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रविवार, 30 सितंबर 2012

महात्मा @ कुलकर्णी

रंग-बिरंगे मुखौटों का अट्टाहास
गूंज रहा है मैलोड्रामा के बीच
नस्ल की रोशनाई
फौलाद को गुस्ताख कहने वाली सोच की शमशीर
 कहीं भी लिख देती है लाल लथपथ गाथा
पर अजन्मी रह जाती है हर बार
आखिरी आदमी की पहली पुकार
महात्मा फिर एक बार
...


सुधींद्र कुलकर्णी महज एक भाजपा कार्यकर्ता भर नहीं हैं। उनकी पहचान पार्टी की विचारधारा और रणनीति बनाने वाले की रही है। यह भूमिका वह पिछले कई सालों से निभा रहे हैं। एनडीए सरकार के दौरान उनकी यह भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई थी। पिछली बार उनका नाम तब जोर-शोर से सामने आया था, जब 'वोट फॉर नोट' मामले का पर्दाफाश हुआ। तुलनात्मक दृष्टि से चीजों को देखने-परखने वाले उन्हें भाजपा का सैम पैत्रोदा तक कहते हैं। यह तुलना सही हो या नहीं, इतना जरूर है कि भाजपा शिविर में वैचारिक-बौद्धिक प्रखरता का बहुत बड़ा दारोमदार उन पर है और वे इस प्रखरता को अपनी तरह से बनाए-बचाए हुए भी हैं।
उनकी इसी प्रखर सक्रियता की मिसाल है, उनकी नई अंग्रेजी किताब- 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग व्हील'। इस किताब में कुलकर्णी ने इंटरनेट की भूमिका और प्रसार का गांधीवादी प्रतिमानों पर रोचक आलोचना की है। आईडिया के लिहाज से यह प्रयास बेजोड़ है। निश्चित रूप से इससे इंटरनेट को सामने रखकर एक नवीन सभ्यता विमर्श को शुरू करने में मदद मिलेगी। बात गांधी और सभ्यता विमर्श की हो रही है, तो यह जिक्र भी जरूरी है कि गांधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' को उनकी 'मूल विचार सारिणी' कहा जाता है। एक सदी पूर्व इस पुस्तक को 'सभ्यता विमर्श' की अहिंसक कसौटी के रूप में देखा गया था, तो आज इसे बजाप्ता 'नव सभ्यता विमर्श' के रूप में प्रासंगिकता के साथ देखा-समझा जा रहा है।
इस सिलसिले में वरिष्ठ लेखक वीरेंद्र कुमार बरनवाल की हाल में आई पुस्तक 'हिंद स्वराज : नव सभ्यता विमर्श' का उल्लेख जरूरी है। दिलचस्प है कि 'हिंद स्वराज' में जहां अहिंसक स्वाबलंबन और विकेंद्रीकरण को शांति और विकास का रास्ता बताया गया है, वहीं भारी मशीन और मानव श्रम की अस्मिता को खंडित करने वाले केंद्रित उपक्रमों को खतरनाक ठहराया गया है। कुलकर्णी ने इंटरनेट को गांधीवादी मू्ल्यों पर न सिर्फ खरा पाया है, बल्कि इसे गांधी के 'आधुनिक चरखे' का नाम तक दिया है। इंटरनेट को लेकर यह निष्कर्ष दिलचस्प भले हो पर जल्दबाजी और असावधानी में निकाला गया नतीजा है।
इंटरनेट बाजारवादी दौर की तो देन है ही बाजार के पराक्रम को बढ़ाने वाला एक प्रमुख अस्त्र भी रहा है। आम आदमी के जीवन में महत्व और 'न्यू मीडिया' जैसी संभावनाओं को अगर इंटरनेट क्रांति का कल्याणकारी हासिल मान भी लें तो भी इसे अहिंसक कसौटी पर कबूल कर पाना मुश्किल है। गांधी के 'सत्याग्रह' का 'विग्रह' महज एक सदी बीतते-बीतते कम से कम इस धरातल पर तो नहीं हो सकता कि समय के साथ गांधीवादी मूल्यों में जोड़-तोड़ और सुधार संभव हैं। 

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