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सोमवार, 12 मार्च 2018

अलग झंडा क्यों चाहिए कर्नाटक सरकार को!


- प्रेम प्रकाश

नब्बे के दशक से जोर पकड़ी अस्मितावादी राजनीति 2014 तक आते-आते हांफने लगी। बिहार विधानसभा चुनाव में इसका नया प्रभावी संस्करण देखने को जरूर मिला, पर आज नीतीश और लालू जिस तरह राजनीति के दो छोर पर खड़े हैं, उसने इस संस्करण की आगामी संभावना को पूरी तरह ढहा दिया। कहने को उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की नई दोस्ती भी अस्मितावादी राजनीति के इसी संस्करण की नकल है, पर इसका एक तो रकबा अभी बहुत कम है, दूसरे दोनों दल की तरफ से अभी इस बारे में बहुत कुछ साफ होना बाकी है। इन सारे घटनाक्रमों के बीच क्षेत्रीय अस्मिता की जमीन को बीते एक वर्ष से जिस तरह कर्नाटक में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी सींचने में लगी है, वह एक खतरनाक संकेत है।

तमिलनाडु के साथ कावेरी जल विवाद के बाद कर्नाटक ने अपना अलग झंडा तैयार कर लिया है। कर्नाटक में इसी वर्ष अप्रैल-मई में चुनाव होने हैं। वहां कांग्रेस का जो रुख है, उसमें क्षेत्रीय अस्मिता और राष्ट्रवाद का चुनावी संघर्ष पहली बार जमीन पर आमने-सामने होगा। ताज्जुब है कि राष्ट्रवादी राजनीति के सामने क्षेत्रीय स्वाभिमान और अस्मिता की जो सियासी जमीन पूर्वोत्तर राज्यों, प. बंगाल, तमिलनाडु और केरल में भी नहीं तैयार हो सकी, उसका उदाहरण कर्नाटक बनने जा रहा है। देश के इन तमाम सूबों में क्षेत्रीय राजनीति का एक अपना गणित जरूर रहा है, पर इस गणित से राष्ट्रवादी घोड़े पर सवार भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए कोई सियासी प्रयोग अगर कहीं सीधे तौर पर आजमाई जा रही है, तो आज की तारीख में देश का वह अकेला राज्य कर्नाटक है।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दांव खेला है, उसने निस्संदेह भाजपा की उलझनें बढ़ा दी हैं। सिद्धारमैया ने कर्नाटक के लिए एक झंडे का डिजाइन कैबिनेट से पास कराया है, जिसको अब वह केंद्र सरकार को भेजने जा रहे हैं ताकि इसको संवैधानिक मंजूरी मिल सके। कन्नड़ संगठनों के साथ अपने कैंप दफ्तर में बैठक के दौरान सिद्धारमैया ने इस झंडे को दिखाया, जो तीन रंगों का है। झंडे में ऊपर पीली पट्टी, बीच में सफेद और नीचे लाल पट्टी है। बीच में सफेद पट्टी पर राज्य का प्रतीक चिन्ह गंद्दु भेरुण्डा (दो बाज) बना है। अपने दांव को किसी संवैधानिक चुनौती से बचाने और अलगाववादी हिमाकत से अलग दिखाने की कोशिश में सिद्धारमैया कह रहे हैं वे इस झंडे को राष्ट्रीय ध्वज से नीचे ही फहराएंगे।

पर जिस तरह सिद्धारमैया इस पूरे प्रकरण को बता रहे हैं, उसमें उनकी मंशा को पढ़ना आसान है। वे जब कहते हैं कि उनका यह झंडा कन्नड़ अभिमान के लिए है और तकराबन सभी कन्नड़ संगठनों का समर्थन उन्हें इसके लिए हासिल है, तो साफ दिख जाता है कि वे एक बड़ा सियासी दांव खेल रहे हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झंडे को लेकर सामने आने की टाइमिंग भी इसी बात की तरफ इशारा कर रही है। 

दिलचस्प है कि कर्नाटक कई तरह की राजनीति की प्रयोगशाला पहले से रहा है। सरकारी भ्रष्टाचार के भी बड़े-बड़े मामले वहां उठे हैं। पर राज्य के लिए अलग झंडे की मांग उठाकर वहां की कांग्रेस सरकार ने जो हिमाकत की है, उसका खामियाजा कांग्रेस की सियासी नैतिकता को तो अपनी तरह से उठाना ही पड़ेगा। देश में इन दिनों प. बंगाल और जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों और केरल में जिस तरह की अशांति है, उसका प्रतिफलन अगर अलग-अलग या साझे तौर पर देश के आगे एक नए क्षेत्रीयतावादी या प्रांतवादी संकट के तौर पर सामने आए तो यह देश की अखंडता के लिए वाकई बहुत बड़ी चुनौती होगी। यह चुनौती कैसी बड़ी हो सकती है, वह आंध्र सरकार के विशेष राज्य का दर्जा मांगने से शुरू हुई सियासी लपट के देखते-देखते बिहार तक पहुंचने के घटनाक्रम के तौर पर भी समझा जा सकता है। मूर्तिभंजक पागलपन के दौर में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर भड़काने वाली मानसिकता के प्रकटीकरण से राष्ट्रीय सद्भाव के बुरी तरह चोटिल होने का खतरा है।

