क्या आपने कभी ऐसे सोचा है कि सचाई से ज्यादा मक्कारी हमारे जेहन और चिंतन को क्यों घेरता है। अपने हिस्से के अंधेरे को दूर करने की बजाय हम आसपास के अंधेरे को लेकर आलोचकीय प्रबुद्धता क्यों दिखाते हैं। बिजली के लट्टुओं ने भले चिराग तले अंधेरे के मुहावरे को खारिज कर दिया हो पर नए दौर के टॉर्च वियररों की जमीरी बेईमानी को देखकर इस मुहावरे का विकसित और आधुनिक भाष्य समझ में आता है। आज की तारीख में भ्रष्टाचार अगर सबसे बड़ा मुद्दा है तो इसकी असली वजह महज न तो सिविल सोसाइटी की मुहिम है और न ही कोई राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता। दरअसल, पिछले छह दशकों में सरकार, राजनीति, प्रशासन और न्याय प्रक्रिया के जो अनुभव आम आदमी के हिस्से आए हैं, उसमें सदाचार की भारतीय संस्कृति के सच को नंगा करके रख दिया है। यह नंगापन पिछले तीन दशकों के उदारवादी दौर में सबसे ज्यादा बढ़ा है।
व्यक्ति और समूह से शुरू हुए लालच और भ्रष्टाचार का अपने यहां जहां अपना वर्ग चरित्र है, वहीं शिक्षा, शहरीकरण, आमदनी और आधुनिकता जैसे भ्रष्टाचार निरोधी तर्क भी कहीं से कारगर नहीं मालूम पड़ते। दरअसल, अहम यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ हैं कि नहीं। असली सवाल इस जुड़ाव के वाह्य या आंतरिक होने को लेकर है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे में भारतीयों ने खादी और खाकी को भ्रष्टाचार की वर्दी करार दिया है। सेवा और स्वाबलंबन की सूत से कभी भ्रष्टाचार की कताई भी हो सकती है, यह बात गांधी को पता होती तो उनका चरखा भी शायद ही घूमता।
खद्दर और खाकी को लेकर जनमानस की पीड़ा और रोष को समझा जा सकता है। पर इस सर्वे में दर्ज यह भी हुआ है कि भ्रष्टाचार से भिड़ने की बजाय उसके आगे घुटने टेकने की हमारी लाचारी भी पिछले सालों में बढ़ी है। भ्रष्टाचार की काली स्लेट पर सदाचार उकेरने में उत्साही लोगों को भी यह समझ तो होगी कि इसकी शुरुआत शिकायत से नहीं पश्चाताप और सत्याग्रह से ही संभव है। ऐसी शिकायत करते हुए सामने की तरफ उठने वाली एक अंगुली अगर तनी है तो बाकी की दिशा भी किस तरफ है, यह नहीं भूलना चाहिए।
दरअसल, भ्रष्टाचार को लाचारी की स्वाभाविक परिणति बताकर हम अपने हिस्से के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष को स्थगित कर देते हैं। यह स्थगन एक बड़े मुद्दे के हल को रोष और प्रचार के खल में किस तरह बदल देता है, यह अनुभव देश आज संसद से लेकर सड़क तक कर रहा है। दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सच बयानी को लेकर एक टीवी रियलिटी शो भी शुरू हुआ है। जहां अपने भ्रष्ट कर्मों के प्रायश्चित के लिए लोग कैमरे के सामने आ रहे हैं और इनामी साहस के साथ बता रहे हैं कि उन्होंने लालच में आकर क्या-क्या और कितने गलत काम किए हैं। दरअसल, आत्मप्रतीति के ऐसे इसी तरीके की नाटकीयता की मांग करते हैं जबकि साध्य और साधन की शुद्धता का सत्याग्रह प्रशांत धैर्य और चिंतन की दरकार रखता है।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की शब्दावली में आधुनिक समय में परिवर्तन का इतिहास रातोंरात नहीं रचा जा सकता बल्कि इसकी प्रक्रिया 'व्यक्तित्वांतरण' की इकाई से शुरू होकर समय और समाज की दहाई, सैकड़े-हजार तक पहुंचेगी। पूरी दुनिया में परिवर्तन की परतें उतनी नहीं जमीं जितनी उनके नाम पर तारीखें दर्ज हैं। लिहाजा, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को परिवर्तन की ऐसी एक और तारीख के रूप में हम देखना चाहते हैं तो यह इतिहास आज अपने देश में जरूर लिखा जा रहा है। पर इसके बाद भ्रष्टाचार का मर्ज हमारे सलूक और सिस्टम से बाहर हो जाएगा, इस दावे को लेकर सोचना भी मूढ़ता होगी। व्यक्ति के सदाचार का अपना कद जब तक नहीं उठता, भ्रष्टाचार का दैत्याकार हमेशा हमें डराता और हमारा मुंह चिढ़ाता रहेगा।
