मौजूदा दौर की एकिक और सामूहिक मानवीय प्रवृतियों पर गौर करें तो कहना पड़ेगा कि यह दौर कड़वाहट और फूहड़ता के साझे का है। साझे के इस मांझे में ही निजी से लेकर सार्वजनिक जिंदगी उलझी हुई है। सुलझाव की कोशिशें इतनी सतही और बेइमान हैं कि उलझन में और नई गांठ ही पड़ती जा रही हैं। गंभीर विमर्श के खालीपन को आरोप-प्रत्यारोप, तर्क-कुतर्क और ज्ञान के वितंडावादी प्रदर्शन भर रहे हैं, तो हास्य-व्यंग्य की चुटीलता भोंडेपन में तब्दील हो रही है।
ऐसे में जो काम जसपाल भट्टी कर रहे थे और जिस तरह की उनकी सोच और रचनाधर्मिता थी, वह महत्वपूर्ण तो थी ही समय और परिवेश की रचना के हिसाब से एक जरूरी दरकार भी थी। भट्टी का सड़क दुर्घटना में असमय निधन काफी दुखद है। इसने तमाम क्षेत्र के लोगों को मर्माहत किया है। अपनी ऊर्जा और लगन के साथ वे लगातार सक्रिय थे। उनके जेहन और एजेंडे में तमाम ऐसे आइडिया और प्रोजेक्ट थे, जिस पर वे काम कर रहे थे।
जसपाल भट्टी ने पढ़ाई तो इलेक्ट्रिक इंजीनियरिंग की थी पर उनकी हास्य-व्यंग्य के प्रति दिलचस्पी कॉलेज के दिनों से ही थी, जो बाद में और प्रखर हुई। भट्टी का हास्य नाहक नहीं बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता से लैश था और उनकी चिंता के केंद्र में आम आदमी हमेशा रहा। आमजन के जीवन की बनावट, उसका संघर्ष और उसकी चुनौतियों को उन्होंने न सिर्फ उभारा बल्कि इस पर उनके चुटीले व्यंग्यों ने व्यवस्था और सत्ता के मौजूदा चरित्र पर भी खूब सवाल खड़े किए।
नाटक से टीवी और सिनेमा तक पहुंचने के उनके रास्ते का आगाज दरअसल एक कार्टूनिस्ट के तौर पर हुआ। यह बहुत कम लोग जानते हैं कि एक जमाने में जसपाल भट्टी 'द ट्रिब्यून' अखबार के लिए कार्टून बनाया करते थे। काटूर्निस्ट सुधीर तैलंग ने उनके निधन पर सही ही कहा कि एक ऐसे दौर में जब लोग हंसना भूल गए हैं और कार्टून और व्यंग्य की दूसरी विधाओं के जरिए सिस्टम के खिलाफ मोर्चा खोल रहे लोग शासन के कोप का शिकार हो रहे हैं, भट्टी की हास्य-व्यंग्य शैली का अनोखापन न सिर्फ उन्हें लोकप्रिय बनाए हुए था बल्कि वे अपनी बातों को लोगों तक पहुंचाने में सफल भी हो रहे थे।
जसपाल भट्टी के सरोकार जिस तरह के थे और जिस तरह के विषयों को वे सड़क से लेकर, नाटकों, टेलीविजन सीरियलों और फिल्मों में उठाते थे, वह उन्हें एक कॉमेडी आर्टिस्ट के साथ एक एक्टिविस्ट के रूप में भी गढ़ता था। विज्ञापन जगत और सिने दुनिया ने उनकी लोकप्रियता का व्यावसायिक जरूर किया पर खुद भट्टी कभी लीक और सरोकारों से नहीं डिगे। उनकी यह उपलब्धि खास तो है ही यह उन लोगें के आगे एक मिसाल भी है, जो प्रसिद्धि की मचान पर चढ़ते ही अपनी जमीन से रिश्ता खो देते हैं। गौरतलब है कि भट्टी का वयक्तित्व पंजाबियत की रंग में रंगा था। उनके हास्य-व्यंग्य में भी यह पंजाबियत झांकती है। पंजाब की जमीन और लोगों से उनका रिश्ता आखिरी समय तक कायम रहा, जबकि इस बीच मुंबई की माया ने उन्हें अपनी तरफ खींचने के लिए हाथ खूब लंबे किए।
वे हमेशा याद आयेंगे ....यह आग शायद ही अब हम लोग देख पायें !
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