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रविवार, 4 नवंबर 2012

एक भट्टी का शांत हो जाना


मौजूदा दौर की एकिक और सामूहिक मानवीय प्रवृतियों पर गौर करें तो कहना पड़ेगा कि यह दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का है। साझे के इस मांझे में ही निजी से लेकर सार्वजनिक जिंदगी उलझी हुई है। सुलझाव की कोशिशें इतनी सतही और बेइमान हैं कि उलझन में और नई गांठ ही पड़ती जा रही हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य-व्यंग्य की चुटीलता भोंडेपन में तब्दील हो रही है।
ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो थी ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे।
जसपाल भट्टी ने पढ़ाई तो इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से ही थी, जो बाद में और प्रखर हुई। भट्टी का हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से लैश था और उनकी चिंता के केंद्र में आम आदमी हमेशा रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल खड़े किए।
नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक कार्टूनिस्ट के तौर पर हुआ। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी 'द ट्रिब्यून' अखबार के लिए कार्टून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और कार्टून और व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोल रहे लोग शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे।
जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों, टेलीविजन सीरियलों और फिल्मों में उठाते थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक जरूर किया पर खुद भट्टी कभी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही यह उन लोगें के आगे एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही अपनी जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि भट्टी का वयक्तित्व पंजाबियत की रंग में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी यह पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी तरफ खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए।

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

बुद्ध के खिलाफ युद्ध...!

एक दशक पूर्व जब अफागानिस्तान में तालिबानियों ने बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को नष्ट कर अपनी बर्बरता दिखाई थी तब इसकी चौतरफा आलोचना हुई थी। यहां तक कि इस्लाम के नाम पर आतंकी गतिविधियां चलाने वाले समूहों में भी इस कार्रवाई को लेकर मतभेद उभरे थे। एक दशक बाद एक बार फिर पूरी दुनिया में धार्मिक असंवेदनशीलता का एक नया दौर शुरू हुआ है। पैगंबर मोहम्मद की कथित आलोचना वाली अमेरिकी फिल्म 'इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम्स' के खिलाफ पूरी दुनिया में प्रतिरोध में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। आगजनी हो रही है। खून-खराबे हो रहे हैं। प्रतिरोध के ये स्वर संयुक्त राष्ट्र तक गूंजे। अमेरिकी राष्ट्रपति ने इस मुद्दे पर जहां अपनी सफाई रखी, वहीं यह कहकर मामले को एक तरह से तूल भी दे दी कि किसी धर्म विशेष की निंदा-आलोचना पर मुखर होने वालों को बाकी धर्मों के प्रति भी समान नजरिया अपनाना चाहिए। यह एक भड़काने वाला बयान भले न सही पर इससे अमेरिकी फिल्म से दुनिया भर में भड़के आक्रोश को और बढ़ाया ही।
वैसे धर्म के नाम पर होने वाले प्रतिरोध की दलीलों और वजहों को तो फिर भी समझा जा सकता है। आखिर धार्मिकआस्था एक संवेदनशील मुद्दा है और किसी को भी जानबूझकर इसे भड़काने की छूट नहीं मिलनी चाहिए। पर अफसोसनाक यह है कि प्रतिरोध की इस आड़ में लूटमार और हिंसा की बड़ी घटनाएं भी होती हैं।  दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि अकसर ऐसे मौकों पर समाज के कुछ अराजक तत्व सक्रिय हो जाते हैं और वे शांति और सौहार्द का माहौल बिगाड़ने लगते हैं।
बांग्लादेश में जो घटना घटी उसमें कथित तौर पर एक बौद्ध धर्मावलंबी ने अपने फेसबुक एकाउंट में पवित्र कुरानशरीफ की जली प्रति की तस्वीर पोस्ट कर दी थी। हालांकि ऐसा करने वाले ने इसे जानबूझकर किया गया कृत्य न मानकर एक चूक बताया है। बावजूद इसके वहां की बहुसंख्यक आबादी इस बात पर भड़क उठी। आधी रात के बाद वहां हजारों लोग इस कृत्य के विरोध में प्रदर्शन करने लगे। इस दौरान ही कुछ अराजक मानसिकता के लोगों ने वहां कम से कम 11 बौद्ध मंदिरों को जला डाला। इस घटना ने बामियान की एक दशक पुरानी घटना की याद ताजा कर दी है।
अभी पिछले साल ही खबर आई थी कि जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर और उनके कुछ साथी शोधार्थियों ने बामियान में बुद्ध की मूर्तियों को पुनस्र्थापित करने की पहल शुरू की है। ये लोग शांति का संदेश देने वाली इन ऐतिहासिक प्रतिमाओं का महत्व इस रूप में देख रहे थे कि इनकी उपस्थिति से विश्व मानवता का प्रेम और सौहार्द का संकल्प मजबूत होता है।
दिलचस्प है कि पूरी दुनिया में जहां-जहां भी बौद्ध धर्मावलंबी हैं, उनका नाम शायद ही कभी धार्मिक टकराव की किसी घटना में आया हो। जिस बांग्लादेश में बौद्ध मंदिरों को जलाया गया, वहां तो उनकी बमुश्किल एक फीसद आबादी है। इससे पूर्व वहां कभी धार्मिक हिंसा की खबर आई भी है तो वह बहुसंख्यक मुस्लिमों और अल्पसंख्यक हिंदुओं के कारण। बौद्धों के प्रति किसी दूसरे मजहब के लोगों के आक्रोशित होने की ऐसी खबर अब तक  दुनिया के किसी हिस्से से आई संभवत: पहली खबर है। साफ है कि धार्मिक असहिष्णुता का पागलपन अगर हम नहीं रोक पाते हैं तो इसका अनिष्ट भविष्य में और भी बड़ा हो सकता है। 

