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सोमवार, 16 दिसंबर 2013

विसर्जन स्थापना की जरूरी शर्त नहीं


अस्मिता की राजनीति के दौर में भावनाओं के ज्वार खूब फूट रहे हैं। हर तरफ इस तरह के स्वर उठ रहे हैं कि फलां समुदाय के नेता के साथ तारीखी तौर पर अन्याय हुआ और अब उनके सही मूल्यांकन का समय आ गया है। किसी को स्थापित करने के लिए किसी को भंजित करना भी जरूरी होता है। सो हो यह रहा कि कई ऐतिहासिक नायकों के चेहरों पर कालिख पोती जा रही है। अस्मितावादी विमर्श में पिछले दो दशकों में ऐसी तमाम कोशिशों को एक बड़े अन्याय के खिलाफ खड़े होने का आधार माना जा रहा है। यह आधार अभिजात्यवादी या सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ सोशल चेंज -अब तो इसे सोशल इंजीनियरिंग तक कहा जा रहा है- का जरूरी औजार के तौर पर काम कर रहा है, ऐसा मानने वाले प्रगतिशील भी कम नहीं हैं। पर इस सोच का इस सवाल के बाद क्या मतलब रह जाता है कि बड़ी लकीर से आगे उससे बड़ी लकीर खिंचने की बजाय पहली खिंची लकीर के साथ ही काट-पीट क्यों?
कुछ विसर्जित होगा, भंजित होगा तभी नया कुछ स्थापित होगा, ऐसी सोच तो हिंसक ही मानी जाएगी। अंबेडकर के नाम पर सामाजिक न्याय की गोलबंदी ने समाज के जातीय तानेबाने को कैसे देखते-देखते वैमनस्य का नागफनी मैदान बना दिया, यह अनुभव हमारे सामने है। इसमें साफ होने की बात यह है कि जातीय विभेद अच्छी बात है, यह कोई नहीं कह रहा पर इसे मिटाने के नाम पर अगर सामाजिक समरसता का पारंपरिक आधार भी अगर दबता-मिटता चला जाए तो इस प्रतिवादी संतोष का हासिल क्या एक हिंसक नियति से ज्यादा रह जाता है।
अभी गुजरात के मुख्यमंत्री देश भर में घूम-घूमकर सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करने के लिए देशभर के किसानों से लोहा दान देने की बात कह रहे हैं। पहली नजर में यह एक आदर्श राष्ट्रवादी सोच दिखती है। ऐसा अगर इस अभियान को लेकर अगर कोई सोचता है, तो वह गलत भी नहीं है। सरदार का भारत के एकीकरण और राष्ट्र के रूप में उसके निर्माण में एक बड़ा योगदान है। इस योगदान का स्मरण हमें अपने राष्ट्र के प्रति गर्वित करता है। पर बात यहीं खत्म होती तो गनीमत थी। हम अपने बाकी के राष्ट्र नायकों का स्मरण कैसे करते हैं और उनके शील और विचार हम पर कितना कारगर असर अब तक छोड़ते रहे हैं, यह सचाई भी हमारे सामने है। दिनकर ने इन्हीं स्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत पहले लिखा- 'तुमने दिया देश को देश तुम्हें क्या देगा, अपनी ज्वाला तेज करने को नाम तुम्हारा लेगा।’
सरदार की विशालकाय प्रतिमा के स्थापना पर महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने पहले तो हर्ष जताया। कहा कि सरदार साहब का व्यक्तित्व ऐसा रहा, जिसके कारण पूरे देश का उनके प्रति स्नेह रहा। यह स्नेह अब और प्रगाढ़ हो रहा है, तो यह प्रसन्नता की बात है। पर जिस रूप में यह सब किया जा रहा है, वह सही नहीं है। इससे एक तो यह पूरा मिशन ही अपने रास्ते से भटकेगा, दूसरा इसकी देखादेखी एक होड़ पैदा लेगी बाकी नेताओं और प्रतीक पुरुषों की बड़ी से बड़ी प्रतिमा स्थापित करने की। इससे देश और समाज का कोई भला तो क्या होगा नुकसान भले बहुत ज्यादा हो जाएगा।
