जूझ रहे आम आदमी की तकलीफें दूर होने में उम्मीद से अधिक समय लग सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जारी किए गए 5०० और 2,००० रुपये के नए नोटों के लिए देशभर के दो लाख एटीएम मशीनों को रीसेट करना होगा। वित्तमंत्री अरुण जेटली से जब पूछा गया कि अब जब वे एटीएम मशीनों के सामान्य तौर पर काम करने को लेकर दो से तीन हफ्ते का वक्त लगने की बात कह रहे हैं तो सरकार सरकार ने पहले से एटीएम मशीनों में ये बदलाव क्यों नहीं किए। इस पर जेटली की दलील है कि इससे सरकार का चकित करने वाले कदम की गोपनीयता खत्म हो जाती। पर इस गोपनीयता को बनाए रखने के लिए आम लोगों के सब्र की परीक्षा लेने का विकल्प ही क्यों सरकार को पसंद आया, इसका सीधा जवाब सरकार की तरफ से कोई नहीं दे रहा। 
इस प्रक्रिया की जटिलता और इसमें लगने वाले समय का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि किसी एटीएम मशीन को रीकन्फीगर करने के लिए एक तकनीशियन को खुद एटीएम मशीन जाना होगा। इस तरह किसी एक मशीन को रीकन्फीगर करने में अमूमन चार घंटे का समय लग सकता है। इसका मतलब है कि देश भर की दो लाख एटीएम मशीनों को रिकन्फीगर करने में आठ लाख घंटे लगेंगे। इस काम के लिए बड़ी संख्या में तकनीशियनों को इकट्ठा करना भी चुनौती ही है। लिहाजा, यह सवाल तार्किक तौर पर और मजबूत होता है कि कथित कालेधन से निपटने के लिए सरकार ने एक ऐसा रास्ता क्यों चुना जिससे समाज का हर तबका इस कदर परेशानहाल है कि उसे पता भी नहीं कि वे इससे कब तक और कैसे बाहर निकलेंगे। 
तथ्यात्मक तौर पर देखें तो देश में कुल 17 लाख करोड़ की करेंसी में 8.2 लाख करोड़ (5०० के नोट) और 6.7 लाख करोड़ (1००० के नोट) पूरी करेंसी का 86 फीसदी हैं, जो अब प्रचलन से बाहर हो गए हैं। इससे पैदा होने वाले संकट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में नगदी नोटों से आम जनता की अर्थव्यवस्था चलती है, जबकि बड़े लोग बैंकिग प्रणाली से कारोबार करते हैं। सरकार चाहती तो ऐसे में 2.7 लाख करोड़ के रोजाना बैंकिग ट्रांजेक्शन और सालाना 8०० लाख करोड़ के बैंकिग कारोबार में बड़े लेनदेन को सीधे अपने स्कैन पर ले सकती थी और जांच के बाद संबंधित लोगों-कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती थी। 
सीबीआई डायरेक्टर एपी सिह ने फरवरी 2०12 में यह बताया था कि कालाधन के नाम पर लगभग 3० लाख करोड़ रुपए विदेशों में जमा हैं। 2०14 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने इस धन को देश में लाने की बात कही थी। पर अब इस वादे को पूरा करने के बजाय सरकार देश की मुद्रा व्यवस्था को बदलने की एक ऐसी कार्रवाई कर रही है जो जनता को बैठे-बिठाए मुसीबत में डालने वाली है। जबकि सरकार के सामने दूसरे विकल्प भी थे। हाल के पनामा लीक्स में देश के 5०० रसूखदार तथा एचएसबीसी में 1,195 लोगों के पास कालाधन होने का पता चला था। इसी तरह कुछ बड़े उद्योगपतियों द्बारा बैलेंसशीट में गड़बड़ी करके सरकारी बैंकों से 15 लाख करोड़ रुपए से अधिक का लोन लिया गया जिसमें अधिकांश एनपीए में तब्दील हो गया है। और तौ और रिजर्व बैंक का खुद का आंकड़ा है कि पिछले 44 वर्षों में एक्सपोर्ट और ओवर इनवाइसिग के माध्यम से बड़ा घोटाला हुआ है जो कुल जीडीपी का एक चौथाई हो सकता है। सरकार चाहती तो ऐसे बड़े समूहों और उद्योगपतियों के फारेंसिक तथा सीएजी ऑडिट कराने का फैसला कर सकती थी। इससे देश में एक नए कारोबारी वित्तीय अनुशासन को अमल में लाने का श्रेय भी सरकार को मिलता। पर उसने ऐसा नहीं करके बेकसूर आम जनता के लिए परेशानी बढ़ाने वाला फैसला लिया। 