रविवार, 30 सितंबर 2012

महात्मा @ कुलकर्णी

रंग-बिरंगे मुखौटों का अट्टाहास
गूंज रहा है मैलोड्रामा के बीच
नस्ल की रोशनाई
फौलाद को गुस्ताख कहने वाली सोच की शमशीर
 कहीं भी लिख देती है लाल लथपथ गाथा
पर अजन्मी रह जाती है हर बार
आखिरी आदमी की पहली पुकार
महात्मा फिर एक बार
...


सुधींद्र कुलकर्णी महज एक भाजपा कार्यकर्ता भर नहीं हैं। उनकी पहचान पार्टी की विचारधारा और रणनीति बनाने वाले की रही है। यह भूमिका वह पिछले कई सालों से निभा रहे हैं। एनडीए सरकार के दौरान उनकी यह भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई थी। पिछली बार उनका नाम तब जोर-शोर से सामने आया था, जब 'वोट फॉर नोट' मामले का पर्दाफाश हुआ। तुलनात्मक दृष्टि से चीजों को देखने-परखने वाले उन्हें भाजपा का सैम पैत्रोदा तक कहते हैं। यह तुलना सही हो या नहीं, इतना जरूर है कि भाजपा शिविर में वैचारिक-बौद्धिक प्रखरता का बहुत बड़ा दारोमदार उन पर है और वे इस प्रखरता को अपनी तरह से बनाए-बचाए हुए भी हैं।
उनकी इसी प्रखर सक्रियता की मिसाल है, उनकी नई अंग्रेजी किताब- 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग व्हील'। इस किताब में कुलकर्णी ने इंटरनेट की भूमिका और प्रसार का गांधीवादी प्रतिमानों पर रोचक आलोचना की है। आईडिया के लिहाज से यह प्रयास बेजोड़ है। निश्चित रूप से इससे इंटरनेट को सामने रखकर एक नवीन सभ्यता विमर्श को शुरू करने में मदद मिलेगी। बात गांधी और सभ्यता विमर्श की हो रही है, तो यह जिक्र भी जरूरी है कि गांधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' को उनकी 'मूल विचार सारिणी' कहा जाता है। एक सदी पूर्व इस पुस्तक को 'सभ्यता विमर्श' की अहिंसक कसौटी के रूप में देखा गया था, तो आज इसे बजाप्ता 'नव सभ्यता विमर्श' के रूप में प्रासंगिकता के साथ देखा-समझा जा रहा है।
इस सिलसिले में वरिष्ठ लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल की हाल में आई पुस्तक 'हिंद स्वराज : नव सभ्यता विमर्श' का उल्लेख जरूरी है। दिलचस्प है कि 'हिंद स्वराज' में जहां अहिंसक स्वाबलंबन और विकेंद्रीकरण को शांति और विकास का रास्ता बताया गया है, वहीं भारी मशीन और मानव श्रम की अस्मिता को खंडित करने वाले केंद्रित उपक्रमों को खतरनाक ठहराया गया है। कुलकर्णी ने इंटरनेट को गांधीवादी मू्ल्यों पर न सिर्फ खरा पाया है, बल्कि इसे गांधी के 'आधुनिक चरखे' का नाम तक दिया है। इंटरनेट को लेकर यह निष्कर्ष दिलचस्प भले हो पर जल्दबाजी और असावधानी में निकाला गया नतीजा है।
इंटरनेट बाजारवादी दौर की तो देन है ही बाजार के पराक्रम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख अस्त्र भी रहा है। आम आदमी के जीवन में महत्व और 'न्यू मीडिया' जैसी संभावनाओं को अगर इंटरनेट क्रांति का कल्याणकारी हासिल मान भी लें तो भी इसे अहिंसक कसौटी पर कबूल कर पाना मुश्किल है। गांधी के 'सत्याग्रह' का 'विग्रह' महज एक सदी बीतते-बीतते कम से कम इस धरातल पर तो नहीं हो सकता कि समय के साथ गांधीवादी मूल्यों में जोड़-तोड़ और सुधार संभव हैं। 

