शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
सौभाग्य की सिंदूरी रेखा
विवाह संस्था की जरूरत पर बहस इसलिए भी बेमानी लगती है कि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। फिर अगर किसी एक वेल टेस्टेड रिलेशन की बात करें, जिसमें स्त्री-पुरुष संबंध के साथ उसका सामाजिक धर्म भी निभे तो विवाह की व्यवस्था का न तो कोई तोड़ है आैर न ही इसकी कोई सानी। बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखता नहीं या फिर दिखता भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिंदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नित नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभ्ााग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर की नहीं। दिलचस्प तो यह है कि शादी टूटने के मामले में भी स्त्री की वैवाहिक स्थिति उसे देखकर जानी जा सकती है पर ऐसा ही पुरुष के मामले में नहीं है।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सारी सचाई का पता चला तो आंखें भर आर्इं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आर्इं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है आैर इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे आैर मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दिया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह आैर कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है आज वे जहां भी होंगे सचमुच बहुत खुश होंगे आैर अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी।
तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरी मां आैर पिताजी दोनों जीवित हैं। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते हैं। पर आश्चर्य होता है कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता। उलटे वह कहती हैं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे। मां अपनी दो बेटियों आैर दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को है। संत विनोबा से लेकर प्रभावती आैर जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है आैर उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
कुछ साल पहले का वाकिया है। फिल्म अभिनेत्री रेखा को सबने सार्वजनिक रूप से सिंदूर लगाए आैर मंगलसूत्र पहने देखा तो खूब बातें होने लगी। लोगों ने कयास लगाने शुरू कर दिए कि रेखा की जिंदगी में जरूर कोई नया आया है। हालंकि किसी कयास की पुष्टि नहीं हो पाई आैर बात आई-गई हो गई आैर एक बार फिर रेखा के जीवन को रहस्यमय मान लिया गया। दरअसल, किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा आैर इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी आैर मजबूत है कि स्त्री स्वातंत्र्य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार आैर जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है। दिलचस्प है कि आज हर तरफ एक तरफ स्वतंत्रता से आगे स्वच्छंदता की टेर सुनने को मिलती है, वहीं संबंधों को दासता में बदलने वाली सिंदूरी परंपरा भी बदस्तूर जारी है।
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मर्दों की मस्ती, औरतों के लिए तरीके-तौर,
जवाब देंहटाएंकुछ राह चल चुके हैं, अभी चलना है काफी और.
आज से 10 -15 साल पहले की बात की जाए तो शायद आपकी माँ को आपकी पत्नी का साड़ी के अलावा और कुछ पहनकर घर से बाहर निकल जाना पसंद नहीं आता मगर बात अब बदल चुकी है. कई सारे बदलाव हमारी सोच में आये हैं और कई और की गुंजाइश आज भी बनी हुई है.
सुंदर लेख!
सोचने और बदलने को मजबूर करता आलेख्।
जवाब देंहटाएंआशु...! वक्त बदला है...जमाना भी बदला है...लिहाजा हालात भी बदले हैं...जिंस से बड़ा बाजार है आज भी श्रृंगार प्रसाधनों का...मेंहदी लगाने से लेकर चूड़ी-बिंदी तक पहनने-लगाने का सलीका सिखाने के लिए घर-घर में बुद्धु बक्सा खुला है...महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न के हाईटेक तरीके सामने आ रहे हैं...जिन बदलावों को हम परिवर्तनकारी मान रहे हैं, वे इतने बड़े नहीं कि 'आधी दुनिया" की पूरी सचाई बदल दें...
जवाब देंहटाएंवंदना जी, शुक्रिया अगर मेरा लेख किसी काबिल आपको लगा तो...