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सोमवार, 17 नवंबर 2014

ऐसे तो लौटने से रहे महात्मा


समय से हम सब बंधे हैं पर समय को बांधने की भी हमारी ललक रहती है। तभी तो समय को जीने से पहले ही हम उसके नाम का फैसला कर लेते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बच्चे के जन्म के साथ उसका नामकरण संस्कार पूरा कर लिया जाता है। यह परंपरा हमारी स्वाभाविक वृत्तियों से मेल खाती है।
जिस 21वीं सदी में हम जी रहे हैं, उसका आगमन बाद में हुआ नामकरण पहले कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसे कंप्यूटर और सूचना क्रांति की सदी बताते थे। उनकी पार्टी आज भी इस बात को भूलती नहीं और देश को जब-तब इस बात की याद दिलाती रहती है। बहरहाल, बात इससे आगे की। 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिसक प्रयोगों को आजमाया गया तो फिर से एक बार समय के नामकरण की जल्दबाजी देखी गई। भारतीय मीडिया की तो छोड़ें अमेरिका और इंग्लैंड से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिग लगी कि भारत में एक बार फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं। सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकर्ताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के साथ इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
इस सिलसिले में एक उल्लेख और। भाजपा के थिक टैंक में शामिल रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने अपनी किताब 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिग व्हील’ में तो इंटरनेट को गांधी का आधुनिक चरखा तक बता दिया। कुलकर्णी ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क दिए और यहां तक कि खुद गांधी के कई उद्धरणों का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी के इरादे पर बगैर संशय किए यह बहस तो छेड़ी ही जा सकती है कि जिस गांधी ने अपने 'हिद स्वराज’ में मशीनों को शैतानी ताकत तक कहा और इसे मानवीय श्रम और पुरुषार्थ का अपमान बताया, उसकी सैद्धांतिक टेक को कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी परावलंबी तकनीक और भोगवादी औजार के साथ कैसे मेल खिलाया जा सकता है।
संयोग से गांधी के 'हिद स्वराज’ के भी सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर गांधीवादी विचार के तमाम अध्येताओं ने एक सुर में यही बात कही कि इस पुस्तक में दर्ज विचार को गांधी न तब बदलने को तैयार थे और न आज समय और समाज की जो नियति सामने है, उसमें कोई इसमें फ़ेरबदल की गंुजाइश देखी जा सकती है।
अब ऐसे में कोई यह बताए कि साधन और साध्य की शुचिता का सवाल आजीवन उठाने वाले गांधी की प्रासंगिकता और उनके मूल्यों की 'रिडिस्कवरी’ की घोषणा ऐसे ही तपाक से कैसे की जा सकती है? तो क्या गांधी के मूल्य, उनके अहिसक संघर्ष के तरीकों की वापसी की घोषणा में जल्दबाजी की गई। अगर आप देश में 'आप’ की राजनीति पर नजदीकी नजर रख रहे होंगे तो इस सवाल का जवाब आपको जरूर मिल गया होगा।

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