रविवार, 16 सितंबर 2012

मीडिया पर मनमोहन उपदेश

विपक्ष को अपने मौजूदा प्रधानमंत्री से अन्य शिकायतों के साथ एक बड़ा शिकायतयह है कि वे मुखर नहीं हैं। पिछले दिनों अपनी खामोशी पर मनमोहन  सिंह ने एक शायराना जवाब भी दिया था। प्रधानमंत्री चूंकि बोलते ही बहुत कम हैं इसलिए जब वे कुछ कहते भी हैं तो लोग उसके निहितार्थ को बहुत दूर तक या तह तक जाकर समझने की कोशिश करते हैं। आमतौर पर ऐसी स्थिति में कई बातें सामने आ जाती हैं और फिर उस पर बाजाप्ता बहस छिड़ जाती है।
ऐसा ही एक मौका बीते दिनों आया, जब मनमोहन सिंह ने मीडिया को उसके दायित्वों और चुनौतियों की याद दिलाई। मौका था केरल श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वर्ण जयंती समारोह के शुभारंभ का। आज सरकार जिस स्थिति में चल रही है और वह खुद जिस तरह की आलोचनाओं से घिरी है, उसमें उसके मुखिया द्वारा अकेले मीडिया को संयम और समन्वय का पाठ पढ़ाना गले के नीचे नहीं उतरता। ऐसा इसलिए नहीं कि भारतीय मीडिया को अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है और वह अपने को सुधारों से ऊपर मानता है, बल्कि इसलिए क्योंकि जब प्रधानमंत्री उसे 'सनसनीखेज' बनने से बचने की सलाह देते हैं तो लगे हाथ वे अपनी पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को जबानी संयम का सबक याद कराना भूल जाते हैं।
अन्ना आंदोलन से लेकर असम हिंसा और कार्टूनों पर लंबे चले विवाद तक कई ऐसे मौके आए जब यह संयम अनजाने नहीं बल्कि जानबूझकर तोड़ा गया। वैसे इस मामले में कांग्रेस पार्टी पर अकेला दोष मढ़ना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि आज हम कटुता और असंवेदनशीलता के सामाजिक-राजनीतिक दौर में जी रहे हैं। मीडिया के आईने में जो जैसा है, उसकी वैसी ही छवि दिखती है। यह अलग बात है कि लोग अपनी विद्रूपता को छोड़ दूसरों के दोषों को गिनाने में दिलचस्पी ज्यादा लेते हैं। आलम तो यह है कि संवैधानिक संस्थाएं ही एक-दूसरे की छवि म्लान कर रही हैं।
जहां तक बात है असम समस्या की -जिसका हवाला खासतौर पर प्रधानमंत्री ने दिया है- तो मीडिया में वहां की खबरों को लेकर शुरुआती तथ्यात्मक त्रुटियां जरूर रहीं, पर उसे बगैर और समय गंवाए सुधार भी लिया गया। बल्कि मीडिया को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस समस्या की गंभीरता को समझा और इसे राष्ट्रीय चिंता से जोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। रही बात सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाहों और भ्रामक प्रचारों की तो, यह नाकामी सरकार और उसकी एजेंसियों की रही, जिसे इस बारे में समय से पता ही नहीं चला।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री उपदेश का उल्लू अगर सिर्फ मीडिया का नाम लेकर सीधा करना चाहते हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। उलटे उनकी ही सोच और विवेक पर दस सवाल और खड़े हो जाएंगे। 

