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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

प्यार का नया देशकाल

प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहती थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं।
प्यार और दोस्ती के महापर्व
लव, फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में वेलेंटाइन डे के नाम पर शुरू हुआ है, उसका अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से परदा उठाता है। सेंट वेलेंटाइन को भी नहीं पता होगा कि उनके बाद की पीढ़ियां उनके प्यार और समर्पण के संदेश को महज प्यार की सनसनाहट और रोमांच तक सीमित कर देंगे।
आज तो आलम यह है कि पिछले कई दशकों से दुनिया के सबसे समृद्ध देशों से लेकर गरीब और पिछड़े मुल्कों में वेलेंटाइन डे को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा कैलेंडर की कुछ खास तारीखें हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में प्यार और दोस्ती के महापर्व के रूप में वेलेंटाइन डे के साथ फ्रेंडशिप डे का भी प्रचलन काफी बढ़ गया है। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है।
राजेंद्र यादव कहा करते थे
स्वर्गीय लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते थे- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।’ जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते थे।
बात प्यार और दोस्ती की हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती और प्यार के महापर्व की हो तो युवाओं को कैसे भूला जा सकता है।
तुनक गए जावेद साहब
कुछ अर्से पहले टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे 'इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।’ इस वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
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ग्लोबल नहीं हैं भारतीय युवा

लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की ाातें आ विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चितन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए क्योंकि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा है। पर तथ्य और सत्य भी यहीं आकर ठहरता है, ऐसा नहीं है। दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलधि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा है। ऐसा हो भी भला क्यों नहीं क्योंकि इसमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सब को भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्किइंडिया शाइनिग का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी।
सर्वे में सामने आया सच
कुछ साल पहले 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉमिग वर्ल्ड : एटीटरूड्स एंड परसेप्शन’ नाम से एक शोध अध्ययन खूब चर्चा में आई थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसदी युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमîजग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उनकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। शोध के मुताबिक देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं।
साफ है कि पिछले दो दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करियर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है, कामयाब रहा है।
एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
आज पिछले तीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई और यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढ़ाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमîजग इकोनमी पॉवर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा ले रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खाने में विदेशी मुद्रा का वजन जरूर बढ़ सकता है पर यह सब देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने की बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे जाएंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले अमेरिका जैसे देश एक बार फिर संरक्षणवादी आर्थिक हितों को अमल में लाने लगे हैं।
पब के दौर में लव
आखिर में एक बात और देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से। रूढ़ियां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्जा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम इंडिया से भारत की दुनिया में कदम रखते हैं, यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। नए भारत के युवाओं को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसदी युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिदगी का सबसे कठिन फैसला है।
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लद गया सीटियों का जमाना
सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीðजग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल’ कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था, जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे।
किशोर कुमार की सीटी
इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटमनुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को बड़ी स्वीकृति स्वीकृति मिल जाए।
सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधताã आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।

