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रविवार, 8 अप्रैल 2012

दो साला हार और शिक्षा का अधिकार

 दो साल हो गए शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए । यहां से पलटकर देखने पर रास्ता भले बहुत लंबा न दिखे पर अब तक के अनुभव कई बातें जरूर साफ करती हैं। मनरेगा जैसा ही हश्र इस कानून का भी होता दिख रहा है। प्रथम संस्था द्वारा तैयार की गई प्राथमिक शिक्षा की सालाना स्थिति पर तैयार 'असर' रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकन दर तो 96.7 फीसद तक पहुंच गई है पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नहीं दिखती है। 2007 की स्थिति से तुलना करें तो स्कूलों में पढ़ने पहुंचने वाले बच्चों का फीसद 2011 में 73.4 से खिसक कर 70.9 पर आ गया है। यही नहीं मुफ्त खाने का प्रलोभन परोसकर प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने का दावा करने वाली सरकारी समझ का नतीजा यह है कि न तो बच्चों को ढंग से भोजन मिल रहा है
और न ही अच्छी शिक्षा। ग्रामीण इलाकों में हालत यह है कि तीसरी जमात में पढ़ने वाले हर दस में से बमुश्किल एक या दो बच्चे ऐसे हैं, जो अक्षर पहचानत हैं। 27 फीसद ऐसे हैं जो ढंग से गिनती नहीं जानते हैं। 60 फीसद को अंकों का तो कुछ ज्ञान जरूर है पर जोड़-घटाव में उनके हाथ तंग हैं।
उत्तर भारत के कई राज्यों में खासतौर पर इस तरह की शिकायतें दर्ज की गई  और बताया गया कि कागजी खानापूर्ति के दबाव में बच्चों को कक्षाएं फलांगने की छूट जरूर दे दी जा रही हैं पर तमाम ऐसे बच्चे हैं जो पांचवीं जमात में पहुंचकर भी कक्षा दो की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पाते। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल लगातार शिक्षा के विस्तार और तरीके में सुधार के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। धरातल पर जो सचाई है उसका भी पता मंत्री महोदय को है पर इस नाकामी के कारणों में जाने के बजाय वे आगे की योजनाओं की गिनती बढ़ाने में व्यस्त हैं। अब जब वह यह कहते हैं कि उनका सारा जोर रटंत तालीम की जगह रचनात्मक दक्षता उन्नयन पर है तो यह समझना मुश्किल है कि वे इस लक्ष्य को आखिर हासिल कैसे करेंगे।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों का नेटवर्क ठप पड़ता जा रहा है। देश के 25 फीसद बच्चे अभी ही प्राइवेट स्कूलों का रुख कर चुके हैं आगे यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही। केरल और मणिपुर में यह आंकड़ा अभी ही साठ फीसद के ऊपर पहुंच चुका है। लिहाजा सरकारी स्तर पर यह योजनागत सफाई जरूरी है कि वह सर्व शिक्षा का लक्ष्य अपने भरोसे पूरा करना चाहते हैं या निजी स्कूलों से। क्योंकि यह एक और खतरनाक स्थिति गांव से लेकर बड़े शहरों तक पिछले कुछ सालों में बनी है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मानक ही प्राइवेट स्कूल हो गए हैं। जबकि सचाई यह है कि यह सिर्फ प्रचारात्मक तथ्य है। अगर दसवीं और बारहवीं के सीबीएसई नतीजे को एक पैमाना मानें तो साफ दिखेगा कि सरकारी ही अब भी तालीम के मामले में असरकारी है। लिहाजा सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार के बगैर देश में शिक्षा का कोई बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाना नामुमकिन है।  और इस नामुमकिन को बदलने के लिए हर मुमकिन कोशिश होनी ही चाहिए।

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