साफ है के कालाधन के खिलाफ सार्थक और अचूक कार्रवाई के बजाय सरकार एक ऐसे कदम को तरजीह दे रही है जिसका फायदा वह राजनीतिक लोकप्रियता के लिए कर सके। पर कालेधन को लेकर प्रचारित इस निर्भीकता का एक नतीजा यह भी है कि ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी के 3,13,312 फॉलोअर्स ने उनका साथ छोड़ दिया है। बेहतर होगा कि सरकार अपने खिलाफ जा रही इन प्रतिक्रियाओं को खारिज करने के बजाय इन्हें गंभीरता से ले। 

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

प्रलेस की मजबूरी का विलासपुर प्रसंग

-प्रेम प्रकाश
असहिष्णुता मुद्दे पर अपनी खोई साख और हारी बिसात दोनों को भूलकर वाम खेमे के लेखक फिर से एक बार वैचारिक तौर पर हमलावर होने की कोशिश कर रहे हैं। वाम आस्था से जुड़े बुद्धिजीवी यह कोशिश तब कर रहे हैं जब भारत में विचार का सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन होने को है। विचार और रचना को एक खास रंग में देखने के आदी हठवादियों को आज वह सूरत नागवार गुजर रही है जब यह रंग बदल रहा है। यहां सवाल महज लाल या केसरिया का नहीं बल्कि उस दृष्टि का है जो दूसरों के चश्मों को तो बेरंग देखना चाहते हैं पर अपने कानों पर रंगीन चश्मे की कमानी चढ़ाए घूमना चाहते हैं। हाल में विलासपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का 16वां राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ। सम्मेलन में पहले दिन से इस बात की तल्खी हावी रही कि सरकार अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरे बैठा रही है, वह रचनाकारों द्वारा इस आजादी का इस्तेमाल अपने हित रक्षण के शर्त पर चाहती है।
दिलचस्प यह रहा कि सम्मेलन का एजेंडा तय करने वालों को भी इस बात का कहीं न कहीं अहसास था कि जो बातें वे पिछले दो सालों से हर संभव मंच से और अवसर पर चीख-चीख कर कर रहे हैं, देश और मीडिया उन्हें खास तवज्जो नहीं दे रहा। खासतौर पर असहिष्णुता के मुद्दे पर धरना-जुलूस और पुरस्कार वापसी के बाद तो आलम यह है कि कलम के नाम पर प्रगतिशीलता की राजनीति करने वालों को यह सूझ भी नहीं रहा कि अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए क्या किया जाए। सो इस बार प्रलेस ने अपने जलसे के लिए वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ और सिद्धराज वरदराजन को अपना एक तरह से पोस्टर ब्वॉय बनाया।
सम्मेलन में साईनाथ ने लेखनी की आजादी का नारा बुलंद करते हुए मौजूदा सरकार की नीति और मंशा पर कई तार्किक सवाल खड़े किए। पर तारीफ यह रही कि अभिव्यक्ति के खिलाफ कैंची उठाने की जिस सरकारी प्रवृत्ति का उन्होंने जिक्र किया, वह उन्हें पिछले ढाई साल में नहीं बल्कि पिछले डेढ़ दशक में दिखाई पड़े। यानी यूपीए दे दोनों दौर का शासन इसमें शामिल है, जिसमें कुछ समय तक तो वाम दलों का भी सरकार को समर्थन था। अधिवेशन में रोहित वेमुला से लेकर दाभोलकर तक को याद किया गया और कहा गया कि सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षता आज एक कट्टरवादी आग्रह के पांवों तले कुचली जा रही है।
बालासोर के जिस चित्र पर पूरा देश शर्मसार हुआ, साईनाथ ने उसे देश का आपवादिक नहीं बल्कि आम चित्र बताया। इसी तर्ज पर वरदराजन ने सरकार की नीतिगत असफलता की कई मिसालें पेश की। पर दिलचस्प तो यह रहा कि अखबार के पन्नों पर समाचार को रेडकिल विचार की तश्तरी में पेश करने में माहिर इन दिग्गजों ने सरकार के लिए जो विकल्प सुझाए, वे नीति और विकास के वे मॉडल हैं, जिन्हें आज हम अमेरिकन, जापानी या कोरियन मॉडल के नाम से जानते हैं। अब कोई पूछे इन प्रगतिशील साहित्याकारों से कि क्या उनके लिए रूस और चीन के बाद इन पूंजीवादी देशों के इकोनामिक मॉडल आदर्श हो गए हैं। और हां तो फिर देश में अमेरिकी मदद से परमाणु बिजली संयंत्र से लेकर एफडीआई के विरोध की आज तक खिंची आ रही लाइन का क्या हुआ?
