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सोमवार, 12 जुलाई 2010

प्यार का फेसबुक


...प्यार एक तजुर्बा है स्वच्छंदता का, खुद को जानने का, जज्बातों से दो-चार होने का। इस तजुर्बेकारी को मंगलसूत्र बनाकर पहनना जरूरी नहीं।
...प्यार को मझधार में महसूस करना आना चाहिए, किनारे पर आकर तो इसकी सारी रवानगी दम तोड़ जाती है।
... रिश्तों की पनाह पाकर प्यार दिली एहसास से ज्यादा सामाजिक निर्वाह बन जाता है और यह निर्वाह स्वच्छंदता को उस आजादी की जद में ले जाता है, जिसकी सीमाएं संविधान और आइपीसी ने पहले से तय कर रखी हैं।

ये कुछ रिएक्शंस हैं, उस सवाल के जवाब में जो 34 साल की शालिनी फेसबुक पर अपने फ्रेंडस से पूछती है। शालिनी न सिर्फ पढ़ी-लिखी है बल्कि दिल्ली जैसे महानगर में इंडिपेंडेंटली सेटल्ड भी है। वह हर लिहाज से एक जागरूक और आधुनिक स्त्री है। समय और समाज के बीच स्त्रीत्व की नई व्याख्या कितनी बदली, भटकी या समाधान तक पहुंची है, इस पर कोई ठोस समझ बनाने के लिए शालिनी एक अच्छी केस स्टडी हो सकती है। पिछले दस से कम सालों में प्यार और साहचर्य के नाम पर कम से कम तीन बार वह किसी के प्रति पूरी "कमिटेड' रह चुकी है। एक के बाद एक तीन अलग-अलग संबंधों को जीते हुए उसने संबंधों की भीतरी बुनावट के साथ उनकीउलझन को भी बहुत गहरे से समझा है।
शालिनी ने जो सवाल पूछा था, उसमें भी यही था कि प्यार संबंधों की गांठ से पक्का होता है या इससे उसमें गांठ लगती है। इस सवाल पर जो रिएक्शंस शुरू में दिए गए हैं, वे शालिनी की दो सौ से ज्यादा की फ्रेंड्स लिस्ट में शामिल सहेलियों के हैं। जो इक्के-दुक्के जवाब पुरुषों की तरफ से आए भी, वे प्यार को भरोसा और परिवार की गोद पीने की इच्छा से भरे थे। कहना नहीं होगा कि यह सोच सिर्फ पुरुषों की नहीं बल्कि हमारी अब तक की पारिवारिक-सामाजिक समझ भी कमोबेश यही है। दरअसल, इस अंतद्र्वंद्व के बहाने हम आधी दुनिया के बीच आकार लेती उस तब्दीली को महसूस कर सकते हैं, जो बहुत बड़ी भले न हो पर गंभीर जरूर है। यह तब्दीली स्त्री स्वातंत्र्य की पूरी बहस को नई रोशनी और संदर्भों से जुड़ने की दरकार भी पेश करती है। वैसे यहां यह भी साफ हो जाना चाहिए कि ऐसे ज्यादातर स्त्री किरदार महानगरीय जीवन के हैं। पूंजी के जोर पर जागरूकता या बदलाव के मेघ जो थोड़े-बहुत बरसे भी हैं, उससे महानगरीय जीवन ही सबसे ज्यादा भीगा-नहाया है। बाजार का पहला ही सबक है कि आप टिके तभी तक रह सकते हैं जब तक आपके पास कमाने और खर्चने की सलाहियत बची हो। दिलचस्प है कि बाजार के इस सबक ने मेट्रो यूथ की एक ऐसी दुनिया रातोंरात बना दी, जिसमें "बरिस्ता' के कॉफी की तरह जज्बातों के तमाम सरोकार "इंस्टैंट' हो गए। दिली जज्बात के साथ जितने स्तरों पर "एक्सपेरिमेंट' इस दौरान हुए हैं, उनमें फौरीपन की बजाय थोड़ी स्थिरता अगर होती तो ये मामले "इमोशनल इंसीडेंट' या "एक्सीडेंट' से कहीं ज्यादा वजनी और "मच्योर वैल्यू कैरेक्टर' के होते।
मुझे नहीं पता कि शालिनी के जीवन में आए पुरुष साथियों की जिंदगी कैसी है और उनकी आत्मप्रतीति क्या है। यह भी कहना मुश्किल है कि शालिनी की जिन सहलियों ने अपनी-अपनी बातें रखी हैं, वह घर-परिवार के किसी दायरे को तोड़कर ये बातें कह रही हैं या फिर जिंदगी के समझौतों से आजिज आकर। हां, एक बात जरूर है कि खुद को खोकर किसी को पाने के खतरे को नए दौर की स्वावलंबी शहरी स्त्री पीढ़ी समझ चुकी है। उसने अपने पीछे मां को, बहनों को, घर-पड़ोस की महिलाओं को देखकर इतना तो सीख ही लिया है कि यहां जिस परिवार व्यवस्था को सींचने में एक महिला की पूरी जिंदगी खप जाती है, उसमें उसके हिस्से कर्तव्य निर्वाह के संतोष के सिवाय शायद ही कुछ बचता हो। गोद में एक बार किलकारी गूंजी नहीं कि आजादी के परिंदे मन-मुंडेर पर उतरना छोड़ देंगे। शालिनी की ऑनलाइन प्रोफाइल को देखकर नहीं लगता कि उसके संबंधकी छोर मातृत्व तक पहुंची हैं। ऐसा भी मुमकिन है कि ऐसा न हो पाना ही उसकी जिंदगी की मौजूदा उधेड़बुन की वजह हो। दिलचस्प है कि "आई कांट एफोर्ड ए वाइफ और किड' के जुमलों से अपनी मन:स्थिति बताने वाले अमेरिका और यूरोप में एक बार फिर से जिंदगी को सिंदूरी देखने की ललक बढ़ रही है।
पुरुष अब तक यही समझते थे कि किसी महिला का पति होना नहीं, उसके बच्चे का पिता होना, उसके मैरिड लाइफ को ज्यादा एस्टेबल रखता है। ऐसा सोचने वाले पुरुषों की अक्लमंदी आगे बहुत काम न आए तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अब महिलाएं किसी सूरत में महज पुरुष छाया बनकर अपने स्वायत्त व्यक्तित्व को खोने के लिए तैयार नहीं हैं। और अगर वह ऐसा चाहती हैं तो इसके पीछे पारिवारिक-सामाजिक जीवन का वह कठोर सच है, जिसमें प्यार और मातृत्व का सुख देकर उनके शैक्षिक-आर्थिक विकास और दुनिया के तमाम परिवर्तनों को केंद्र में खड़े होने की चहक गिरवी रखवा ली जाती है। लिहाजा, स्त्री जो सवाल करती है और उस पर उसकी जैसी जिंदगी जी रही या मन:स्थिति वाली उसकी सहेलियां जब प्यार और संबंध के सरोकारों के बीच, बंधनमुक्ति का स्कोप देखने का दरकार रखती हैं तो साफ लगता है कि फीमेल सेंटीमेंट अब इमोशनल से ज्यादा लॉजिकल हो रहा है। कह सकते हैं कि नई स्त्री को पुराने इमोशनल अत्याचार का खतरा न सिर्फ समझ में आ रहा है बल्कि वह अब वह इससे मुठभेड़ का खतरा तक उठाने को तैयार है।

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