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सोमवार, 12 मार्च 2018

मौलाना से मिलना... मौलाना को पढ़ना...


 - प्रेम प्रकाश

धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान

‘बेटे, इस्लाम के बारे में भी पढ़ लेना। अभी अपनी पढ़ाई पूरी करो। वैसे भी मुझे लगता है कि गांधी विचार से जुड़े लोगों के लिए अलग से किसी धर्म के बारे में जानने की शायद जरूरत भी नहीं। हम लोग खुद कई अवसरों पर गांधी जी से सीखते हैं। वे शांति के मसीहा थे।’  ...मौलाना वहीदुद्दीन खान के ये कुछ शब्द आज भी अंतर्मन में गूंजते हैं। उन्होंने ये बातें इस्लाम को लेकर मेरी इस जिज्ञासा पर दी थीं कि भारतीय इस्लाम क्या बाकी इस्लाम से जुदा है। कहने की जरूरत नहीं कि उनका कद और उनकी स्वीकृति तब भी इतनी बड़ी थी कि उनकी हर छोटी-बड़ी बातों को लोग गौर से सुनते थे। जहां तक स्मरण है यह वाक्या 1986-87 के आसपास का रहा होगा। दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में उनसे मिला था।
प्रतिष्ठान में प्रकाशित होने वाले मासिक ‘गांधी मार्ग’ में उन दिनों उनके लेख काफी छपते थे। सो, मौलाना के आलेख पहले से पढ़ता रहा था। उन्हें पढ़कर उनके वैचारिक सम्मोहन से दूर रहना मेरे जैसे युवा के लिए इसीलिए भी असंभव था, क्योंकि इस्लाम और अध्यात्म की उनकी व्याख्या खासी आधुनिक और तार्किक होती थी। मुझे याद है कि जब मैं ‘जनसत्ता’ छोड़कर ‘सहारा समय’ में आया, तभी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई थी। एक साक्षात्कार के सिलसिले में अनुपम मिश्र से मिलने गांधी शांति प्रतिष्ठान जाना था। अनुपम जी सिर्फ पर्यावरण के ही जानकार नहीं थे। उनसे देश-समाज के विभिन्न विषयों पर बात करते हुए एक नई समझ बनती थी। इस समझ के साथ उनकी भाषा का भी आकर्षण होता था। सच्चर कमेटी की चर्चा पर छूटते ही अनुपम जी ने कहा, इस देश में कठिनाई यह है कि सबको राजनीति ज्यादा समझ में आती है। साठ के दशक से मौलाना वहीदुद्दीन खान इस बात को दोहरा रहे हैं कि मुसलमानों की स्थिति देश में तब तक बेहतर नहीं हो सकती, जब तक उन तक तालीम की रोशनी पूरी तरह नहीं पहुंचेगी। उनकी गुरबत और मुख्यधारा से कटने का असली कारण उनका तालीम से कटे होना है। मदरसों की ‘बंद तालीम’ के भरोसे जिस तरह की इस्लामी कौम बनेगी, उसके बारे में सबको पता है। अब जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने मुसलमानों को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है तो लोग इस बारे में बात कर रहे हैं। अनुपम जी की ये बातें वैचारिक तौर पर झकझोर देने वाली थी। मौलाना के कार्य और लेखन को लेकर यह सब सुनकर एक नई तरह की जिज्ञासा पैदा हुई।
जिन लोगों को 2006 के आसपास के भारतीय सामाजिक और राजनीतिक हालात का पता होगा, वे इस बात को समझेंगे कि एक ऐसे दौर में जब देश में मुसलमानों के कथित रहनुमाई करने वाले अपनी अल्पसंख्यक पहचान को सियासी परचम की तरह इस्तेमाल करने पर तुले थे और समाज से लेकर संसद तक अस्मितावादी विमर्श चल रहा था, मुस्लिम समाज की वास्तविक स्थिति को सामने रखने वाली सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने किस तरह का तूफान पैदा किया था।
भारतीय समाज में मुसलमानों की हैसियत स्वाधीनता आंदोलन के दौर से लेकर आजादी के समय और उसके बाद किस तरह बदली, इस स्फीति को एक यात्रा की तरह देखें तो मन में कौतुहल पैदा करने वाले कई प्रश्न खड़े होते हैं। ये बेचैनी तब मैंने भी खूब महसूस की थी। एक बार फिर राहत मिली मौलाना वहीदुद्दीन खान को पढ़कर। एक पुस्तिका के रूप में उपलब्ध उनके एक लंबे आलेख में पढ़ा कि भारत विभाजन के बाद मुसलमानों के लिए इस देश में सबसे बड़ी त्रासदी उनका खुद को सियासी तौर पर अल्पसंख्यक उभार के साथ देखना है। बदकिस्मती से इस गलती में मुसलमानों के नेता भी शामिल रहे हैं। भारतीय समाज और संस्कृति में एक समन्वयवादी तत्व शुरू से रहा है। यह तत्व देश के हिंदुओं में भी है।
मौलाना ने इस बात को हिंसक नादानी करार दिया कि भारतीय मुसलमान हिंदुओं से किसी तरह की होड़ लें या फिर उनसे अलगाव या स्पर्धा की कोई राह चुनें। वे हिंदुओं और मुसलमानों की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को बांटकर तो नहीं ही देखते हैं, उलटे इनमें एक-दूसरे को तर-बतर करने वाले अंतरसूत्र देखते हैं। ...तभी तो वे मानते हैं कि अल्पसंख्यक असुरक्षा का भाव मुसलमान समाज को भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास यात्रा से उसे इतनी दूर ले जाएगा कि वे अभाव और हीनता के ऐसे मझधार में फंसेंगे, जिससे निकलना आसान नहीं होगा। मौलाना वहीदुद्दीन खान आज भी अपनी इस समझ पर कायम हैं। वे अपने लेखों के साथ टीवी संदेशों और पोडकास्ट में इस संदेश को दुहराते हैं।
‘जनसत्ता’ अखबार में मैं जब था तो एक सम्मेलन में आरिफ मोहम्मद खान को सुना। कहने को उनका शुमार मुसलमानों के नेता के तौर पर ही होता है, पर वे अपनी इस पहचान के खुद खिलाफ हैं। सम्मेलन में खान ने बताया कि कभी भारत और पाकिस्तान.. दोनों तरफ के मुसलमानों ने खान अब्दुल गफ्फार खान की नहीं सुनी और इसका नतीजा देश विभाजन के समय से लेकर बाद तक के सांप्रदायिक दंगे हैं। आज भी हमारे बीच एक सच की आवाज है। यह आवाज है मौलाना वहीदुद्दीन खान की। खान कहीं न कहीं उन्हीं बातों के प्रति हमें आगाह कर रहे हैं, जो 1947 और उसके बाद हुई।
धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा
रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान। खान को पढ़ना और उन्हें सुनना, अमन और सकून पर यकीन बढ़ाने जैसा है। मौलाना इस यकीन को देश-दुनिया में अपनी तरह से जिस तरह से फैला रहे हैं, उसे देखकर राष्ट्रपिता गांधी की याद आती है। खुद मौलाना भी मानते हैं कि जंगे आजादी के दिनों से उन पर गांधी का रंग चढ़ गया था। निस्संदेह यह रंग बाद में और पक्का... और पाकीजा हुआ। 

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