एक सवाल यह भी कि प्रलेस की स्थापना के बाद क्या पांच से छह दशक तक जिन प्रगतिशील लेखकों-आलोचकों को हिंदी की मुख्यधारा होने का यश हासिल रहा, आज वह अपने वैचारिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पर क्यों मजबूर हैं। इस मजबूरी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि जब वे सरकार और उसकी नीतियों पर तीखा हमला करने को तत्पर हैं तो उनके पास एक भी ऐसा साहित्यकार नहीं, जिन्हें आगे कर के वे अपनी बात कह सकें। प्रलेस का लंबे समय तक पयार्यय बने रहे और अपने जीवन के नब्बे वसंत के उत्सवी मोड़ पर खड़े आलोचक नामवर सिंह से भी उन्हें कोई प्रत्यक्ष मदद नहीं मिल सकी। दरअसल, साईनाथ और वरदराजन की विलासपुर में मौजूदगी प्रलेस की उस रचनात्मक दिवालियापन को ढकने की मजबूरी रही, जिस पर पिछले लंबे समय से सवाल अंदर-बाहर से उठते रहे हैं। मैग्सेसे और दूसरे बड़े सम्मान से नवाजे जा चुके नामवर पत्रकारों को भी इस बात की कोई जरूरत महसूस नहीं हुई कि वे साहित्यकारों के इस मंच से यह कहें कि रचना और आलोचना की संस्कृति को आम रास्तों ोक आम रास्ते से गुजरना चाहिए कि वाम।
यह बात अलग से कहने की जरूरत नहीं कि वाम जमात ने इतिहास से लेकर साहित्य तक जिस तरह अपने वर्चस्व को भारत में लंबे समय तक बनाए रखा, वह दौर अब हांफने लगा है। खासतौर पर हिदी आलोचना में नया समय उस गुंजाइश को लेकर आया है, जब मार्क्सवादी दृष्टि पर सवाल उठाते हुए साहित्येहास पर नए सिरे से विचार हो। असहिष्णुता पर बहस और विरोध के दौरान यह खुलकर सामने आया था कि सत्तापीठ से उपकृत होने वाले कैसे अब तक अभिव्यक्ति और चेतना के जनवादी तकाजों को सिर पर लेकर घूम रहे थे। नक्सलवाद तक को कविता का तेवर और प्रासंगिक मिजाज ठहराने वालों ने देश के मन-मिजाज और दरकार से जुड़े मुखर रचनाकर्म को भी कैसे दरकिनार किया, उसकी तारीखी मिसाल है जयप्रकाश आंदोलन। आपातकाल और चौहत्तर आंदोलन को लेकर वाम शिविर शुरू से शंकालु और दुविधाग्रस्त रहा। यहां तक कि लोकतंत्र की हिफाजत में सड़कों पर उतरने के जोखिम के बजाय उनकी तरफ से आपातकाल के समर्थन तक का पाप हुआ।
अब जबकि वाम शिविर की प्रगतिशीलता अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद- ब-खुद अंतिम ढलान पर है तो हमें एक खुली और धुली दृष्टि से इतिहास के उन पन्नों पर नजर दौड़ानी चाहिए, जिस पर अब तक वाम पूर्वाग्रह की धूल जमती रही है। कागज पर मूर्तन और अमूर्तन के खेल को अभिजात्य सौंदर्यबोध और नव परिष्कृत चेतना का फलसफा गढ़ने वाले वाम आलोचक अगर समय और समाज के आगे खड़ी रचनात्मक चुनौतियों को बगैर किसी दलीय या वैचारिक पूर्वाग्रह के स्वीकार करने से आज भीबच रहे हैं तो इसे हिंदी भाषा और साहित्य के लिए एक दुर्भाग्यपूणã स्थिति ही कहेंगे। इसमें कहीं कोई दो मत नहीं पिछले कुछ सालों में अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का एक बड़ा सवाल देश के बौद्धिकों और चिंतनशीलों को परेशान कर रहा है, पर क्या प्रतिक्रियावादी आग्रह उस वैचारिक अराजकता की देन नहीं है जिसमें खुद प्रगतिशीलों ने भिन्न स्वरों को सुनने से पहले खुद इनकार किया, विधर्मी रचनाधर्मिता को कोई आलोचकीय महत्व नहीं दिया।
यही नहीं, किसी खास राजनीतिक जमात का रचनात्मक या वैचारिक फ्रंट बनकर काम करना किसी लेखक संगठन को समय प्रवाह में कहां से कहां लाकर पटक देता है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल अगर आज प्रलेस है तो इसका झंडा आज भी उठाए घूम रहे लेखकों को यह सवाल अपने बीच उठाना चाहिए कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता सर्व समावेशी दरकार पर क्यों खरी नहीं उतरती।

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

दरियादिली अब नहीं


-प्रेम प्रकाश
उरी में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य जोर आजमाइश की जो आशंका थी, वह अब काफी हद तक दूर हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भाषण से भी यह साफ हुआ कि भारत, पाकिस्तान के साथ फिलहाल किसी सीधे टकराव की स्थिति में खुद को नहीं ले जाएगा। दरअसल, ये सारी स्थितियां एक बार फिर इस बात को साफ कर रही हैं कि कम से कम नब्बे के दशक से शुरू हुए वैश्विक उदारीकरण के दौर के बाद से ग्लोब के किसी छोड़ पर बैठा देश किसी दूसरे देश के खिलाफ ऐलानिया जंग की बात नहीं कर सकता। लिहाजा आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शह और मात की सबसे बड़ी बिसात कूटनीति है।