राजमोहन गांधी ने ये बातें किसी पक्षकार के नाते नहीं कही। बल्कि उन्होंने ये बातें किसी नाते कही तो वे सरदार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मुरीद होने के नाते। वे उन दलीलों में भी नहीं उलझे कि अब क्यों अचानक उनके नाम पर राजनीति हो रही है। अगर सरदार 'भारत रत्न’ हैं तो उन्हें इस या उस दल का नेता बताने का क्या औचित्य है? फिर यह भी कहने का क्या मतलब कि अगर सरदार पटेल तब देश के प्रधानमंत्री बने होते तो देश की आज तस्वीर ही कुछ दूसरी होती। यह भी कि तब न पाकिस्तान हमारे लिए सिरदर्द बनता और न ही आतंकवाद हमारे लिए एक नासूरी समस्या बनता।
कुछ अर्से पहले जब कश्मीर वार्ताकारों की टीम ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी तो यह बहस छिड़ी कि क्या ऐतिहासिक घटनाक्रमों को बदला जा सकता है। इस बहस को आगे बढ़ाने की पैरोकारी करने वाले ही आज यह दलील दे रहे हैं कि सरदार को उनके दल ने पर्याप्त सम्मान और अवसर नहीं दिए। अलबत्ता यहां यह बात जरूर साफ होने की नहीं कि इतिहास कोई बंद किताब भी नहीं जो बस हमारी स्मृतियों के ताखे पर रखी रहे। इतिहास भविष्य के लिए हमारी आंखें हैं। हमारे संचित अनुभव हैं, जिससे भविष्य के मुहाने खोलने में हमें मदद मिल सकती है। इतिहास से मुठभेड़ भी होनी चाहिए क्योंकि यह एक गलत लीक को दुरुस्त करने की सबसे जरूरी दरकार है। पर इतिहास के प्रति कुढ़न और दुराग्रह का औचित्य कतई स्वस्थ नहीं हो सकता।
राजमोहन गांधी एक और खतरे की तरफ इशारा करते हैं। यह इशारा महिमा मंडन की राजनीति की तरफ है। ऐसी राजनीति शुरू तो होती है देश और समाज की नजर में किसी की शिनाख्त को और ज्यादा मुकम्मल करने, उसे और ऊपर उठाने के लिए। पर आगे चलकर यह कोशिश दूसरी तमाम शिनाख्तों को तहस-नहस करने की हिंसक सनक में बदल जाती है। सरदार का नाम ऐसे किसी सनक का हिस्सा बने, यह कौन चाहेगा। पर अगर ऐसा किसी पहल से हो जाने का खतरा है तो इसके बारे में सावधान तो रहना ही चाहिए।
एक बात और यह कि भारत की जिस सामासिक संस्कृति और परंपरा की बात की जाती है, वह सिर्फ जीवन, समाज या रहन-सहन से ही नहीं जुड़ा है। यह उस सोच को भी दर्शाता है जिसमें तमाम तरह के विचार और अनुशीलन एक साथ हमारे बीच अपना लोकतांत्रिक आधार विकसित करते हैं। समय के साथ इनमें से कई आधार दरकते चले जाते हैं तो कुछ और विस्तृत, और पुष्ट। अद्बैत से लेकर द्बैत तक की हमारी दार्शनिक समझ भी यही जाहिर करती है कि हम एक गंत्वय की तरफ शुरू से कई रास्तों से बढ़ते रहे हैं। विचार और आचरण के बीच विकल्प और स्वतंत्रता का खुलापन यह दिखाता है कि चयन और निर्णय करने की हमारी पूरी प्रक्रिया शुरू से खासी खुली और लोकतांत्रिक रही है। भारतीय सांस्कृतिक विमर्श में यह बहस खूब चली है कि एक ऐसी जागरूक चेतना और लोकतांत्रिक मानस से लैश देश-समाज को दशकों लंबी दासता का दंश आखिर क्यों झेलना पड़ा? इस सवाल को कुछ लोग इसका जवाब भी मानते हैं कि यह हमारी प्रखर चेतना की समन्वयी ताकत के ही बूते का था कि हम दासता की इतनी लंबी यातना के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़े हो सके।
वैसे सरदार की प्रतिमा के बहाने अगर राष्ट्र निर्माण से जुड़ी तमाम तरह की चिंताओं-आशंकाओं का जाहिर होना एक तरह से शुभ लक्षण भी है। यह दिखलाता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को लेकर हमारी चेतना कितनी गहरी, कितनी उर्वर और कितनी जिम्मेदार है। एक देश का इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि उसका भाल हमेशा तिलकित रहे और हमेशा चमकता रहा, इसके लिए उसकी संतानें इतनी विपुल आस्था के साथ विचार मंथन करती हैं।
 

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