विपक्ष को अपने मौजूदा प्रधानमंत्री से अन्य शिकायतों के साथ एक बड़ा शिकायतयह है कि वे मुखर नहीं हैं। पिछले दिनों अपनी खामोशी पर मनमोहन सिंह ने एक शायराना जवाब भी दिया था। प्रधानमंत्री चूंकि बोलते ही बहुत कम हैं इसलिए जब वे कुछ कहते भी हैं तो लोग उसके निहितार्थ को बहुत दूर तक या तह तक जाकर समझने की कोशिश करते हैं। आमतौर पर ऐसी स्थिति में कई बातें सामने आ जाती हैं और फिर उस पर बाजाप्ता बहस छिड़ जाती है।
ऐसा ही एक मौका बीते दिनों आया, जब मनमोहन सिंह ने मीडिया को उसके दायित्वों और चुनौतियों की याद दिलाई। मौका था केरल श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वर्ण जयंती समारोह के शुभारंभ का। आज सरकार जिस स्थिति में चल रही है और वह खुद जिस तरह की आलोचनाओं से घिरी है, उसमें उसके मुखिया द्वारा अकेले मीडिया को संयम और समन्वय का पाठ पढ़ाना गले के नीचे नहीं उतरता। ऐसा इसलिए नहीं कि भारतीय मीडिया को अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है और वह अपने को सुधारों से ऊपर मानता है, बल्कि इसलिए क्योंकि जब प्रधानमंत्री उसे 'सनसनीखेज' बनने से बचने की सलाह देते हैं तो लगे हाथ वे अपनी पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को जबानी संयम का सबक याद कराना भूल जाते हैं।
अन्ना आंदोलन से लेकर असम हिंसा और कार्टूनों पर लंबे चले विवाद तक कई ऐसे मौके आए जब यह संयम अनजाने नहीं बल्कि जानबूझकर तोड़ा गया। वैसे इस मामले में कांग्रेस पार्टी पर अकेला दोष मढ़ना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि आज हम कटुता और असंवेदनशीलता के सामाजिक-राजनीतिक दौर में जी रहे हैं। मीडिया के आईने में जो जैसा है, उसकी वैसी ही छवि दिखती है। यह अलग बात है कि लोग अपनी विद्रूपता को छोड़ दूसरों के दोषों को गिनाने में दिलचस्पी ज्यादा लेते हैं। आलम तो यह है कि संवैधानिक संस्थाएं ही एक-दूसरे की छवि म्लान कर रही हैं।
जहां तक बात है असम समस्या की -जिसका हवाला खासतौर पर प्रधानमंत्री ने दिया है- तो मीडिया में वहां की खबरों को लेकर शुरुआती तथ्यात्मक त्रुटियां जरूर रहीं, पर उसे बगैर और समय गंवाए सुधार भी लिया गया। बल्कि मीडिया को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस समस्या की गंभीरता को समझा और इसे राष्ट्रीय चिंता से जोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। रही बात सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाहों और भ्रामक प्रचारों की तो, यह नाकामी सरकार और उसकी एजेंसियों की रही, जिसे इस बारे में समय से पता ही नहीं चला।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री उपदेश का उल्लू अगर सिर्फ मीडिया का नाम लेकर सीधा करना चाहते हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। उलटे उनकी ही सोच और विवेक पर दस सवाल और खड़े हो जाएंगे।
ऐसा ही एक मौका बीते दिनों आया, जब मनमोहन सिंह ने मीडिया को उसके दायित्वों और चुनौतियों की याद दिलाई। मौका था केरल श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वर्ण जयंती समारोह के शुभारंभ का। आज सरकार जिस स्थिति में चल रही है और वह खुद जिस तरह की आलोचनाओं से घिरी है, उसमें उसके मुखिया द्वारा अकेले मीडिया को संयम और समन्वय का पाठ पढ़ाना गले के नीचे नहीं उतरता। ऐसा इसलिए नहीं कि भारतीय मीडिया को अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है और वह अपने को सुधारों से ऊपर मानता है, बल्कि इसलिए क्योंकि जब प्रधानमंत्री उसे 'सनसनीखेज' बनने से बचने की सलाह देते हैं तो लगे हाथ वे अपनी पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को जबानी संयम का सबक याद कराना भूल जाते हैं।
अन्ना आंदोलन से लेकर असम हिंसा और कार्टूनों पर लंबे चले विवाद तक कई ऐसे मौके आए जब यह संयम अनजाने नहीं बल्कि जानबूझकर तोड़ा गया। वैसे इस मामले में कांग्रेस पार्टी पर अकेला दोष मढ़ना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि आज हम कटुता और असंवेदनशीलता के सामाजिक-राजनीतिक दौर में जी रहे हैं। मीडिया के आईने में जो जैसा है, उसकी वैसी ही छवि दिखती है। यह अलग बात है कि लोग अपनी विद्रूपता को छोड़ दूसरों के दोषों को गिनाने में दिलचस्पी ज्यादा लेते हैं। आलम तो यह है कि संवैधानिक संस्थाएं ही एक-दूसरे की छवि म्लान कर रही हैं।
जहां तक बात है असम समस्या की -जिसका हवाला खासतौर पर प्रधानमंत्री ने दिया है- तो मीडिया में वहां की खबरों को लेकर शुरुआती तथ्यात्मक त्रुटियां जरूर रहीं, पर उसे बगैर और समय गंवाए सुधार भी लिया गया। बल्कि मीडिया को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस समस्या की गंभीरता को समझा और इसे राष्ट्रीय चिंता से जोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। रही बात सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाहों और भ्रामक प्रचारों की तो, यह नाकामी सरकार और उसकी एजेंसियों की रही, जिसे इस बारे में समय से पता ही नहीं चला।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री उपदेश का उल्लू अगर सिर्फ मीडिया का नाम लेकर सीधा करना चाहते हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। उलटे उनकी ही सोच और विवेक पर दस सवाल और खड़े हो जाएंगे।
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