आधुनिक दौर के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ माने गए जर्मनी के प्रधानमंत्री बिस्मार्क ने कभी कहा था कि कूटनीति पांच-छह गेंदों को एक साथ हवा में उछालने और फिर उसे लपकने जैसा सर्कसी करतब है। इसमें सब्र और संतुलन दोनों का इम्तहान एक साथ होता है। भारत अब खासतौर पर सिंधु जल समझौते को कूटनीतिक मेज पर लाकर पाकिस्तान के साथ इसी सब्र और संतुलन के साथ दबाव बढ़ाने में लगा है। यह एक ऐसा वैकल्पिक और सुरक्षित कदम है जो पाकिस्तान पर सख्ती तो बढ़ाएगा ही, भारत को इस कारण अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात से घिरने से भी बचाएगा कि वह अपने पड़ोसी मुल्क के खिलाफ किसी तरह के हिंसक या सैन्य अभियान को अंजाम दे रहा है।
अच्छी बात यह है कि अभी इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक भर हुई है। पर पाकिस्तान में इसकी प्रतिक्रिया है कि आने वाले दिनों में उस पर आफत का कोई बड़ा पहाड़ टूटने वाला है। इस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर पाकिस्तान के माथे पर सिलवटें बढ़ा दी हैं कि खून और पानी साथ नहीं बह सकते। जबकि बैठक में जल संधि में बदलाव की किसी दरकार पर कोई विचार नहीं किया गया है। इसमें हुआ बस यह है कि अब भारत इस समझौते के प्रावधानों का इस सख्ती से पालन करना चाहता है ताकि पाकिस्तान को ऐसा कोई अतिरिक्त लाभ न मिले, जो उसे अब तक मिलता रहा है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है सिंधु जल क्षेत्र में बिजली परियोजनाओं को विकसित करने पर जोर। इसके तहत जो पहला कदम उठाने को भारत उत्सुक है, वह है तुलबुल बिजली परियोजना को फिर से शुरू करना।
बात करें सिंधु जल समझौते की तो पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका भारतीय सीमा से छोड़े गए नदियों के पानी पर आश्रित है। विश्व बैंक की मध्यस्थता के बाद 19 सितंबर 196० में भारत और पाकिस्तान के बीच यह समझौता हुआ था। तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने इस पर दस्तखत किए थे। संधि के मुताबिक भारत पाकिस्तान को सिधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी नदी का पानी देगा। मौजूदा समय में इन नदियों का 8० फीसदी से ज्यादा पानी पाकिस्तान को ही मिलता है। यह समझौता पिछले 56 साल से बगैर किसी रुकावट के जारी है। जबकि इस दौरान भारत-पाकिस्तान के रिश्ते कई बार पटरी से उतरे। यहां तक कि दोनों देश इस दौरान जंग के मैदान में भी आमने-सामने हुए। पर अब भारत इस संधि को पाकिस्तान पर कारगर सख्ती के एक बेहतर कूटनीतिक विकल्प के तौर पर आजमाना चाहता है। इसे मौजूदा हालात में जम्मू कश्मीर में पाक के बढ़े आतंकी शह को काउंटर करने और भारतीय हित रक्षाके लिहाज से सबसे बेहतर विकल्प भी माना जा रहा है।
दिलचस्प है कि घाटी में अभी जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसमें भी सरकार के लिए सिंधु जल समझौते को लेकर पाकिस्तान के साथ अब तक बरती जा रही उदारता से कदम पीछ खींचने में मदद मिलेगी। क्योंकि 2००2 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस संधि को खत्म करने की मांग उठ चुकी है। साफ है कि जम्मू कश्मीर की अवाम को भी अब तक यही लगता रहा है कि भारत सरकार उसके स्थानीय हितों की उपेक्षा करके पाकिस्तान को मदद करती रही है।
भारत की इस नई पहल के बाद पाकिस्तान एकदम से सक्रिय हो गया है और वह तमाम देशों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात को उठाने में लग गया है कि भारत को ऐसे किसी कदम को उठाने से रोका जाए जिससे पाकिस्तान में जल संकट जैसी स्थिति आए। विदेशी मामलों में पाक प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने 56 देशों को बकायदा पत्र लिखकर कश्मीर मामले पर दखल देने को कहा है। पाकिस्तान के सामने दोहरा संकट यह है कि एक तरफ तो वह जल संकट की आशंका से उबरना चाहता है, वहीं भारत की नई कूटनीतिक पहल के बाद उसके लिए इस बात को प्रचारित करना जरूरी हो गया है कि भारत जम्मू कश्मीर के बिगड़े हालात के लिए उसे नाहक कसूरवार ठहराने में लगा है।
