फौजी जीवन के प्रति हम सम्मान तो खूब जता देते हैं पर उनके भीतर के संघर्ष और मानसिक दबाव को नहीं समझते हैं। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि हम यह मानकर चलते कि सैनिकों की जानें सिर्फ सरहद पर दुश्मन की गोलियों से या फिर नक्सली-आतंकी भिड़ंत में ही जाती हैं। पिछले साल आतंकी घटनाओं में 65 जवान शहीद हुए जबकि इसी दौरान 99 जवानों ने खुद अपनी जीवनलीला समाप्त की और ऐसा करने वालों में महज 23 अशांत इलाकों में तैनात थे। 76 जवानों ने तो शांतिपूर्ण इलाकों में तैनाती के बावजूद आत्महत्या का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया।
सैनिकों में खुदकुशी की प्रवृत्ति हाल के सालों में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 2007 में जहां मात्र 42 जवानों ने आत्महत्या की, वहीं उसके बाद के सालों में क्रमश: 150, 110, 115 और 99 ने यह दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। साफ है कि जवानों की कार्यस्थिति और मनोदबावों के बारे में गंभीरता से विचार करने की दरकार है। क्योंकि कहीं न कहीं यह समस्या सुरक्षा प्रहरियों के गिरते आत्मबल का भी है। फिर इस गिरावट के साथ अगर हमारे जवान अपने फर्ज को अंजाम दे रहे हैं तो न सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से बल्कि मानवीय आधार पर भी यह एक खतरनाक स्थिति है।
एक तो हाल के सालों में खासतौर पर सरकारी स्तर पर यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि वह हर चुनौतिपूर्ण स्थिति से निपटने का आसान तरीका सेना की तैनाती है। ऐसे में जवानों पर कार्य दबाव जहां असामान्य तौर पर बढ़ा है। आलम तो यह है कि कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने के लिए पूरे देश में सघन पुलिस तंत्र है पर भरोसे के अभाव में हर जोखिम भरी स्थिति में सेना की तैनाती को आसान विकल्प मान लिया गया है। यह सैनिकों की कार्यक्षमता और कुशलता का यंत्रनापूर्ण दोहन है।
इस बारे में नीतिगत रूप में सरकार को फैसला लेना चाहिए कि आंतरिक और वाह्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों के अलावा मात्र प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ही सैन्य तैनाती के विकल्प पर विचार किया जाएगा। इसके अलावा सैनिकों के पारिवारिक जीवन को भी पर्याप्त महत्व दिया जाए ताकि तैनाती के दौरान उन पर कोई अतिरिक्त मानसिक दबाव न हो।
रक्षा मंत्रालय जरूर ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए सैनिकों के लिए मनोचिकित्सीय परामर्श और योग प्रशिक्षण जैसे कार्यक्रमों पर जोर जरूर दे रहा है पर इससे आगे और भी बहुत कुछ करने की दरकार है। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्यादातर जवान अपने बीवी-बच्चों से महीनों अलग रहने के कारण भीतर ही भीतर घुटन और निराशा से भरने लगते हैं और अंत में हारकर आत्महत्या जैसा फैसला लेने को मजबूर हो जाते हैं।
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