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प्यार का झूठ और लव गुरु
शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्ते में कितनी पारदर्शिता रहे, इसका अव्यावहारिक रास्ता निकाला जाना चाहिए। रेडियो-टीवी पर बैठे लव गुरुओं और मैरिटल काउंसलरों की भी सलाह ऐसी ही है। साफ तौर पर हिदायत दी जा रही है कि जो कहने-बताने से रिश्ते पर आंच न आए, वही सही है। पर यहां भी एक पेंच है। शेखी की तरह सचाई बघारने वाले ज्यादातर पुरुषों को अपने पिछले रिलेशन और अफेयर के बावजूद अपनी पत्नियों से परेशानी का खतरा न के बराबर रहता है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि महिलाओं को घर-बाहर हर जगह यही हिदायत दी जाती है कि पुरुष तो ऐसे ही होते हैं, यहां-वहां और जहां-तहां मुंह मारने वाले। सो उसके किए पर अफसोस क्यों? चाहे जैसे हो बचा लो रिश्ता और इस तरह पेश आओ कि तुम्हारा पति तुम्हारे काबू में रहे, बहके नहीं और अगर बहके भी तो लौट के बुद्धु घर को आए की तरह।
केस स्टडी
शालिनी टीचर है और उसका पति इंश्योरेंस एजेंट। रजनी ने टीवी पर आने वाले मैरिटल काउंसिलिग के कार्यक्रम में बैठे विशेषज्ञों के आगे अपनी परेशानी रखी। उसकी शादी उसके साथ पढ़ने वाले लड़के से होनी थी। दोनों के बीच तकरीबन चार-पांच साल नजदीकी ताल्लुकात रहे। अफेयर भी कह सकते हैं। पर जब शादी की बात चली तो लड़के के घर वाले नहीं माने। शालिनी आज अपने शादीशुदा जीवन के आगे सब कुछ भूल चुकी है। उसकी एक बेटी स्कूल जाती है। पर उसका पति आज भी उसे अपने प्रति पूरी तरह वफादार नहीं मानता। उसे इस बात पर आए दिन पति से प्रताड़ित होना पड़ता है।
दरअसल, शालिनी ने एक ही गलती कि उसने अपने जीवनसाथी को शादी के कुछ ही दिनों बाद सब कुछ बता दिया। छह साल पहले कहा सच आज भी उसकी शादीशुदा जिदगी को ग्रास रहा है। शालिनी जैसी युवतियों से हमदर्दी रखने वाले भी यही कहते हैं कि पति के साथ सब कुछ शेयर करना जरूरी नहीं है। पुरुषों के लिए तो बदचलनी की गाली भी गिनती के ही हैं, पर महिलाओं की बोलती बंद करने के लिए उन्हें बदचलन ठहराना घर से बाहर क्या घर के अंदर भी सबसे आसान औजार है।
भूले नहीं हैं लोग अब भी टीवी पर स्वयंवर के उस ड्रामे को जिसमें राहुल महाजन शादी रचाते हैं। राहुल के लिए शादी का यह पहला मौका नहीं था। अफेयर के मामले में वह पहले से काफी विवादास्पद रहा था। पर उससे शादी का ख्वाब सजाने वाली किसी भी लड़की को इस बात से शिकायत नहीं थी। इस मुद्दे पर कोई चर्चा भी नहीं हुई।
आप सोचकर देखें, राहुल का सच किसी लड़की का होता तो क्या होता? अव्वल तो उसे इस टीवी शो का हिस्सा ही नहीं बनाया जाता। अगर बनाया भी जाता तो वरमाला कम से कम उसके गले में तो राहुल नहीं डालता। यह एक तरफ तो नए दौर का टीआरपी मार्का मनोरंजन का सच है तो वहीं दूसरी ओर यह रियलिटी उस पुरुष मानसिकता की भी है जिसे अपने ऊपर कभी कोई खरोंच बर्दाश्त नहीं भले खुद उसके नाखून बढ़ते रहें।
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चीनी प्रोडक्ट क्या
रिलेशन भी टिकाऊ नहीं

