2006 में शुरू हुआ जयपुर लिटरेचर फेस्टिबल अब देश के सालाना टूरिज्म कैलेंडर का बड़ा इवेंट है। इसने पूरे दक्षिण एशिया में अपनी ब्रांडिंग साख बना ली है। पर जहां तक सवाल ऐसे आयोजनों और उनमें जताई जाने वाली चिंताओं का है, तो इस पर अंतिम राय बनाना सहज नहीं है। महज कुछ दशक पहले तक जिस भाषा की शिनाख्त लोक और परंपरा की वाहक भाषा और कई दर्जन बोलियों को एक साथ बहा ले चलने वाली सांस्कृतिक धारा के रूप में होती थी, आज उस हिंदी के माथे पर देशज आंचलिकता की बजाय बाजार की बिंदी सजे, यह सोच प्रकारांतर से हर स्तर पर कायम हो रही है। यह तो तय है कि समय निरपेक्ष होकर आप न तो किसी संस्कृति के और न ही उसके अभिव्यक्ति के जरियों का विकास सुनिश्चत कर सकते हैं। पर क्या यह मान लिया जाए कि हम आज सचमुच उस दौर पहुंच गए हैं जिसमें विकास और समृद्धि का एकमात्र विकल्प बाजार और उससे होकर गुजरने वाले रास्ते हैं। मार्केटिंग और ब्रांडिंग की दरकार किसी तेल-साबुन को बेचने के लिए जिस तरह होती है, क्या वही जरूरत एक भाषा की भी हो सकती है। सवाल का जवाब हां और ना दोनों हो सकता है। वैसे ज्यादा जरूरी है उन स्थितियों का आकलन जो ऐसे सवालों से दो-चार होने की नौबत लाती हैं।
जिस भाषा को यह फख्र हासिल हो कि उसने साम्राज्यवादी दासता के खिलाफ संघर्ष की चेतना का प्रसार ऐतिहासिक रूप से किया और वह अपनी सांस्कृतिक जड़ों से लगातार जुड़ी रही, उसका भविष्य अचानक अंधकारमय कैसे हो सकता है? शायद जिस संकट की दुहाई दी जा रही है, वह हिंदी की नहीं बल्कि उन पेशेवरों की है, जो इस भाषा को रातोंरात हॉट औरसेलेबल बनाने की फिराक में हैं। पेशेवर दरकारों के मुताबिक भाषा का रुपांतरण गलत नहीं है। खास तौर पर उनके लिए तो और भी नहीं जो भाषा की कीमत इसी नजरिए से तय करते हैं। लेकिन यह भी साफ है कि भाषा को पेशेवर और बाजारोनुकूल होने की बजाय उसका जीवन से भरा होना ज्यादा जरूरी है। हिंदी के पास आज भी जिन्दगी और जिन्दादिली की कमी नहीं, वह लोक, परंपरा और परिवार को एक सीध में लेकर चलने वाली अकेली और सबसे अनूठी भाषा है। फेस्टिव मूड में अगर यह अन्यतमता किसी को नहीं दिखती, तो दोष हिंदी का नहीं उसके शुभचिंतकों का है।
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