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शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

महानायक और लोकनायक के बीच

भारत के लिए आज चुनौती क्या है? इस सवाल का जवाब ही यह साफ करेगा कि हम देश और समाज को लेकर किस तरह की चेतना से भरे हैं। वह चेतना जो पूरी तरह बाजार प्रायोजित है या फिर ऐसी चेतना जो विचार और समाज को एक सीध में देखने की चुनौती सामने रखती है। अभी-अभी ग्यारह अक्टूबर बीता है। इस दिन कई महानायक एक साथ चर्चा में रहे। सबसे ज्यादा चर्चा में रहे मिलेनियम स्टार का रुतबा हासिल कर चुके अमिताभ बच्चन। बिग बी का यह जन्मदिन है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर चर्चा में इसलिए रहे क्योंकि उन्होंने ट्वेंटी-2० और एकदिनी क्रिकेट के बाद टेस्ट क्रिकेट से भी अपनी विदाई की तारीख की घोषणा कर दी। इन दोनों नामों के साथ दो नाम या तो छूट गए या फिर इनकी चर्चा लोगों ने जरूरी ही नहीं समझी। इस चूक या नासमझी में मीडिया और न्यू मीडिया भी शामिल रहा, जिसे पिछले दो-तीन सालों से यह मुगालता रहा है कि वह देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए अपनी पहल को एक्टिविज्म की हद तक ले जाने का जोखिम मोल ले रहा है। छूट गए ये दो नाम हैं जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख। ग्यारह अक्टूबर को इनकी भी जयंती थी। जेपी को जनता ने ही कभी लोकनायक कहा था तो नानाजी आधुनिक राजनीति में संत छवि को जीने और निभाने वाले रहे। 
21वीं सदी के दूसरे दशक के आगाज के साथ भारतीय लोकतंत्र को सशक्त करने वाले कुछ शुभ संकेत प्रकट हुए। सड़कों पर तिरंगा लेकर देश के नवनिर्माण के लिए उतरने वाले नौजवानों की ललक में भले बहुत गंभीरता न हो और पर इस ललक की प्रासंगिकता और ईमानदारी पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। इस ललक के आलोक में ही देश में छह दशक बाद यह स्थिति आई कि हम देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसकी बुनियादी अवधारणा के साथ बहसीय मुठभेड़ कर सकें। इस मुठभेड़ ने ही यह साफ किया कि जो व्यवस्था राजनीतिक पथभ्रष्टता और भ्रष्टाचार की महामारी फैलाने की मशीनरी बन गई है, उसके कायम रहते राष्ट्रीय विकास और नवनिर्माण जैसे किसी लक्ष्य तक पहुंचने का संकल्प कैसे पूरा हो सकता है। 
जिस नई पीढ़ी की वैचारिक-सामाजिक संलग्नता को लेकर हम तरह-तरह के आग्रह-पूर्वाग्रह पाले बैठे हैं, उस फेसबुकिया पीढ़ी ने आगे आकर यह साफ किया कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स से आगे उसकी उड़ान देश और समाज के रचनात्मक उन्नयन से भी जुड़ी है। देश की युवाशक्ति की यह नई शिनाख्त राष्ट्रनिर्माण में उनकी प्रासंगिक भूमिका की नई पटकथा की तरह है, जिसमें अभी कई घटनाक्रम जुड़ने बाकी हैं। यहां तक की कहानी का क्लाइमेक्स तक आना अभी बाकी है। 
 अरब में बसंत का आना भले एक सुखद उत्तरआधुनिक परिघटना हो पर भारत में बसंत की कल्पना समाज और संस्कृति के बीच एक परंपरागत अनुशीलन है। पुराने पत्तों का झरना और नए पत्तों को आना हमारे लिए जीवन की नित-नूतन कल्पना की तरह है। इसमें निर्माण और विसर्जन का अलगाव नहीं है बल्कि यह एक सहअस्तित्ववादी जीवनदृष्टि है। अच्छी बात यह है कि सीख के ये पुराने सुलेख आज भी नष्ट नहीं हुए हैं, बचे हुए हैं। कसूर हमारा है कि बाजार का इश्तेहार तो हमारी जुबान पर चढ़ जाते हैं पर तारीख के कुछ जरूरी हर्फ पढ़ने की फुर्सत हमें नहीं। अभी टीवी पर एक विज्ञापन खूब चल रहा है जिसमें नेता और राजनीति में बदलाव के लिए माहौल को बदलने की बात जोर-शोर से की जाती है। विज्ञापन का संदेश है कि पुराने माहौल और पुरानी राहों ने अगर हमें निराश किया है तो निश्चित रूप से नए परिवेश और नए पथ की बात होनी चाहिए। यहां तक तो विज्ञापन की सैद्धांतिक टेक समझ में आती है पर क्षोभ तब यह होता है जब पता चलता है यह सब दिखाया-समझाया इसलिए जा रहा है क्योंकि एक महंगा प्लाई कवर बेचना है। जिस दौर में डेमोक्रेसी भी एड मैनेजमेंट का एक जरूरी सब्जेक्ट है, उस दौर के लिए इतनी बात तो जरूर कही जा सकती है लोकतंत्र की बेहतरी के लिए एक जरूरी रचनात्मक हस्तक्षेप की भूमिका बन चुकी है। अब तो बस इसके आगे के अध्याय लिखे जाने हैं। 