यहां यह समझ लेना खासा जरूरी है कि सिधु जल समझौते को आधुनिक विश्व इतिहास का सबसे उदार जल बंटवारा माना गया है। इसके तहत पाकिस्तान को 8०.52 फीसदी पानी यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी भारत सालाना देता है। नदी की ऊपरी धारा के बंटवारे में उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया की किसी और संधि में नहीं मिलेगी। सिधु समझौते के तहत उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा तय की गई है, जिसके तहत सिधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट के तौर पर दे दी गई हैं और भारत की संप्रभुता दक्षिण की ओर तीनों नदियों के बचे हुए हिस्से में ही सीमित रह गई है।
जाहिर है भारत अब इस उदारता को आगे इसलिए नहीं निभाना चाहता क्योंकि इसके बदले उसे पाकिस्तान की तरफ से आतंकी और जेहादी मंसूबों का हिंसक अंजाम भुगतना पड़ता रहा है। आज जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक तौर पर बहाल सरकार काम कर रही है। यही नहीं, कम से कम पिछले एक दशक में वहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक लोगों ने जिस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है, उससे वहां अमन चैन की एक स्वाभाविक स्थिति कायम होने में मदद मिलनी चाहिए थी। पर कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विवाद का मुद्दा बनाने की पाकिस्तानी जिद ने आज घाटी की स्थिति को लेकर भारत सरकार को नए सिरे से सोचने करने पर मजबूरकर दिया है। अच्छी बात यह है कि नदियों के जल का इस्तेमाल स्थानीय स्तर पर खेती से लेकर बिजली निर्माण तक करने पर सरकार अब अगर जोर दे रही है तो इससे घाटी में तो विकास का एक नया दौर शुरू होगा ही पाकिस्तानी आतंकी हिमाकत पर भी नकेल कसने में मदद मिलेगी।

गुरुवार, 29 मई 2014

रोनाल्ड रीगन की तरह उभरे हैं मोदी


महज तुलना के भरोसे कभी भी गंभीर विमर्श आगे नहीं बढ़ाता। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि तुलना का कोई महत्व ही नहीं है। तुलनात्मक विवेक का होना तार्किकता के लिए तो जरूरी है ही, इससे अच्छे-बुरे की एक सामान्य समझ को विशिष्ट बनाने में भी मदद मिलती है। तुलना को लेकर यह भी काफी महत्व की बात है कि यह हमारी स्वाभाविक वृति का हिस्सा है। अपनी कोई भी राय बनाने या किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए हम अकसर जिस साधन की मदद लेते हैं, वह तुलना ही है। एक की दूसरे से, पहले की बाद से तुलना करके ही हम अपनी किसी समझ को गढ़ते हैं।
देश में आजकल ऐसी ही समझ को गढ़ने का एक नया सिलसिला शुरू हो गया है। इस सिलसिले के केंद्र में हैं भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। कोई उनकी तुलना उनकी पृष्ठभूमि और जीवन को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से कर रहा है तो कोई उन्हें गुजरात की माटी से निकला देश का एक और महापुरुष बता रहा है। गुजरात की ऐतिहासिकता को खंगालने वाले महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मोरारजी देसाई की पांत में नरेंद्र मोदी को बिठा रहे हैं।
मोदी की छवि और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए लोग उनकी तुलना दूसरे देशों के नेताओं से भी कर रहे हैं और यह काम भारत में ही नहीं पड़ोसी पाकिस्तान से लेकर ब्रिटेन और अमेरिका तक हो रहा है। कोई मोदी को चीनी राष्ट्रपति शी जिन पींग के समकक्ष रखकर देख रहा तो कोई रूसी राष्ट्रपति पुतिन और मोदी में विलक्षण समानताएं देख रहा है। 6० वर्षीय जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे से भी मोदी की तुलना करने वाले बहुतेरे हैं।
बात जिन पींग की करें या फिर पुतिन की या कि शिंजो आबे की, लोग इन विश्व नेताओं की तुलना नरेंद्र मोदी से करने में इसलिए दिलचस्पी दिखा रहे हैं कि इन सभी नेताओं ने अपने देश की एक मुश्किल वक्त में कमान संभाली है। यही नहीं, इन तीनों नेताओं को यह भी श्रेय जाता है कि वे अपने देश को लोगों में राष्ट्र स्वाभिमान की भावना का संचार कर लगन, ऊर्जा और जोश को नए सिरे से बहाल कर पाने में सफल रहे।
इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी की सबसे दिलचस्प तुलना की गई है पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से। इस तुलना में अतीत और वर्तमान के बीच जहां संवाद के पुल का निर्माण होता है, वहीं यह भी दिखता है कि किस तरह एक नया उन्नयन, एक नया उभार पूरी दुनिया की निगाहों को अपनी तरफ मोड़ने में सफल होता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय विचार और संवाद जगत में उनको लेकर बातें हो रही हैं बल्कि अब भारत को लेकर भी नए तरह के आकलन और मूल्यांकन सामने आ रहे हैं।
बहरहाल, बात मोदी और रीगन की। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन से जुड़े रहे डेविड कोहेन ने लेख में नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से की है। उन्होंने दोनों नेताओं में कई समानताएं गिनाई हैं। उनका मानना है कि भारत को अपनी वृहद आर्थिक संभावनाओं को साकार करने में मोदीनॉमिक्स मददगार होगा। उनकी बात से भारतीय पाठक दंग हैं कि पश्चिम से एक आवाज आई है जो मोदी के प्रति नकारात्मक नहीं है।
कोहेन रीगन के प्रशंसक हैं और भारत के भी। भारतीय समाज के बारे में उनकी आलोचना को एक अमेरिकी द्बारा भारत के कमतर दिखाने के बजाय उसे एक भारत समर्थक अमेरिकी की राय मानना चाहिए। जो अमेरिकी और भारतीय समाज की कई बुराइयों और अच्छाइयों में समानता देखता है। उन्हें अमेरिका के चालीसवें राष्ट्रपति रीगन और नरेंद्र मोदी में कई समानताएं नजर आती हैं। मसलन, दोनों ही सामान्य परिवेश से आए हैं। दोनों लोकप्रिय और राज्य के मुख्यमंत्री (रीगन कैलिफोर्निया के गवर्नर रहे हैं) रहे। दोनों ही नेता खुली अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं। दोनों के राजनीतिक विरोधी भी एक जैसे हैं। अमेरिका की ही तरह भारत में भी सांस्कृतिक कुलीनों का एक वर्ग है जो हर बात की तस्दीक के लिए यूरोप के अपने पुराने शासकों की ओर देखता है। यह वर्ग रीगन की ही तरह मोदी का भी तिरस्कार करता रहा है। यह वर्ग इस खयाल से भी घबरा जाता है कि उसके देश का नेतृत्व एक चाय वाले के हाथ में आ सकता है।
अमेरिकी संभ्रांत वर्ग को लगता था कि रीगन एक गंवार और सीधे सादे व्यक्ति हैं जो अतिरेक से भरे हैं। उन्होंने चुनाव के समय चेताया भी था कि अगर रीगन राष्ट्रपति बन गए तो देश मुसीबतों में फंस जाएगा। चुनाव के बाद क्या हुआ यह अब तारीखहै। अमेरिका के इस वर्ग ने रीगन पर जातिवादी (रेसिस्ट) होने का भी आरोप लगाया। अमेरिका में इस वर्ग के पास जब तर्क और तथ्य नहीं होते तो वे गालीगलौज पर उतर आते हैं।
मोदी को भी उनके विरोधी सांप्रदायिक कहते हैं। इस तरह का आरोप लगाने के पीछे विरोधियों की नीति अल्पसंख्यकों को डराकर उनका समर्थन हासिल करने की रही है। डेविड कोहेन लिखते हैं कि उन्हें भारत की मुख्यधारा की मीडिया में हो रही चर्चा थोड़ी भ्रामक लगती है। इसके मुताबिक यदि आप धर्म के आधार पर लोगों के साथ अलग सलूक का समर्थन करें तो आप धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील समझे जाते हैं। यदि आप सभी नागरिकों को समान रूप से देखते हैं तो आप धार्मिक उग्रवादी हैं। उनके मुताबिक दूसरे धर्मों के अनुयायिओं विकास का अवसर देना हिदू धर्म की सहिष्णुता का परिचायक है। भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मोदी को धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णु बताने वाले पड़ोसी देशों के मानक नहीं अपनाते।
कोहेन ने मोदी के पाकिस्तान के प्रति कठोर रवैए की तुलना रीगन के सोवियत संघ के प्रति रवैए से की है। उनका कहना है कि मोदीनॉमिक्स भारत की अंतर्निहित आर्थिक शक्ति के दोहन के लिए अच्छा है, जिसे क्रोनी सोशलिज्म ने अवरूद्ध कर रखा है। यदि भारत की बहुआयामी उद्यमिता को अवसर मिले वह आकाश की ऊंचाइयों को छू सकता है।
अमेरिका में नरेंद्र मोदी उसी वर्ग में अवांछित रहे हैं, जिस वर्ग में रीगन थे। उनके मुताबिक अमेरिका की नौकरशाही पर वामपंथी रुझान के आभिजात्य वर्ग का कब्जा रहा है। उसी ने मोदी के अमेरिकी वीजा मिलने में अड़ंगेबाजी की। अमेरिका ऐसे नेताओं को वीजा देते रहते हैं जिन्होंने अपने देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को गैरकानूनी घोषित कर रखा और दूसरे धर्मों के प्रति घृणा फैलाना जिनकी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है।
आखिर में डेविड कोहेन लिखते हैं कि भारत को शायद अपना रीगन मिल गया है। अमेरिका को अपना मोदी कब मिलेगा?
