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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कुछ सबक तो लें माननीय

पंद्रहवीं लोकसभा देश के संसदीय लोकतंत्र को लेकर उठने वाले कई सामयिक सवालों और एतराजों की साक्षी रही। लोकसभा सत्र के आखिरी दिन सांसद भावुकता में भले एक-दूसरे के प्रति अपने शिकवे-शिकायतों को दूर कर सौहार्द बढ़ाते दिखे, पर इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस लोकसभा का कार्यकाल सदन के अंदर और बाहर सर्वाधिक सवालों के घेरे में रहा। काम के घंटे और पास होने वाले बिलों का लेखा-जोखा अगर छोड़ भी दें तो बीते पांच सालों में सदन के आचरण और उसकी प्राथमिकताओं पर लगातार सवाल उठाए गए। एक तरफ इसे 'दागियों का सदन’ कहा गया तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने की उसकी प्रतिबद्धता को कठघरे में खड़ा किया गया।
भूले नहीं हैं लोग साल 2०11 के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम को जब जनलोकपाल बिल को पास कराने को लेकर समाजसेवी अण्णा हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें सदन के अंदर यह कहते हुए सैल्यूट कर रहे थे कि संसद भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक पहल के लिए तैयार है, प्रतिबद्ध है।
लोकसभा के अंतिम सत्र की समाप्ति पर प्रधानमंत्री जब अपनी सरकार की कामयाबी गिना रहे थे तो वे यह कहना भूल गए कि इस देश में लोकशाही इसलिए मजबूत नहीं है कि यह सदन उसके लिए प्रतिबद्ध है बल्कि इस देश की जनता की लोकतांत्रिक आस्था इतनी मजबूत है कि वह विचलन की स्थिति में संसदीय गणतंत्र को भी राह दिखाती है।
15वीं लोकसभा के कार्यकाल को लेकर ये कुछ बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इससे यह साफ होता है कि इसके कार्यकाल में सरकारी भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले खुले और इसकी आंच मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक पर पहुंची। यही नहीं, इस दौरान कई मामलों की जांच में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई, उसकी कर्तव्यहीनता को शर्मनाक करार दिया।
क्या दाग अच्छे हैं

लोकसभा की कार्यवाही के आखिरी दिन का मंजर देखकर यह नहीं लग रहा था कि यह सदन अपने अमर्यादित आचरण और लोकहित के प्रति अपनी लापरवाही के लिए कहीं से शर्मसार है। सौहार्द के बोल सरकार की तरफ से तो बोले ही गए, विपक्ष ने भी सरकार की विफलता पर हलकी चुटकी लेने से ज्यादा तल्खी दिखाने को तैयार नहीं दिखी।
कई सांसदों ने आत्मावलोकन की बात जरूर की पर इसमें ये बात कहीं से रेखांकित नहीं हुई कि इस लोकसभा के 543 में से 162 यानी तकरीबन 3० फीसदी सांसदों का रिकॉर्ड दागदार है। यही नहीं, जब आपराधिक रिकॉर्ड वाले ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए तो इसके खिलाफ बिल लाने की मांग उठी। इस पहल के लिए सबसे पहले सरकार ललक से भरी। फिर विपक्ष भी कहीं न कहीं सरकार के साथ खड़ा दिखा।
वैसे इस बिल को संसद की हरी झंडी नहीं मिली और जब आनन-फानन में सरकार इस पर अध्यादेश लाने को तैयार हुई तो जनता के मूड को भांपते हुए विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया। बाद में नाटकीय तरीके से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को रद्दी की टोकड़ी में फेंकने की बात कही और सरकार को अपने ही घोषित एजेंडे से यू-टर्न लेना पड़ा।
यह सब देखकर इस लोकसभा के आचरण और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को बहाल रखने की उसकी प्रतिबद्धता को लेकर अंतिम राय क्या बनेगी, कहने की जरूरत नहीं।
तेलंगाना पर हंगामा

15वीं लोकसभा ने सबसे अशोभनीय आचरण तब दिखाया जब तेलंगाना बिल सदन में आया। सरकार के मंत्री तक वेल में हंगामा मचाते दिखे। हद तो तब हो गई जब माइक तोड़ने से लेकर मिर्ची स्प्रे करकेसदन की कार्यवाही रोकी गई। बाद में जब यह बिल पास भी हुआ तो इस अफरा-तफरी के बीच कि सरकार और विपक्ष दोनों ने अपनाई गई प्रक्रिया पर सवाल उठाए । दिलचस्प है कि इस दौरान सदन में क्या चल रहा था लोग लोकसभा चैनल पर देखना चाह रहे थे पर अचानक ब्लैक आउट करके पूरे देश को अंधेरे में रखा गया। यह अंधेरा इतिहास के पन्नों पर भी इस लोकसभा का पीछा शायद ही छोड़े।
 

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