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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

संबोधन में छिपा चिंताओं का समाधानकारी सार

देश ने जब इस बार 65वां गणतंत्र दिवस मनाया तो उसके मन में उल्लास के साथ कई सवाल भी थे। ये सवाल भी कोई रातोंरात पैदा हुए हों, ऐसा नहीं है। अलबत्ता यह जरूर है कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में जिस तरह कुछ मुद्दों और खतरों को रेखांकित किया, उनसे ये सवाल एकदम से सतह पर आ गए। राष्ट्रपति महोदय ने देश के लोकतंत्र को लेकर यह चिंता जताई है कि एक तरफ तो जनता गुस्से में है, वहीं दूसरी तरफ सरकारी स्तर पर अराजकतावादी आचरण दिख रहे हैं।
सनसनी पैदा करने की गरज से राष्ट्रपति के इस संबोधन की कुछ लोग मन माफिक व्याख्या कर रहे हैं। इसमें मीडिया का भी एक तबका शामिल है। दरअसल, इस स्थिति को समझने के लिए हमें बीते कुछ सालों के घटनाक्रमों को देखना होगा। देश का नागरिक समाज जनता को साथ लेकर इस दौरान एक नए तरह के लोकमत के निर्माण में लगा है। लोकमत निर्माण की यह प्रक्रिया प्रतिक्रियावादी और सुधारवादी दोनों है। प्रतिक्रियावादी इस लिहाज से कि इसमें एक तरफ तो इस बात की खीझ है कि सत्ता और जनता का साझा आचरण बदल गया है। केंद्र से लेकर राज्यों की सरकारें 'जनता का शासन’ चलाने की बजाय 'जनता पर शासन’ कर रही हैं। नतीजतन सरकारी सोच और काम की प्राथमिक शर्त अब न तो लोक कल्याणकारी है और न ही पारदर्शी। इस स्थिति पर देश के प्रथम नागरिक ने भी टिप्पणी की है। उन्होंने कहा है, 'यदि भारत की जनता गुस्से में है, तो इसका कारण है कि उन्हें भ्रष्टाचार तथा राष्ट्रीय संसाधनों की बर्बादी दिखाई दे रही है।’
देश के नागरिक समाज ने इस स्थिति को बदलने के लिए कुछ लोकतांत्रिक दरकारों और सरोकारों को बार-बार रेखांकित किया है। इसमें सबसे अहम् मुद्दा है प्रातिनिधिक लोकतंत्र के ढांचे को संभव स्तर तक प्रतिभागी बनाना। जनलोकपाल आंदोलन के प्रकटीकरण के पीछे के कारणों को अगर समझें तो साफ होता है कि जनता अपने लिए सुविधा ही नहीं नीति और कानून निर्माण के लिए भी सड़क पर उतर सकती है। महज इतना ही नहीं, सरकार के आगे जनता इस बात का भी लोकतांत्रिक दबाव बना सकती है कि वह महज उसके लिए नहीं बल्कि उसके साथ बैठकर जरूरी फैसले करे।
दिलचस्प है कि अराजनीतिक रूप से चल रही इस तरह की सुधारवादी कोशिश ने अब राजनीतिक विकल्प की भी शक्ल ले ली है। पर एक बड़ी कोशिश के ठोस विकल्प बनने की प्रक्रिया सघन और सुचिंतित होनी चाहिए। दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की जीत और फिर सरकार बनाने की घटना काफी अफरातफरी भरी रही है। आप ने जिस तरह के वादे जनता से किए और फिर सरकार बनाने के बाद वह जिस तरह अराजक स्थितियों को जन्म दे रही है, उसने कई सवाल खड़े किए हैं।
इस स्थिति पर राष्ट्रपति की टिप्पणी गौरतलब है। उनके ही शब्दों में, 'चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं। जो लोग मतदाताओं का भरोसा चाहते हैं, उन्हें केवल वही वादा करना चाहिए जो संभव है। सरकार कोई परोपकारी निकाय नहीं है। लोकलुभावन अराजकता, शासन का विकल्प नहीं हो सकती।’
