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शनिवार, 7 दिसंबर 2013

सलाम मदीबा

नेल्सन मंडेला के बारे में जिक्र करते हुए महात्मा गांधी का नाम स्वाभाविक तौर पर आता है। पर बीसवीं सदी के इन दोनों महानायकों को सीधे तौर पर एक-दूसरे की छाया बता देना एक असावधान कृत्य होगा। फिर दो बड़ी शख्सियतों का ऐसे भी आमने-सामने रखकर मूल्यांकन करना उनके साथ ज्यादती है। मंडेला निश्चत तौर पर गांधीवादी परंपरा के बड़े नायक थे। उनके संघर्ष ने साम्राज्यवाद और नस्लभेद की चूलें हिला दीं। दक्षिण अफ्रीका आज अगर विश्व के बाकी देशों के साथ बैठकर विकास और समृद्धि की बात कर रहा है तो इसके पीछे मंडेला का तीन दशक से भी लंबा संघर्ष है।
नस्लवाद साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक तौर पर सबसे कारगर औजार रहा है। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे तो रंगभेदी घृणा के वे खुद शिकार हुए थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए इस घृणा और हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूरक करने और संगठित संघर्ष शुरू करने का पहला श्रेय गांधी को ही है। बाद में संघर्ष की इस विरासत ने वहां एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।
मंडेला को इस बात का श्रेय जाता है कि दबे-सताए लोगों को संघर्ष की राह पर आगे बढ़ाने और फिर निर्णायक सफलता हासिल करने तक धैर्य और संयम बनाए रखना कितना जरूरी है, यह सीख उन्होंने अपने आचरण से दी। इस तरह का सकर्मक नायकत्व हासिल करना बड़ी उपलब्धि है। मंडेला आज अगर पूरी दुनिया में अन्याय और मानवीय दुराव के खिलाफ संघर्ष करने वालों के हीरो हैं तो अपनी इसी धैर्यपूणã शपथ के कारण।
27 साल का जीवन जेल की सलाखों के पीछे बीताने के बावजूद अपने संघर्ष की अलख को जलाए रखना कोई मामूली बात नहीं है। 199० में जब वे जेल से रिहा हुए तो देखते-देखते दुनिया के हर हिस्से में अन्याय के खिलाफ संघर्ष और क्रांतिकारी-वैचारिक गोलबंदी के जीवित प्रतीक बन गए। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भले कहने को एक छतरी में खड़ी हो पर लैंगिक और नस्ली विभेद से लेकर मानवाधिकार हनन तक के मामले हमारी तमाम तरक्की और उपलब्धि को सामने से आंखें दिखा रहे हैं, संघर्ष के प्रतीक और नायक का बने और टिके रहना बहुत जरूरी है। आज अगर मंडेला हमारे बीच नहीं हैं तो सबसे बड़ा संकट यही है कि संघर्ष और व्यक्तित्व के करिश्माई मेल को देखने के लिए अब हमारी आंखें कहां टिकेंगी। संकट की इस घड़ी में आन सान स ूकी की तरफ बरबस ध्यान जाता है। हमारे लिए यह संतोष की बात है कि सू की हमारे बीच अभी हैं।
बहरहाल, एक बार फिर से जिक्र गांधी और मंडेला की। गांधी और मंडेला के बीच तमाम साम्य के बीच कुछ मौलिक भेद भी हैं। गांधी जिस तरह के'सत्यान्वेषी’ रहे उसमें सत्य-प्रेम और करुणा का साझा पहली शर्त है। इसकी अवहेलना करके गांधीवादी मूल्यों की बात नहीं की जा सकती। अलबत्ता, गांधी के कई अध्येताओं ने भी जरूर यह कबूला है कि यह एक ऐसा आदर्शवाद है, जिसे मानवीय दुर्बलताओं के बीच एक प्रवृत्ति की शक्ल देना कोई साधारण बात नहीं।
मंडेला के यहां गांधी का धैर्य और अटूट संघर्ष तो है पर वे साधन और साध्य की शुचिता के मामले में गांधी से थोड़े अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं। इस अंतर को जैसे ही हम रेखांकित करते हैं तो हमारी समझ में यह बात आती है कि गांधी जिस रास्ते पर चले उस पर चलने वाले वे संभवत: अकेले पथिक थे। आइंस्टीन के शब्द भी हैं कि आने वाली नस्लों को तो यह भरोसा भी न हो कि हाड़-मांस के देह में गांधी जैसा व्यक्तित्व कभी जन्मा भी होगा।
मंडेला ने अपने जीवन में गांधी का स्मरण कई मौकों पर किया। वे महात्मा को एक शक्ति देने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में देखते थे। पर खुद मंडेला ने भी अपने को 'दूसरा गांधी’ कहे या माने जाने के नजरिए को एक भावुक सोच भर माना। उनके कई संस्मरणों में ऐसा जिक्र आता भी है। मंडेला के आगे एक ही मकसद था उस धरती को नस्लवादी जड़ता से मुक्त कराना, जो उनकी मातृभूमि है। आज अगर 'मदीबा’ दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपिता हैं, तो इसलिए क्योंकि आधुनिक विश्व के नक्शे पर इस देश को उन्होंने वह स्थान दिलाया, जिससे वह लंबे समय तक वंचित रहा था। दक्षिण अफ्रीका के इस महान सपूत ने तारीख के उन हर्फों को लिखा है, जिसने मनुष्य और मनुष्य के बीच खिंची हर लकीर को पूरी तरह अमान्य ठहरा दिया है।
 

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