भारत में राष्ट्रवादी दरकारों और उसके उसूलों को लेकर बहस आजादी मिलने से पहले ही शुरू हो गई थी। एक समय जब देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल रियासतों के विलय के लिए कठिन चुनौतियों का समाना कर रहे थे तो एक तरह से यह राष्ट्रीय सम्मति भी बनी थी कि देश की भौगोलिक, राजनीतिक एकता के लिए तमाम ऐसे विवादों को एक किनारे रखना होगा, जिससे देश की संघवादी रचना कमजोर हो सकती है। पर दुर्भाग्य से अस्सी-नब्बे के दशक के बाद से देश में राजनीतिक स्फीति इतनी ज्यादा हुई कि सत्ता की सीढ़ी बनाने के लिए सियासी जमातें और उनके नेता आज किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। बीते सालों में विधानसभाओं में बजाप्ता प्रस्ताव लाए और पास किए गए हैं कि उन आतंकियों को क्षमादान मिले, जिसे देश की न्यायिक व्यवस्था आजीवन कारावास या फांसी की सजा सुना चुकी है। याकूब मेनन, अफजल गुरु से लेकर देविंदर पाल सिंह भुल्लर के लिए सियासी आंसू रोने वालों को कभी यह फिक्र नहीं रही कि उनकी इस हिमाकत का देर-सबेर देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी होगी।   

यहां एक बात जो और समझनी है, वह यह कि बीते चार सालों में देश की राजनीति का सूर्य पूरी तरह से दक्षिणायन हो चुका है। देश की राजनीति में यह बड़ा शिफ्ट है। जिस कांग्रेस के खिलाफ कभी डॉ. राम मनोहर लोहिया सरीखे नेताओं को विपक्षी मोर्चा तैयार करने और फिर उसे चुनावी समर में शिकस्त से बचाने में पसीने छूट जाते थे, उस कांग्रेस का जनाधार आज इतना कमजोर हो चुका है कि नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व भी चाहकर कुछ नहीं कर पा रहा है। ज्यादा बुरी स्थिति यह है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने खिलाफ बने इस माहौल को समझने-परखने के बजाय उन तिकड़मों पर भरोसा कर रही है, जो उन्हें जड़मूल से और कमजोर कर देगी।

बहरहाल, अगर बात करें कर्नाटक की तो वहां अलग झंडे की मांग को लेकर जो कुछ भी हुआ, वह गंभीर मामला होने के साथ हास्यास्पद भी है। एक तो भारत जिस देश का संघीय राष्ट्र है, उसमें संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा सिर्फ जम्मू-कश्मीर को ही प्राप्त है। इसलिए सिर्फ जम्मू कश्मीर के पास ही अपना अलग झंडा है। अलग झंडे की मांग एक तरह से अलग राष्ट्रीयता की मांग की तरह है, जिसे कम से कम देश की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के तहत मंजूरी नहीं मिल सकती। ऐसी कुछ मांगें आरक्षण जैसे मसलों पर भी आई हैं, जिसमें चुनावी फायदे के लिए राजनीतिक दलों ने जनता के बीच जाकर यह वादा कर दिया कि वह संवैधानिक और घोषित न्यायिक व्यवस्था और सीमा से बाहर जाकर भी कुछ समुदायों को आरक्षण देंगे। अलबत्ता इस चुनावी दांव में यह समझ भी शामिल रहती है कि ऐसा कुछ चाहकर भी इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि विधानसभा या राज्य सरकार की मंजूरी के बावजूद इसे न्यायिक चुनौती दी जाएगी, जहां उसे मान्यता मिलने का सवाल ही नहीं है।

एक जो आखिरी बात इस पूरे मसले पर गौर करने की है, वह यह कि कर्नाटक में झंडे की मांग कोई आज नई नहीं उठी है, बल्कि इससे पहले जब वहां भाजपा की सरकार थी तो कांग्रेस की तरफ से यह मांग उठी थी और इसके लिए विधानसभा में प्रस्ताव लाया गया था। मामला न्यायालय भी पहुंचा और तब सदानंद गौड़ा की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय को बताया कि उसने दो रंग वाले कन्नड़ झंडे को राज्य का आधिकारिक झंडा घोषित करने के सुझाव को स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि अलग झंडा ‘देश की एकता एवं अखंडता के खिलाफ’  होगा। साफ है कि नए सिरे से इस मांग को उठाकर कांग्रेस देश में सांप्रदायिक से आगे प्रांतवादी या अलगाववादी ध्रुवीकरण का खतरनाक दांव खेलना चाहती है।

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