जेपी बिहार आंदोलन के दिनों में अकसर कहा करते थे कि जनता को 'कैप्चर ऑफ पावर’ के लिए नहीं बल्कि 'कंट्रोल ऑफ पावर’ के लिए संघर्ष करना चाहिए। यही बात आज प्रकारांतर से अण्णा हजारे कह रहे हैं। यही नहीं राजनीति की जगह लोकनीति और सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात अब फिर से होने लगी है। असंतोष की बात यह है कि लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के इन जरूरी मुद्दों को गिनाने वाले मुंह और खुले मंच तो आज कई हैं पर आमतौर पर इनका सरलीकृत भाष्य ही परोसा जाता है। 
यह सरलीकरण खतरनाक इसलिए है क्योंकि इसमें एक्टिविज्म और मार्केट फोर्सेज की सरपरस्ती को एक साथ स्वीकार है। यह मलेरिया के मच्छर और उसके टीके को एक साथ लेकर चलने जैसी स्थिति है। यह एक छल है। यह छल ही है जो एक तरफ तो अमिताभ और सचिन के स्टारडम को पाए की तरह खड़ा करता है, वहीं दूसरी तरफ लोकनायक जैसी शख्सियत को भूलने की चालाक दरकार को भी अमल में लाता है। बदलाव न तो बिकाऊ हो सकता है और न चलताऊ। इसे एक चैरिटी की तरह भी आप नहीं चला सकते हैं। बदलाव एक कसौटी है जो विचार, उसकी दरकार और आचरण को एक कलेक्टिव एक्शन की शक्ल देता है। आज अगर कुछ मिसिंग है तो यही कलेक्टिव एक्शन। 
जेपी की लोकनीति और उसके लिए बनी लोक समिति ने कार्यकारी रूप में अपना प्रभाव भले न छोड़ा हो पर उनका यह सबक तो आज भी प्रासंगिक है कि ग्रामसभा से लोकसभा तक का लोकतांत्रिक पिरामिड देश में उलटा खड़ा है। इसमें सत्ता का केंद्र और इसकी नियामक ताकतें प्रातिनिधिक लोकतंत्र के नाम पर दिल्ली, मुंबई या लखनऊ, पटना जैसी राजधानियों में हैं। 
ग्राम पंचायतों का सशक्तिकरण देश में लोकतंत्र के प्रातिनिधिकता के ढ़ांचे को प्रत्यक्ष सहभागिता के ढ़ांचे में बदल सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि विधानसभा या लोकतसभा की तरह ग्रामसभा कभी विघटित नहीं होती। इसका अस्तित्व हमेशा कायम रहता है और संबंधित क्षेत्र के अठारह साल से ऊपर के सभी नागरिक इसके आजीवन सदस्य हैं। नीति और विधि की दरकारों को सरकारें अगर इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक इकाई के सहभाग से तय करें तो इसमें पूरे देश का लोकतांत्रिक सहभाग होगा और यह नीतियों और कानूनों के अमल का स्पष्टधरातल तैयार करेगा। जेपी ने बिहर आंदोलन के दौरान ये बातें चीख-चीखकर कहीं। आज अण्णा हजारे और उनके साथ या अलग हुई जमातें चुनाव सुधार और लोकतांत्रिक सुधार का जो एजेंडा देश के सामने रख रहे हैं, उसमें भी ये बातें शामिल हैं। पर न तो देश का मीडिया और न ही देश में पिछले दो-तीन दशकों में तैयार हुई एक्टिविस्टों की जमात इन बातों को जनता के बीच खुलकर सामने ला पा रही हैं, उन्हें समझा पा रही हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम अपने आइकनों को गढ़ने और उन्हें मान्यता देने में फौरी और बाजारवादी तकाजों की गिरफ्त में होते हैं। जबकि एक देश के जीवन में परंपरा और इतिहास के भी कुछ सबक जरूरी हैं। जेपी ऐसे ही एक सबक का नाम है, जिनको भूलने का मतलब लोकतांत्रिक सुधार की प्रक्रिया को एक तदर्थ नियति की तरफ ले जाएगा। क्या राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी जैसे नायक इस तदर्थवाद के खतरे को समझेंगे? 


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