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मंगलवार, 6 जुलाई 2010

पावर वूमन : इमेज का झांसा


वूमन इंपावरमेंट की वकालत करने वाले होशियार हो जाएं क्योंकि अब तक की उनकी सारी जद्दोजहद को बेमानी करार देने के लिए "पावर वूमन' आकर्षक कांसेप्ट बाजार में आ गया है। अधिकार, शिक्षा और अर्थ के बूते जिस महिला सशक्तिकरण की समझ अब तक सरकार से लेकर गैरसरकारी संगठन तक दिखा रहे थे, पावर वूमन का कांसेप्ट इन सब का तोड़ है।
दरअसल, पिछले दो दशकों में महिलाओं के आगे जो नई दुनिया खुली है, उसने उनके आगे विकास का नया और चमकदार रास्ता भी खोला है। सुष्मिता सेन, लिजा रे, दीया मिर्जा, विपाशा बसु, नफीसा अली से लेकर शेफाली जरीवाल और राखी सावंत तक के नाम आधी दुनिया के लिए शोहरत और सफलता की सुनहरी इबारत की तरह हैं। इस सफलता की एक दूसरी धारा भी है, जिनसे समय के बदले बहाव में सबसे क्षमतावान तैराकों के रूप में ख्याति मिली है। ऐसे ही महिलाओं में शुमार इंदिरा नुई, चंदा कोचर और नैना लाल किदवई जैसे नामों को प्रचार माध्यमों ने लोगों को रातोंरात रटा दिए। पावर वूमन का कांसेप्ट इन्हीं महिलाओं को आगे करके गढ़ा गया है। और इस पावरफुल कांसेप्ट की चौंध के आगे वूमन इंपावरमेंट की अल्फाबेटी सोच से महिलाओं की बंद और अंधेरी दुनिया को खुली और रोशन करने का अब तक का संघर्षमय सफर अचानक खारिज हो गया है।
ऐसे में सवाल यह है कि पिछले कुछ दशकों में जिस लड़ाई और संघर्ष को मेधा पाटकर, अरुणा राय, इला भट्ट, रागिनी प्रेम और राधा बहन जैसी महिलाएं आगे बढ़ा रही हैं, क्या वह वह स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। समाज और राजनीति विज्ञानियों की बड़ी जमात यह मानती है कि हाल के दशकों में भारतीय महिलाओं के हिस्से जो सबसे बड़ी ताकत पहुंची है, वह पंचायती राज के हाथों पहुंची है। दिलचस्प है कि पावर वूमन का कांसेप्ट ऐसी किसी महिला को अपनी अहर्ता प्रदान नहीं करता जिसने इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक सत्ता को न सिर्फ अपने बूते हासिल किया बल्कि उसके कल्याणकारी इस्तेमाल की एक से बढ़कर एक मिसालें भी पेश कीं। याद रहे कि यह कामयाबी पुरुष वर्चस्व की मांद में उतरने जैसी है।
यहां यह बात खास तौर पर समझने की है कि महिला मुक्ति का संघर्ष सिर्फ महिलाओं का नहीं बल्कि एक सामाजिक संघर्ष भी है। पूरी दुनिया बदलेगी, तभी आधी दुनिया भी बेहतर होगी। लिहाजा, अपनी बीमारी के बावजूद जब राधा बहन उत्तरांचल में महिलाओं-पुरुषों को साथ लेकर गंगा को उसके मुहाने पर कैद करने की विकसित सोच से लोहा लेती हैं, अरुणा राय राजस्थान से लेकर देश के तमाम दूसरे हिस्सों में सूचना अधिकार को और उदार और प्रभावी बनाने के लिए संघर्ष करती हैं और मेधा पाटकर लालगढ़ से लेकर दंतेवाड़ा तक बिछी हिंसा के साथ नर्मदा आंदोलन के लिए सड़क पर उतरती हैं, तो वह महिलाओं के साथ समाज और देश के लिए एक बेहतर कल को भी संभव बनाने की लड़ाई लड़ रही होती हैं।
बाजार की खासियत है कि वह आपकी दमित चाहतों को सबसे तेज भांपता है। परंपरा और पुरुषवाद की बेड़ियां झनझना रही महिलाओं को बाजार ने आजादी और सफलता की कामयाबी का नया आकाश दिखाया। कहना गलत नहीं होगा कि इससे आधी दुनिया में कई भी बदलाव आए। पहली बार महिलाओं ने महसूस किया कि उनका आत्मविश्वास कितना पुष्ट और कितना निर्णायक साबित हो सकता है। पर यह सब हुआ बाजार की शर्तों पर और उसके गढ़े गाइडलाइन के मुताबिक। अब इसका क्या करें कि जिस बाजार का ही चरित्र स्त्री विरोधी है, वह उसकी मुक्ति का पैरोकार रातोंरात हो गया।
पावर वूमन के नाम से जितने भी नाम जेहन में उभरते हैं, उनकी कामयाबी का रास्ता या तो देह को औजार बनाने का है या फिर ज्यादा उपभोग की संस्कृति को चातुर्दिक स्वीकृति दिलाने के पराक्रमी उपक्रम में शामिल होने का। ये दोनों ही रास्ते जितने बाजार हित में हैं, उतने ही स्त्री मुक्ति के खिलाफ। यह मानना सरासर बेवकूफी होगी कि पूंजी और व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की लड़ाई से कटकर एकांगी रूप से महिला संघर्ष का कारवां आगे बढ़ सकता है। इसलिए अगर सम्मान और अभिषेक करना ही है तो वैकल्पिक विकास और संघर्ष की लौ जलाने का संकल्प तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद जलाने वाली उन महिलाओं का करना चाहिए, जिसने बाजार, उपभोग और हिंसा के पागलपन के खिलाफ समय और समाज के लिए अपने जीवन का लक्ष्य तय किया है। आधी दुनिया अधूरी नहीं बल्कि पूरी दुनिया के साथ ही बदलेगी और इस बदलाव के लिए पावर वूमन की टावरिंग इमेज और सक्सेस के झांसे से बचना होगा।

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