अखबारों के तकरबीन एक ही पन्ने पर साया हुईं ये दो खबरें हैं। एक तरफ प्राचीन से नवीन होता चीन है तो दूसरी तरफ उत्तर आधुनिकता की जमीन पर परंपराओं और संबंधों के नए सरोकारों को विकसित कर रहा अमेरिका। दुनिया के दोनों महत्वपूर्ण हिस्सों में यह सामाजिक बदलाव का दौर है। लेकिन दिशा एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। एक तरफ खतरे का लाल रंग काफी तेजी से और गाढ़ा होता जा रहा है तो दूसरी तरफ मध्यकालीन बेड़ियों से झूल रहे बचे-खुचे तालों को तोड़ने का संकल्प।
बाजार के साथ हाथ मिलाते हुए भी अपनी लाल ठसक को बनाए रखने वाले चीन की यह बिल्कुल वही तस्वीर नहीं है, जो न सिर्फ सशक्त है बल्कि सर्वाइवल और डेवलपमेंट का एक डिफरेंट मॉडल भी है। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने सोशल रिसर्चर तंग जुन के हवाले से बताया कि चीन में न सिर्फ अर्थव्यवस्था का बल्कि तलाक का ग्राफ भी बढ़ा है। ढाई दशक पहले तक चीन में हर हजार शादी पर ०.4 मामले तलाक के थे जो कि आ वहां नौबत यह आ गई है कि हर पांचवीं शादी का दुखांत होता है। चीनी समाज में स्थितियां किस तरह बदल रही हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2००9 में चीन में 2.42 करोड़ लोग परिणय सूत्र में बंधे लेकिन 24 लाख लोग अंतत: इस बंधन से बाहर आ गए। अर्थ का विकास जीवन को कुछ सुकूनदेह बनाता हो या न, उसके अनर्थ का खतरा कभी मरता नहीं है।
चीनी विकास का अल्टरनेटिव मॉडल परिवार और समाज के स्तर पर भी कोई वैकल्पिक राह खोज लेता तो सचमुच बड़ी बात होती। लेकिन शायद ऐसा न तो संभव था और न ही ऐसी कोई कोशिश की गई। उलटे विकास और समृद्धि के चमकते आंकड़ों की हिफाजत के लिए वहां पोर्न इंडस्ट्री और सेक्स ट्वॉयज का नया बाजार खड़ा हो गया। दुनिया के जिस भी समाज में सेक्स की सीमा ने सामाजिक संस्थाओं का अतिक्रमण कर सीधे-सीधे निजी आजादी का एजेंडा चलाया है, वहां सामाजिक संस्थाओं की बेड़ियां सबसे पहले झनझनाई हैं। चीन में आज अगर इस झनझनाहट को सुना जा रहा है तो वहां की सरकार को थ्यानमन चौक की घटना से भी बड़े खतरे के लिए तैयार हो जाना चाहिए। क्योंकि बाजार को अगर सामाजिक आधारों को बदलने का छुट्टा लाइसेंस मिल गया तो आगे जीवन और जीवनशैली के लिए सिर्फ क्रेता और विक्रेता के संबंधों का खतरनाक आधार बचेगा।
अमेरिका से आई खबर की प्रकृति बिल्कुल अलग है। वहां शादियों और मां बनने का न सिर्फ जोर बढ़ा है बल्कि इन सबके साथ कई क्रूर रुढ़ताएं भी खंडित हो रही हैं। जिस अमेरिका में राजनीति से लेकर फिल्म और शिक्षण संस्थाओं तक नस्लवाद का अक्स आज भी कायम है, वहां रंग, जाति और बिरादरी से बाहर जाकर प्यार करने और शादी करने का नया चलन जोर पकड़ रहा है। नस्ली सीमाओं को लांघकर विवाह करने का यह चलन कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पिछले तीन दशक में ऐसा करने वालों की गिनती दोगुनी हो चुकी है। अमेरिकी समाज के लिए यह एक बड़ी घटना है।
5०-6० के दशक तक अमेरिका में दूसरी नस्ल के लोगों के साथ विवाह करने की इजाजत नहीं थी। बाद में वहां सुप्रीम कोर्ट का आर्डर आया जिसने ऐसे किसी एतराज को गलत ठहराया। बहरहाल, इतना तो कहना ही पड़ेगा कि दुनिया भर में नव पूंजीवाद व उदारवाद का अलांरदार देश अपनी भीतरी बनावट में भी उदार होने के लिए छटपटा रहा है। यह सूरत आशाजनक तो है पर फिलहाल इसे क्रांतिकारी इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि अब भी वहां 37 फीसद सोशल हार्डकोर मेंटेलिटी के लोग हैं, जो विवाह की नस्ली शिनाख्त में किसी फेरबदल के हिमायती नहीं हैं।
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