रविवार, 9 सितंबर 2012

सोशल मीडिया को अराजक कहने से पहले

सरकार ने एकाधिक मौकों पर यह चिंता जाहिर की है कि सोशल मीडिया का अराजक इस्तेमाल खतरनाक है और इस पर निश्चित रूप से रोक लगनी चाहिए। हाल में असम हिंसा में अफवाह और भ्रामक सूचना फैलाने के पीछे भी बड़ा हाथ सोशल मीडिया का रहा है, यह बात अब विभिन्न स्तरों पर पड़ताल के बाद सामने आई है। इसी तरह का एक दूसरा मामला है, जिसमें पता चला कि लोग पीएमओ के नाम पर ट्वीटर पर फेक एकाउंट खोलकर लोगों में भ्रम फैला रहे हैं। इससे पहले सरकार ने शीर्षस्थ नेताओं को लेकर आपत्तिजनक गुस्से को लेकर इस तरह की साइट चलाने वाले फर्मों को नोटिस तक थमाया था। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सोशल मीडिया पर सरकार की नीति और कार्यक्रमों पर टिप्पणी की तल्खी अब बढ़ती जा रही है। इसका फायदा अन्ना आंदोलन को भी मिला। आंदोलन की रणनीति बनाने वालों ने लोगों को सड़क पर उतारने के लिए एसएमएस के अलावा सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया। 
बहरहाल, सरकार एक बार फिर जहां साइट प्रबंधनों को इस बाबत चेताने की सोच रही है, वहीं वह अपने उन तामम विभागों को जो सोशल साइटों का किसी भी रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें ताकीद किया है कि वे इन पर गोपनीय व अपुष्ट तथ्य न डालें। सवाल यह है कि क्या साइबर क्रांति की देन अभिव्यक्ति की इस नई स्वतंत्रता के खतरे क्या आज सचमुच इतने बढ़ गए हैं कि बार-बार उस पर नकेल कसने की बात उठने लगी है।
दरअसल, सोशल मीडिया के स्वरूप और विस्तार को लेकर पिछले कुछ सालों में कई स्तरों पर बहस चल रही है। एक तरफ अरब मुल्कों का अनुभव है, जहां आए बदलाव के 'वसंत' का यह एक तरह से सूत्रधार रहा तो वहीं अमेरिका की इराक, ईरान और अफगानिस्तान को लेकर विवादास्पद नीतियों पर तथ्यपूर्ण तार्किक अभियान पिछले करीब एक दशक से 'न्यू मीडिया' के हस्तक्षेप को रेखांकित कर रहा है। इसके अलावा मानवाधिकार हनन से लेकर पर्यावरण सुरक्षा तक कई मुहिम पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति के इस ई-अवतार के जरिए चलाई जा रही है। ऐसे में यह एकल और अंतिम राय भी नहीं बनाई जा सकती कि सोशल नेटवर्किंग साइटों का महज दुरुपयोग ही हो रहा है।
समाज और सोच की विविधता का अंतर और असर सिनेमा से लेकर साहित्य तक हर जगह दिखता है। यही बात सोशल मीडिया को लेकर भी कही जा सकती है। फिर जिस रूप में भूगोल और सरहद की तमाम सीमाएं लांघकर इसका विकास और विस्तार हो रहा है, उसमें इसके कानूनी दायरे को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर पाना भी किसी देश के अकेले बूते की बात नहीं है। कोशिश यह होनी चाहिए की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस बड़े जरिए को लेकर दुनिया के तमाम देश मिलकर एक साथ मिल-बैठकर कोई राय बनाएं। यहां यह भी गौरतलब है कि अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा आज एक तरफ अत्यंत मुखरता के कारण चर्चा में है तो वहीं जन-अभिव्यक्ति और जनपक्षधरता की अभिव्यक्ति की गर्दन पर फांस चढ़ाने की कोशिश दुनिया की कई लोकप्रिय सरकारें कर रही हैं। ऐसे में नियम-कायदों की कमान थामने वालों को भी अपने चरित्र से कहीं न कहीं यह दिखाना होगा कि अपनी जनता के बीच उतना इकबाल इतना भी कमजोर नहीं कि उसे कुछ क्लिक और कुछ पोस्ट डिगा दें।   