साफ है कि यह लड़ाई बाहरी नहीं बल्कि भीतरी है। अब तक इस लड़ाई को हम बाहरी मैदान पर खूब बहादुरी से लड़ रहे हैं। पर यह बहादुरी खुद से मुंह चुराने की चालाकी ज्यादा साबित हो रही है। जब तक पाप और संताप के भीतरी ताप में हम डूबे-उतराएंगे नहीं, भ्रष्टाचार भले कहीं से मिटे हमारे अंदर जिंदा और जावेद रहेगा। इसलिए सड़कों पर मुट्ठियां लहराने और नारों के शोर को हम कहीं और नहीं खुद तक पहुंचने का जरिया मानें क्योंकि तब... 'न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।' (कुछ तो होगा/ रघुवीर सहाय)
व्यक्ति और समूह से शुरू हुए लालच और भ्रष्टाचार का अपने यहां जहां अपना वर्ग चरित्र है, वहीं शिक्षा, शहरीकरण, आमदनी और आधुनिकता जैसे भ्रष्टाचार निरोधी तर्क भी कहीं से कारगर नहीं मालूम पड़ते। दरअसल, अहम यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ हैं कि नहीं। असली सवाल इस जुड़ाव के वाह्य या आंतरिक होने को लेकर है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे में भारतीयों ने खादी और खाकी को भ्रष्टाचार की वर्दी करार दिया है। सेवा और स्वाबलंबन की सूत से कभी भ्रष्टाचार की कताई भी हो सकती है, यह बात गांधी को पता होती तो उनका चरखा भी शायद ही घूमता।
खद्दर और खाकी को लेकर जनमानस की पीड़ा और रोष को समझा जा सकता है। पर इस सर्वे में दर्ज यह भी हुआ है कि भ्रष्टाचार से भिड़ने की बजाय उसके आगे घुटने टेकने की हमारी लाचारी भी पिछले सालों में बढ़ी है। भ्रष्टाचार की काली स्लेट पर सदाचार उकेरने में उत्साही लोगों को भी यह समझ तो होगी कि इसकी शुरुआत शिकायत से नहीं पश्चाताप और सत्याग्रह से ही संभव है। ऐसी शिकायत करते हुए सामने की तरफ उठने वाली एक अंगुली अगर तनी है तो बाकी की दिशा भी किस तरफ है, यह नहीं भूलना चाहिए।
दरअसल, भ्रष्टाचार को लाचारी की स्वाभाविक परिणति बताकर हम अपने हिस्से के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष को स्थगित कर देते हैं। यह स्थगन एक बड़े मुद्दे के हल को रोष और प्रचार के खल में किस तरह बदल देता है, यह अनुभव देश आज संसद से लेकर सड़क तक कर रहा है। दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सच बयानी को लेकर एक टीवी रियलिटी शो भी शुरू हुआ है। जहां अपने भ्रष्ट कर्मों के प्रायश्चित के लिए लोग कैमरे के सामने आ रहे हैं और इनामी साहस के साथ बता रहे हैं कि उन्होंने लालच में आकर क्या-क्या और कितने गलत काम किए हैं। दरअसल, आत्मप्रतीति के ऐसे इसी तरीके की नाटकीयता की मांग करते हैं जबकि साध्य और साधन की शुद्धता का सत्याग्रह प्रशांत धैर्य और चिंतन की दरकार रखता है।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की शब्दावली में आधुनिक समय में परिवर्तन का इतिहास रातोंरात नहीं रचा जा सकता बल्कि इसकी प्रक्रिया 'व्यक्तित्वांतरण' की इकाई से शुरू होकर समय और समाज की दहाई, सैकड़े-हजार तक पहुंचेगी। पूरी दुनिया में परिवर्तन की परतें उतनी नहीं जमीं जितनी उनके नाम पर तारीखें दर्ज हैं। लिहाजा, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को परिवर्तन की ऐसी एक और तारीख के रूप में हम देखना चाहते हैं तो यह इतिहास आज अपने देश में जरूर लिखा जा रहा है। पर इसके बाद भ्रष्टाचार का मर्ज हमारे सलूक और सिस्टम से बाहर हो जाएगा, इस दावे को लेकर सोचना भी मूढ़ता होगी। व्यक्ति के सदाचार का अपना कद जब तक नहीं उठता, भ्रष्टाचार का दैत्याकार हमेशा हमें डराता और हमारा मुंह चिढ़ाता रहेगा।
साफ है कि यह लड़ाई बाहरी नहीं बल्कि भीतरी है। अब तक इस लड़ाई को हम बाहरी मैदान पर खूब बहादुरी से लड़ रहे हैं। पर यह बहादुरी खुद से मुंह चुराने की चालाकी ज्यादा साबित हो रही है। जब तक पाप और संताप के भीतरी ताप में हम डूबे-उतराएंगे नहीं, भ्रष्टाचार भले कहीं से मिटे हमारे अंदर जिंदा और जावेद रहेगा। इसलिए सड़कों पर मुट्ठियां लहराने और नारों के शोर को हम कहीं और नहीं खुद तक पहुंचने का जरिया मानें क्योंकि तब... 'न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।' (कुछ तो होगा/ रघुवीर सहाय)
It's true, but your language some heard for me. Baki aap apni marji ke malik hai.
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