बिहार अपनी राज्य स्थापना के सौ साल जिस सरकारी-असरकारी तौर पर मना रहा है, उसमें सिर्फ हर्ष या गौरवबोध शामिल नहीं है। दरअसल, यह एक ऐसा मौका है, जब यह प्रदेश अपनी शिनाख्त को नए सिरे से गढ़ना चाहता है। पिछले दो-तीन दशकों में बिहारी होना जिस तरह गरीब, अशिक्षित, असभ्य और पिछड़े होने की लांछना में तब्दील हुआ है, उसने इस प्रदेश को लेकर नए सांस्कृतिक विमर्श की दराकर पैदा की है। यह विमर्श अब बौद्धिक के साथ राजनीतिक चेतना की भी शक्ल ले रहा है। आलम यह है कि अब बिहार में हर स्तर पर विकास और समृद्धि का अपवाद होने के बजाय इसका उदाहरण बनने की भूख है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की राजधानी में जब राज्य स्थापना के शताब्दी समारोह के शुभारंभ के मौके पर यह कहा कि अगर बिहारी दिल्ली में एक दिन काम बंद कर दें तो यह महानगर ठहर जाएगा, कहीं न कहीं उस लांछना का ही राजनीतिक शैली में दिया गया जवाब था, जो पिछले वर्षों में दिल्ली और मुंबई में बिहारी अस्मिता को चोटिल करने के लिए लगाए गए थे। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ परंपरा भले न ठहराया जाए पर इसके पीछे की वजहों को खारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। आज जबकि भारतीय संघ में शामिल एक महत्वपूर्ण प्रदेश अपनी अस्मिता पर रोशनाई को रौशन पहलू में बदलने को ललक रहा है तो कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि बिहार में राजनीति से लेकर शिक्षा और कारोबार के क्षेत्र में एक बेहतर शुरुआत की अभी भूमिका भर तैयार हुई है। यह भूमिका भी जरूरी है इसलिए पिछले पांच-सात साल अगर इसमें लगे हैं तो वे फिजूल नहीं गए हैं। पर अब यहां से इस प्रदेश को आगे के लिए कदम बढ़ाने शुरू करने होंगे, साथ ही इस यात्रा में एक सातत्य भी जरूरी है। कई बार इतिहास और परंपरा का मोह मौजूदा चुनौतियों से मुंह ढांपने का बहाना भी बनता है। यह खतरा नया बिहार का सपना आंज रही सरकार के साथ उन तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के आगे भी है, जिनमें आज गजब का उत्साह देखने को मिल रहा है।
दूसरी बात यह कि बिहार में पिछले दो विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो नया और आशावादी सत्ता समीकरण पैदा किया है, वह आगे भी सशक्त और कारगर रहे इसके लिए जरूरी है कि इसके नतीजे प्रदेश की जनता को देखने को मिलें। अभी गरीबी को लेकर एक आंकड़ा योजना आयोग ने पेश किया है, इसमें बिहार सबसे नीचले पायदान पर है। विकास दर के आंकड़े और सत्ता के वर्ष गिनाने से बिहार के हिस्से आई परेशानी दूर नहीं हो सकती। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार को अपने शताब्दी वर्ष में जितना इतिहास से सीखने का मौका मिलेगा, उतना ही भविष्य को भी सुंदर और सुफल बनाने का भी।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की राजधानी में जब राज्य स्थापना के शताब्दी समारोह के शुभारंभ के मौके पर यह कहा कि अगर बिहारी दिल्ली में एक दिन काम बंद कर दें तो यह महानगर ठहर जाएगा, कहीं न कहीं उस लांछना का ही राजनीतिक शैली में दिया गया जवाब था, जो पिछले वर्षों में दिल्ली और मुंबई में बिहारी अस्मिता को चोटिल करने के लिए लगाए गए थे। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ परंपरा भले न ठहराया जाए पर इसके पीछे की वजहों को खारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। आज जबकि भारतीय संघ में शामिल एक महत्वपूर्ण प्रदेश अपनी अस्मिता पर रोशनाई को रौशन पहलू में बदलने को ललक रहा है तो कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि बिहार में राजनीति से लेकर शिक्षा और कारोबार के क्षेत्र में एक बेहतर शुरुआत की अभी भूमिका भर तैयार हुई है। यह भूमिका भी जरूरी है इसलिए पिछले पांच-सात साल अगर इसमें लगे हैं तो वे फिजूल नहीं गए हैं। पर अब यहां से इस प्रदेश को आगे के लिए कदम बढ़ाने शुरू करने होंगे, साथ ही इस यात्रा में एक सातत्य भी जरूरी है। कई बार इतिहास और परंपरा का मोह मौजूदा चुनौतियों से मुंह ढांपने का बहाना भी बनता है। यह खतरा नया बिहार का सपना आंज रही सरकार के साथ उन तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के आगे भी है, जिनमें आज गजब का उत्साह देखने को मिल रहा है।
दूसरी बात यह कि बिहार में पिछले दो विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो नया और आशावादी सत्ता समीकरण पैदा किया है, वह आगे भी सशक्त और कारगर रहे इसके लिए जरूरी है कि इसके नतीजे प्रदेश की जनता को देखने को मिलें। अभी गरीबी को लेकर एक आंकड़ा योजना आयोग ने पेश किया है, इसमें बिहार सबसे नीचले पायदान पर है। विकास दर के आंकड़े और सत्ता के वर्ष गिनाने से बिहार के हिस्से आई परेशानी दूर नहीं हो सकती। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार को अपने शताब्दी वर्ष में जितना इतिहास से सीखने का मौका मिलेगा, उतना ही भविष्य को भी सुंदर और सुफल बनाने का भी।
bahut sahi baat kahi prem prakash ji , main bhi sahmat hoon aapki baat se , aur mujhe bihari hone ka garv hai .
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