रविवार, 19 अगस्त 2012

कहां खो गए एक लाख बच्चे...!

अगर देश में महज दो सालों के भीतर एक लाख से ज्यादा बच्चे लापता हुए हैं, तो यह सचमुच एक बड़े खतरे का संकेत है। बच्चों को लेकर परिवार और समाज में बढ़ी असंवेदनशीलता का यह एक क्रूर पक्ष है। भूले नहीं होंगे लोग कि देश में 42 फीसद बच्चों के कुपोषित होने की सचाई का खुलासा करने वाली 'हंगामा' रपट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सार्वजनिक तौर पर अपनी शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी। तब उन्होंने कहा भी था कि अगर बच्चों को इस हाल में छोड़कर सफलता और संपन्नता के सोपान चढ़ रहे हैं तो यह विकास इकहरा ही होगा। विकास को सर्व-समावेशी बनाने की दरकार चर्चा और बहस में तो खूब कबूली गई पर इसे लोकर ठोस कार्यनीति बनाने की बात अब भी बाकी है। 
'हंगामा' की तरह ही तरह प्रथम संस्था द्वारा जारी 'असर' रपट से यह सचाई सामने आई कि कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन की दर तो बढ़ गई पर उनकी नियमित शिक्षा में यही बढ़त कहीं से भी जाहिर नहीं होती है। साफ है कि बच्चों को लेकर लापरवाही न सिर्फ सरकारी नजरिए में है बल्कि सरकारी योजनाएं भी ऐसी कमियों से बचे नहीं हैं। इन कमियों के रहते वह सूरत तो कहीं से बदलने नहीं जा रही, जो राष्ट्रीय शर्मिंदगी जैसी स्थिति के आगे देश को खड़ी करती हैं।
बच्चों के लापाता होने के आंकड़े भी देश को शर्मसार करने वाले हैं। बाल गुमशुदगी के सामने आए आंकड़ों का स्रोत कोई गैरसरकारी एजेंसी नहीं बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय है। मंत्रालय के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक 2008-2010 के बीच देश के 392 जिलों से एक लाख 17 हजार 480 बच्चे लापता हुए हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें मानव तस्कर गिरोह ने शिकार बनाया है। यह गिरोह या तो बच्चों से बंधुआ मजदूरी करवाता है या फिर उन्हें जिस्मफरोसी के दलदल में उतार देता है। यही नहीं सीमावर्ती जिलों में जिस तरह बच्चों के लापता होने की घटनाएं बढ़ी हैं, वह बच्चों के साथ ही हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।
हमारे यहां ऐसी कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं है, जो मानव तस्कर गिरोहों के देश और देश के बाहर घने होते जाल को लेकर अलग से सूचनाएं एकत्रित करे और इन पर लगाम कसने के लिए अभियान चलाए। नतीजतन जो बच्चे लापता हुए हैं, उनका कोई एकत्रित डाटाबेस तक अब तक तैयार नहीं हो पाया है, जिनसे उन्हें ढूंढ़ने की कोशिशों को स्थानीय स्तर से आगे बढ़ाने में तमाम तकनीकी व कानूनी बाधाएं सामने आती हैं। सरकारी स्तर पर ऐसे सुझाव जरूर विचाराधीन हैं कि बाल अपराध से जुड़े हर तरह आकड़ों को कंप्यूटर-डाटाबेस में बदला जाए और डीएनए प्रोफाइल तैयार हो। खासतौर पर गुमशुदा बच्चों की छानबीन के लिए एक समन्वित केंद्रीय एजेंसी बनाई जाए। पर ये सुझाव अमल में कब आएंगे, इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

