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सोमवार, 3 नवंबर 2014

व्रत नहीं एक जरूरी सबक भी है छठ


कुछ साल पहले 'बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप’ से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डॉक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी का जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। कविताई के अंदाज में कहें तो छठ पर्व आज परंपरा या सांस्कृतिक पर्व से ज्यादा सामयिक सरोकारों से जुड़े जरूरी सबक याद कराने का अवसर है। एक ऐसा अवसर जिसमें पानी के साथ मनमानी पर रोक, प्रकृति के साथ साहचर्य के साथ जीवन जीने का पथ और शपथ दोनों शामिल हैं। कविताई के अंदाज में कहें तो- पनघट-पनघट पूरबिया बरत / बहुत दूर तक दे गई आहट /शहरों ने तलाशी नदी अपनी/ तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी / गाया रहीम ने फिर दोहा अपना / ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं। पर सबक की पुरानी लीक छोड़कर बार-बार गलती और फिर नए सिरे से सीखने की दबावी पहल ही आज हमारे शिक्षित और जागरूक होने की शर्त हो गई है। एक ऐसा शर्तनामा जिसने मानवीय जीवन के हिस्से निखार कम बिगाड़ के रास्ते को ज्यादा सुदीर्घ और चौड़ा किया है। 
बावजूद इसके गनीमत यह है कि लोक और माटी से जुड़े होने की ललक अब भी ढेर नहीं हुई है। बात करें छठ व्रत की तो दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही 
चलेगा, भैया लोगों का 'बड़का पर्व’ जो शुरू हो 
गया है।’
वैसे इस साल छठ अच्छे दिनों के सांस्कृतिक आहट के रूप में भी महसूस किया जा रहा है। एक ऐसी आहट जिसे न तो किसी मोबाइल क्लिप में सुना जा सकता है, न ही सौ करोड़ी फिल्मी तमाशे की 'किक’ में। कुछ साल पहले भैया लोगों के विरोध का भी हिसक आलम देश ने देखा है। नफरत और विरोध का यह सिलसिला अब पूरब से हटकर पूर्वोत्तरी हो गया है। यह देश की सामासिक सांस्कृतिक बनावट को तहस-नहस करने वाली स्थिति है। समय रहते अगर इस बारे में हम नहीं चेते तो समाज, परंपरा और संस्कृति के सामासिक साझे ेकी हमारी विरासत पूरी तरह से छिन्न-भिन्न 
हो जाएगी। 
बहरहाल, इन स्थितियों के बावजूद जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनें और यह ललक दिल्ली के लाल किले से पूरे देश में पहुंचे तो यह भी कम संतोषप्रद स्थिति नहीं है। यह देश आजादी के बाद पहली बार ऐसा अनुभव कर रहा है जब नदियों खासतौर पर गंगा की स्वच्छता और सफाई जैसे मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे का हिस्सा बने हैं और वह भी सरकारी समझ-बूझ के कारण। 
यहां यह समझना भी जरूरी है कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में 'विकसित हठ’ और 'पारंपरिक छठ’ की आपसदारी अगर किसी स्तर पर एक साथ टिकी है तो यह किसी गनीमत से कम नहीं। यह ग्लोबल दौर में सब कुछ गोल हो जाने के खतरे से हमें उबारता भी है और अपने जुड़ाव की पुरानी जमीन के अब तक पुख्ता होने के सबूत भी देता है। 
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। 
भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस’ और 'लोकानंद’ कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फ़ेस्ट से भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट के सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है।
पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की होड़ के बीच इस लोकरंग की एक वैश्विक छटा भी उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरिशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। 
याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी तरह का पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास के खिलाफ यह पर्व भारतीय लोकसमाज की तरफ से एक बड़ा हस्तक्षेप भी है, जिसका कारगर होना सबके हित में है। 

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