 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

चुनाव महज मोदी और राहुल के बीच नहीं


नरेंद्र मोदी अगर 2०14 में देश के प्रधानमंत्री होते हैं तो यह अनिष्टकारी होगा। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के बाद हाल में मनमोहन सिंह इस बात को अलग-अलग तरीके से कह चुके हैं। इस सिलसिले में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता और रणनीतिकार योगेंद्र यादव के बयान का भी जिक्र जरूरी है। उनके कहने का तरीका थोड़ा भिन्न है। वे लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल के तौर पर देखने पर ही लानत भरते हैं। उनका बयान अमत्र्य और मनमोहन के बयान के करीब से जरूर गुजरता है पर उसकी मंजिल कहीं और है। वे सिर्फ व्यक्ति केंद्रित राजनीति पर सवाल नहीं उठाते बल्कि साथ ही इस दरकार को भी तार्किक रूप से रेखांकित करते हैं कि लोकतंत्र में चुनाव का मतलब सीएम या पीएम चुनना भर नहीं है और न ही इस या उस पार्टी की हार भर है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो चुनाव उस महापर्व का नाम है, जिसमें देश और समाज का हर वर्ग बराबरी के साथ शिरकत करता है। यह शिरकत सरकार बनाने या गिराने से ज्यादा उस गुंजाइश को बहाल रखने के लिए अहम है, जिसमें एक समान्य जन भी अपने हाथ में सत्ता की चाबी संभाल सकता है। यही लोकतंत्र की महानता है, उसकी ताकत है।
बहरहाल, बात इस चर्चा के जरिए उस लोकतांत्रिक मानस की जिसमें बदलाव की बात आज हर तरफ हो रही है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की बनी सरकार ने इस बदलाव की संभावना को कहीं न हीं ज्यादा पुष्ट कर दिया है। देश में पिछले कम से कम तीन सालों के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के केंद्र में जनता की ताकत और उसका निर्णायक सहभाग कैसे सुनिश्चित हो, यह एक बड़ा मुद्दा बना है। बात विकास की हो, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य की हो तो स्थानीय जनता की जरूरत की सर्वोपरिता समझी जा सकती है। नागरिक समाज को खड़ा करने से निश्चित रूप से एक अनुशासित लोकतंत्र को खड़ा होने में मदद मिलेगी।
देश में अब तक आम आदमी पांच साल में एक बार मतदान की कतार में खड़ा होकर अपने लोकतांत्रिक अधिकार और कर्तव्य को पूरा करता रहा है। इससे आगे उसके करने और समझने की कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इस कारण सत्ता से जनता की दूरी बढ़ी है और सत्ता को लेकर एक अविश्वास का जनमानस भी बना है। ऐसी स्थिति लोकतंत्र की मौलिक अवधारणा के भी खिलाफ है। पिछले दिनों जन प्रतिनिधियों से लेकर संसद की सर्वोच्चता पर जब बहस छिड़ी तो मौजूदा राजनीति के माहिरों को यह काफी अखड़ा भी। भारत में जिस तरह का लोकतंत्र है और हमारा संविधान जिसकी व्याख्या करता है उसमें संसद निस्संदेह सर्वोच्च नियामक संस्था है। पर इससे यह आशय कैसे निकल सकता है कि संसद की यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है। और अगर जनता सर्वोच्च है तो फिर उसे अपनी यह सर्वोच्चता साबित करने का मौका पांच साल में महज एक बार क्यों मिले। लिहाजा, आज अगर इस सवाल को लोग लोकसभा चुनाव से पहले उठा रहे हैं कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, तो इसमें नामों को लेकर आग्रह-दुराग्रह तो दिख रहा है, पर यह सवाल कहीं पीछे छूट जा रहा है कि नामों और दलों की शिनाख्त के आधार पर देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए हो रही कोशिशों के सिलसिले को एक कारगर अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है।