ओबामा का श्याम-श्वेत


अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में सौ से भी कम दिन रह गए हैं। जो हालिया सर्वे वहां हुए हैं, उसमें बराक ओबामा अपने प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी पर बढ़त बनाए हुए हैं। आज की तारीख में अमेरिका में अन्य किसी मुद्दे से बड़ा मुद्दा है आर्थिक संकट। तकरीबन 36 फीसद अमेरिकियों को भरोसा है कि ओबामा में ही वह दमखम और विवेक है, जिससे इस चुनौती से निपट सकता है। वैसे इस चुनाव को हार-जीत से अलग कुछ अन्य संवेदनशील मुद्दों की रोशनी में भी देखा जाना चाहिए। दिलचस्प है कि ओबामा भले अपने नेतृत्व की सर्व-स्वीकार्यता के लिए शुरू से सजग रहे हों पर अब भी अमेरिका सहित बाकी दुनिया में उनकी एक बड़ी छवि अश्वेत राजनेता की भी है। जब पहली बार वह राष्ट्रपति बने तो उनकी जीत को अमेरिकी समाज के उस लोकतांत्रिक खुलेपन के रूप में भी देखा गया, जिसमें एक अश्वेत भी व्हाइट हाउस में दाखिल हो सकता है। कुछ लोगों की यह शिकायत है कि ओबामा ने अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ खास नहीं किया, जिससे अमेरिकी समाज में अब भी विभिन्न मौकों और सलूकों में जाहिर होने वाली नस्लवादी मानसिकता को बदला जा सके।
हाल का ही एक मामला है, जिसमें वहां एक चर्च के पादरी ने एक अश्वेत जोड़े का विवाह कराने से मना कर दिया। यह जोड़ा मिसीसिपी के क्रिस्टल स्प्रिंग्स में फस्र्ट बैपटिस्टि चर्च में जाता रहा था लेकिन श्वेतों की प्रधानता वाले इस चर्च ने दबाव में आकर शादी की तय तारीख से एक दिन पूर्व अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर दिया। दलील यह दी गई कि 1883 में स्थापित होने के बाद से इस चर्च में आज तक किसी अश्वेत जोड़े की शादी नहीं कराई गई है। पादरी स्टैन वीदरफोर्ड ने कहा कि चर्च के कुछ सदस्यों ने पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़ने के प्रति सख्त एतराज जताया। इन लोगों ने पादरी को धमकाया कि अगर उसने परंपरा भंजन का दुस्साहस किया तो उसे पादरी पद से हटाया तक जा सकता है।
देखने में यह भले एक आपवादिक मामला लगे पर अमेरिकी समाज की वास्तविकता इससे बखूबी उजागर होती है। श्वेत-अश्वेत का मुद्दा अब भी वहां विवाह जैसे फैसलों को प्रभावित करते हैं। वहां की कुल आबादी में अश्वेतों की गिनती 13 फीसद है। ओबामा की 2008 की जीत में इस आबादी के 96 फीसद वोट ने बड़ी भूमिका निभाई थी। अब जबकि  ओबामा ने मुख्यधारा की या यों कहें कि कथित नए और खुले अमेरिकी समाज की नुमाइंदगी के नाम पर समलैंगिक संबंधों तक पर अपनी पक्षधरता जाहिर करने में हिचक नहीं दिखाई है तो उनका अश्वेत वोट बैंक इससे काफी खफा है। पर वहां की अश्वेत आबादी के पास इस संतोष और फख्र का कोई विकल्प नहीं है कि वह एक अश्वेत की जगह किसी दूसरे को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाए। अमेरिकी अश्वेत समाज का यह धर्मसंकट बराक ओबामा के दोबारा राष्ट्रपति बनने की राह को और आसान बना सकता है।