देश की मौजूदा स्थिति और राजनीतिक स्तर पर बदलाव की कम-ज्यादा संभावनाओं के बीच देश के प्रथम नागरिक की टिप्पणियों और चिंताओं पर जब विचार करते हैं तो इससे काफी हद तक समाधान मिलता है। हालांकि यहीं से कुछ नए सवालों का प्रस्थान बिंदु भी तैयार हो जाता है। समाधान की बात यह है कि जैसा कि महामहिम खुद कहते हैं, 'मैं निराशावादी नहीं हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि लोकतंत्र में खुद में सुधार करने की विलक्षण योग्यता है। यह ऐसा चिकित्सक है जो खुद के घावों को भर सकता है और पिछले कुछ वर्षों की खंडित तथा विवादास्पद राजनीति के बाद 2०14 को घावों के भरने का वर्ष होना चाहिए।’
सवालों की नई जमीन इस पर तैयार हो गई है कि राष्ट्रपति को अभी ये सारी बातें कहने की जरूरत क्यों पड़ी। क्या इससे पहले का देश का लोकतांत्रिक इतिहास उन चिंताओं से सर्वथा मुक्त रहा, जिस पर आज चिंता जताई जा रही है? क्या देश लोकतांत्रिक संस्थाओं के अवमूल्यन की इमरजेंसी जैसी हिमाकत तक पहुंच गया है? क्या सरकारी अराजकता का नया खतरा 1984 में सिख दंगों के दौरान 'एक बड़ा पेड़ गिरने पर धरती के स्वाभाविक कंपन’ से भी बड़ा है? सवाल यह भी कि लोकतंत्र क्या इतना लकीर का फकीर है कि उसे आंदोलन और बदलाव जैसी स्थितियां या तो असंवैधानिक लगती हैं, या फिर अमर्यादित?
बहरहाल, इस मुद्दे पर यह तो मानकर ही चलना चाहिए कि राष्ट्रपति महोदय ने जो भी बातें कहीं, वह किसी एक घटना, सरकार या पार्टी तक सीमित न होकर संपूर्ण राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में महत्वपूर्ण होंगी, नहीं तो अनावश्यक विवाद पैदा होगा। अलबत्ता इस पूरे विमर्श में कुछ चीजें पहले से जरूर साफ होनी चाहिए। एक तो यह कि बीते दो-तीन सालों में जनता एकाधिक बार सरकार के खिलाफ अपने आक्रोश को लेकर सड़कों पर उतरी तो विरोध प्रदर्शन का यह तरीका हर लिहाज से अहिंसक था।
लिहाजा, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि कम से कम जनता की मन:स्थिति अब भी हिंसक या अराजक नहीं है। रही दिल्ली की आप की सरकार और उसके कामकाज के तौर-तरीके की तो इस बारे में सर्वसम्मत सराहना की स्थिति तो कतई नहीं है। यह जरूर है कि सरकार और जनता के बीच साझेदारी बढ़ाने के लोकतांत्रिक तकाजे को जरूर आप ने फिर से रेखांकित किया है। क्योंकि कम से कम यूपीए-2 सरकार के कार्यकाल को देखें तो इस दौरान न सिर्फ जनता की नजरों में सरकार की विश्वसनीयता में कमी आई है बल्कि पूरी राजनीतिक जमात की साख पर भी बट्टा लगा है।
सार्वजनिक जीवन की गरिमा में आए इस तरह के ह्रास को सादगी और ईमानदारी जैसी कुछ कसौटियों पर चुनावी चुनौती की पटकथा जिस तरह आप ने दिल्ली में लिखी और आगे लोकसभा चुनाव में उसके विस्तार को लेकर वह जिस तरह से ललक से भरी है, वह थोड़ा सोचने पर मजबूर करती है। आज हर तरफ से आप को इस सवाल से दो-चार होना पड़ रहा है कि उसकी वैचारिक अवधारणा का सार क्या है। कोई क्रांति कम से कम विचार शून्यता से तो नहीं पैदा हो सकती है। ऐसे लोग चुनावी राजनीति में जनता को विकल्प के नाम पर गुमराह भी कर सकते हैं। इस स्थिति पर चिंता महामहिम ने भी जताई है- 'चुनाव किसी व्यक्ति को भ्रांतिपूर्ण अवधारणाओं को आजमाने की अनुमति नहीं देते हैं।’ राष्ट्रपति का यह कथन उन सवालों का जवाब और चिंताओं का समाधानकारी सार है, जिस पर उनकी ही कही कुछ बातों के बाद हर तरफ चर्चा हो रही है।

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