जेपी चौहत्तर आंदोलन के दिनों में बार-बार कहते रहे कि हमें 'कैप्चर ऑफ पॉवर’ नहीं बल्कि 'कंट्रोल ऑफ पॉवर’ चाहिए। घटनाक्रमों में तेजी से आए बदलाव के कारण जेपी का लोक समिति और लोक उम्मीदवार का प्रयोग बहुत कारगर नहीं हो सका। संपूर्ण क्रांति के शीर्ष व्याख्याकार आचार्य राममूर्ति ने भी माना कि चौहत्तर के लोकनायक के प्रयोग को महज सत्ता परविर्तन के तौर पर देखना, उन तमाम मुद्दों और संभावनाओं के प्रति अन्याय है, जिसने जनता को तब काफी मथा था। केंद्र में जनता सरकार का आना महज इसका प्रतिफल कतई नहीं था।
आज जब बात हो रही है 2०14 के लोकसभा चुनाव की तो इसमें पिछले कुछ सालों में नागरिक समाज की उस पहल का तो अक्श दिखना ही चाहिए जिसने लोकतंत्र की ज्यादा सार्थक व्याख्या और भूमिका के प्रति लोगों के बीच भरोसा जगाया, जिनका धीरे-धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं और उसके निर्वाचन प्रक्रिया के प्रति ही मोहभंग होना शुरू हो गया था। आज मुद्दा यह नहीं है कि देश के अगले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे या राहुल गांधी। न ही यह मुद्दा है कि अगली सरकार केंद्र में यूपीए की बनती है कि एनडीए की। यहां तक कि मुद्दा यह भी नहीं है कि गठबंधन राजनीति के दौर में कौन किस गोद से छिटककर किस गोद में जाकर बैठ जाता है। बल्कि मुद्दा तो यह है कि क्या आगामी लोकसभा चुनाव वैकल्पिक राजनीति की बढ़ी संभावना को बढ़ाता है कि नहीं,जनता और सरकार के बीच की दूरी कम होती है कि नहीं। देखने वाली बात यह भी होगी कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली पार्टी या उसका गठबंधन राजनीति को लोकनीति की तरफ ले जाने के लिए कितनी तत्पर दिखती है।
यहां यह साफ होने का है कि विकल्प और स्थानापन्न होने में फर्क है। कांग्रेस और भाजपा के बीच केंद्र के अलावा कई राज्यों में इतने भर का ही राजनीतिक संघर्ष है कि जनता अगर एक से दुखी होती है तो दूसरे को सत्ता सौंप देती है। ऐसा इसलिए नहीं कि जनता को इसके अलावा कुछ सूझता नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके आगे चुनाव ही यही है कि वह इन दोनों में से किसी एक की तरफ जाए। यह तो विकल्प की नहीं बल्कि स्थानापन्नता की राजनीति हुई। मतदान के दौरान चुनाव के विकल्प से जनता को दूर रखने की जड़ता को जो राजनीतिक शक्तियां बहाल रखना चाहती हैं, वो इस लिहाज से तो कमजोर जरूर हैं कि वे अपने आगे किसी अपारंपरिक विकल्प के खड़ा होने से घबड़ाती है।
पारंपरिक राजनीति के प्रतिष्ठान कितना ढहते हैं, यह इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प प्रतिफल होगा। यह प्रतिफल ही यह तय करेगा कि इस देश की जनता अपने लिए और अपने नाम पर चलने वाले तंत्र को पराए हाथों से कितना अपने हाथों में ला पाती है। पंजाबी के क्रांतिकारी कवि पाश सबसे खतरनाक स्थिति उसे मानते हैं जब हमारे सपने मर जाते हैं। आने वाला लोकसभा चुनाव देश के जन, गण और मन के लिए सुखद ही होगा, खतरनाक नहीं ऐसी कामना है। भले अमत्र्य सेन या मनमोहन सिंह इस कामना पर भरोसा न करें। योगेंद्र यादव की कामना जरूर ऐसी दिखती है और न भी दिखती हो तो इस देश का आम आदमी तो 16वीं लोकसभा के गठन को इन्हीं कामनाओं से आकार लेता देखना चाह रहा है।