मंगलवार, 4 जनवरी 2011
चल बसा रामभरोसे
इसे आर्थिक समझ का मुगालता कहें न कहें अव्वल दर्जे की एक आत्मघाती बेवकूफी तो जरूर कहेंगे कि उन्नति और विकास के लिए शहरीकरण को लक्ष्य और लक्षण दोनों स्वीकार करने वाले सिद्धांतकार सरकार के भीतर और बाहर दोनों जगह हैं। और यह स्थिति सिर्फ अपने यहां है ऐसा भी नहीं। पूरी दुनिया को खुले आर्थिक तंत्र की एक छतरी में देखने की भूमंडलीय होड़ के बाद कमोबेश यही समझ हर देश और दिशा में बनी है।
पिछले दिनों दो ऐसी खबरें आई जिसने शहरी समाज और व्यवस्था के बीच से लगातार छिजती जा रही संवेदनशीलता के सवाल को एक बार फिर उभार दिया। 50 साल के घायल रामभरोसे ने एंबुलेंस में ही इसलिए दम तोड़ दिया क्योंकि देश की राजधानी के बड़े-छोटे किसी अस्पताल के पास न तो उसकी इलाज के लिए जरूरी उपकरण थे और न ही वह रहमदिली कि उसे कम से कम उसके हाल पर न छोड़ा जाए। विडंबना ही है कि हेल्थ हेल्पलाइन से लेकर किसी को भूखे न सोने की गारंटी देने वाली देश की राजधानी में एक गरीब और मजबूर की जान की कीमत कुछ भी नहीं।
शहर के अस्पतालों में मरीजों के साथ होने वाले सलूक का सच इससे पहले भी कई बार सामने आ चुका है। जो निजी पांच सितारा अस्पताल अपनी अद्वितीय सेवा धर्म का ढिंढ़ोरा पीटते हैं, वहां तो गरीबों के लिए खैर कोई गुंजाइश ही नहीं है। रही सरकारी अस्पतालों की बात तो आए दिन अपनी पगार और भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल पर बैठने वाले डॉक्टरों की तरफ से कभी कोई मांग कम से कम मरीजों की उचित देखरेख के लिए तो नहीं ही उठाई गई। उनकी इसी मानसिकता को लेकर एक समकालीन कवि ने डॉक्टरों को पेशेवर रहमदिल इंसान तक कहा। यह अलग बात है कि नई घटना में तो वे ढ़ंग से पेशेवर भी नहीं साबित हुए।
हम जिन घटनाओं का जिक्र कर रहे हैं, उसमें दूसरी घटना एक मेट्रो स्टेशन की है। इस घटना में ऊपरी तौर पर घटित तो कुछ भी नहीं हुआ, हां अंतर्घटना के रूप में देखें-समझें तो रोंगटे जरूर खड़े हो जाते हैं। अपनों से अलग-थलग पड़ चुकी कानपुर से दिल्ली आई एक महिला राजधानी के एक मेट्रो स्टेशन पर इस फिक्र में घंटों बैठी रही कि वह कहां जाए और किससे मदद की गुहार लगाए। उसकी स्थिति देखकर कोई भी उसकी लाचारी को पढ़ सकता था पर उससे कुछ ही कदम की दूरी पर बैठे सुरक्षा जवानों के लिए शहर में आए दिन दिखने वाला यह एक आम माजरा था।
दिलचस्प है कि यह संवेदनहीनता उस शहर के पुलिस और सुरक्षा जवानों की है जिसको लेकर यहां की सरकार अमन-चैन के लंबे-चौडे़ वादे करती है। गनीमत है कि किसी अपराधी तत्व की निगाह उस महिला पर नहीं पड़ी, नहीं तो गैंगरेप के एक से ज्यादा मामलों में अब तक अंधेरे में तीर चला रही सरकार और पुलिस के लिए मुंह छिपाने की एक और बड़ी वजह आज लोगों की चर्चा का विषय होता।
दरअसल, पूरे देश की आबादी के सबसे घने बसाव वाली दिल्ली के लिए कानून-व्यवस्था के जिस अलग और ज्यादा चुस्त तंत्र की दरकार है, उसकी जरूरत केंद्र और स्थानीय सरकार ने महसूस की हो या नहीं, कम से कम उनकी तरफ से इस दिशा में कोई निर्णयात्मक पहल तो नहीं ही की गई। इस जरूरी पहल का रास्ता कभी राजनीति ने काटा तो कभी सरकारी महकमों की गतहाली ने। पर अब स्थिति चेतने की है, नहीं तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
सारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती हमक्या करते है कहाँ है
जवाब देंहटाएंनव वर्ष की शुभकामनाये ,नया साल आपको खुशियाँ प्रदान करे
shukria...Bhai Sunil!...aur nya saal ke shubhkamnayan apko bhi...
जवाब देंहटाएं