जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे पहला तकाजा सबके लिए समान अवसर और न्याय है। ऐसे में बिहार में भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद इस पूरे मामले की जो सूरत गढ़ी गई, वह खासा खतरनाक और कई गंभीर सवाल उठाती है। तब जबकि एक तरफ राज्य सरकार ने मामले को संगीन बताया और फौरी तौर पर इसकी जांच के आदेश दिए, यह बात सरकार में शामिल लोगों की तरफ से बढ़-चढ़कर बताना कि केसरी क्षेत्र में काफी लोकप्रिय थे और उन्हें पूर्णिया की जनता ने चार बार विधायक चुनकर भेजा था, लिहाजा अगर किसी का चरित्र संदिग्ध है तो उस महिला का जिसने विधायक की चाकू घोंपकर हत्या की। ये बातें कहीं से भी गले नहीं उतरती।
केसरी चूंकि भाजपा विधायक थे, इसलिए इस घटना के बाद राज्य में सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन में सबसे मुश्किल स्थिति जाहिर रूप से भाजपा की ही बनी। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की इस घटना के बाद अतिरिक्त सक्रियता और कुछ घंटे के अंदर ही मीडिया के सामने यह कह देना कि पेशे से शिक्षिका रूपम पाठक द्वारा विधायक पर यौन उत्पीड़न के आरोप गंभीर नहीं हैं। इस आरोप को लेकर न तो कोई मामला लंबित है और न ही किसी स्तर पर कोई लिखायत शिकायत दर्ज है। केसरी जनप्रिय नेता थे और भाजपा के साथ उनका साथ पुराना और विश्वसनीय है। किसी सूबे की सरकार में वरीयता में दूसरे नंबर की जवाबदेही संभाल रहे नेता का इस तरह का बयान कम से कम एक तटस्थ प्रतिक्रिया तो नहीं ही ठहराई जा सकती।
जदयू-भाजपा गठबंधन को सूबे की जनता ने जब शासन के लिए दोबारा चुना तो उसके पीछे एक बड़ी आशा राज्य में सुशासन की स्थापना भी थी। बेशक निजी रूप से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सत्ता में रहते हुए अपने बयान और क्रियाकलाप में अपेक्षित रूप से कम विवादास्पद रहे हैं। लेकिन विधायक हत्या मामले में सरकार और उसमें शामिल एक दल की छवि दांव पर लगी है। न्याय की यह सार्वदेशिक और सार्वकालिक मर्यादा है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है कि न्याय होते हुए भी दिखे। इस मामले में कम से कम अब तक के घटनाक्रम में तो यह न्याय की यह मर्यादा पूरी होती नहीं दिखती।
एक सरकार की छवि और उसके लोगों की छवि और सुरक्षा अगर बहुत मायने रखती है तो यह कहीं से सिद्ध नहीं होता कि यह सब नागरिक सुरक्षा और खासकर एक महिला की छवि को बगैर किसी पुष्ट आधार के दाव पर लगाकर ही पूरा हो। वैसे भी जनतांत्रिक मर्यादा किसी सरकार और उसके हिस्से-पुर्जों को जनता के प्रति ही अंतिम रूप से उत्तरदायी ठहराती है। लिहाजा, केसरी हत्याकांड की जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक सरकारी पक्ष तटस्थ मर्यादा का सख्ती से पालन करे, यह चुनौती भी है और यही अपेक्षित भी। जिस तरह यह हत्या हुई, उसमें कम से कम पहली नजर में तो यह लगता ही है कि इसके पीछे की वजह मामूली तो कम से कम नहीं होगी। जिस महिला ने कानून हाथ में लेकर यह अतिरेक कदम उठाया, उसकी अब और पहले कही गई बातों पर बगैर किसी पुख्ता पड़ताल के कोई अंतिम राय बनाने का कोई कारण नहीं। और यह भी कि एक विधायक की सुरक्षा कम से कम इतनी कमजोर तो नहीं ही होनी चाहिए जैसा कि इस मामले में दिखा।
केसरी चूंकि भाजपा विधायक थे, इसलिए इस घटना के बाद राज्य में सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन में सबसे मुश्किल स्थिति जाहिर रूप से भाजपा की ही बनी। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की इस घटना के बाद अतिरिक्त सक्रियता और कुछ घंटे के अंदर ही मीडिया के सामने यह कह देना कि पेशे से शिक्षिका रूपम पाठक द्वारा विधायक पर यौन उत्पीड़न के आरोप गंभीर नहीं हैं। इस आरोप को लेकर न तो कोई मामला लंबित है और न ही किसी स्तर पर कोई लिखायत शिकायत दर्ज है। केसरी जनप्रिय नेता थे और भाजपा के साथ उनका साथ पुराना और विश्वसनीय है। किसी सूबे की सरकार में वरीयता में दूसरे नंबर की जवाबदेही संभाल रहे नेता का इस तरह का बयान कम से कम एक तटस्थ प्रतिक्रिया तो नहीं ही ठहराई जा सकती।
जदयू-भाजपा गठबंधन को सूबे की जनता ने जब शासन के लिए दोबारा चुना तो उसके पीछे एक बड़ी आशा राज्य में सुशासन की स्थापना भी थी। बेशक निजी रूप से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सत्ता में रहते हुए अपने बयान और क्रियाकलाप में अपेक्षित रूप से कम विवादास्पद रहे हैं। लेकिन विधायक हत्या मामले में सरकार और उसमें शामिल एक दल की छवि दांव पर लगी है। न्याय की यह सार्वदेशिक और सार्वकालिक मर्यादा है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है कि न्याय होते हुए भी दिखे। इस मामले में कम से कम अब तक के घटनाक्रम में तो यह न्याय की यह मर्यादा पूरी होती नहीं दिखती।
एक सरकार की छवि और उसके लोगों की छवि और सुरक्षा अगर बहुत मायने रखती है तो यह कहीं से सिद्ध नहीं होता कि यह सब नागरिक सुरक्षा और खासकर एक महिला की छवि को बगैर किसी पुष्ट आधार के दाव पर लगाकर ही पूरा हो। वैसे भी जनतांत्रिक मर्यादा किसी सरकार और उसके हिस्से-पुर्जों को जनता के प्रति ही अंतिम रूप से उत्तरदायी ठहराती है। लिहाजा, केसरी हत्याकांड की जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक सरकारी पक्ष तटस्थ मर्यादा का सख्ती से पालन करे, यह चुनौती भी है और यही अपेक्षित भी। जिस तरह यह हत्या हुई, उसमें कम से कम पहली नजर में तो यह लगता ही है कि इसके पीछे की वजह मामूली तो कम से कम नहीं होगी। जिस महिला ने कानून हाथ में लेकर यह अतिरेक कदम उठाया, उसकी अब और पहले कही गई बातों पर बगैर किसी पुख्ता पड़ताल के कोई अंतिम राय बनाने का कोई कारण नहीं। और यह भी कि एक विधायक की सुरक्षा कम से कम इतनी कमजोर तो नहीं ही होनी चाहिए जैसा कि इस मामले में दिखा।
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