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रविवार, 2 जनवरी 2011

वर्षकाल


एक बिन धुले
निगेटिव की तरह
था साल दो हजार दस
कैमरे की कई बार की
क्लिक के बाद भी
तस्वीर की कल्पना भर
दृश्य का महज आभास भर

विदा होते हुए बरस यह
पूरी तरह धुल चुके मुकम्मल
कोडेक इमेज की तरह
कहां गलत थे पांव
किसे बस यों ही मान बैठे
अपना गांव
कहां पथ प्रशस्त
कहां दु:स्वप्न के झार-कांटे
कहां मनमौजी
जिद्दी आत्मघाती रास्ते

हाथ वह जो
कड़ी जोड़ने
हथकड़ी तोड़ने की तरह
राह जिसने संभव किया
समय का हृदय से जुड़ाव
एहसास के कुछ गिनेचुने पड़ाव
कुछ देर तक गुदगुदाते लम्हे 
कुछ दूर तक सिहरते घाव

अनुभवों की बारीक
कसीदाकारी
मां को लपेटे
जैसे व्रत की साड़ी
भेंट अंतिम यह
गुजरे एक पूरे वर्ष का
परिस्थिति वह तब की
स्थिति यह अब की

ध्वंस की राख
कि भभूतिया चमत्कार
छंट चुकी पूरी तरह
रात एक अबीरी
बढ़कर थाम रही
सुबह एक सिंदूरी
कुछ आधी-अधूरी बात
कुछ भरपूर जज्बात
एक पूरा वर्षकाल

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