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रविवार, 8 अप्रैल 2012

समृद्धि के इकहरेपन के कारण

1991 से ग्लोबल विकास की दौड़ में शामिल भारत भले आज एक दमदार अर्थव्यवस्था के रूप में पूरी दुनिया में देखा जाता हो पर देश के अंदरूनी हालात अब भी खासे विरोधाभासी हैं। सुपर इकोनोमिक पावर होने की हसरत रखने वाले देश की आधी आबादी आज भी खुले में शौच को मजबूर है। इसके उलट 63.2 फीसद आबादी ऐसी है, जो मोबाइल फोन का इस्तेमाल करती है। साफ है कि विकास के नए आग्रहों ने जहां जनजीवन में स्थान बनाया है, वहीं गरीबी और पिछड़ेपन की चंगुल से अब भी लोग पूरी तरह निकल नहीं पाए हैं। गनीमत है कि गुजरे 20 सालों में विकास के इस गाढ़े होते विरोधाभास और वर्गीय अंतर को अब हमारी सरकार भी कबूलती है। समावेशी विकास की सरकारी हिमायत के पीछे कहीं न कहीं यह कबूलनामा ही है।
जनगणना-2011 के आंकड़ों के विश्लेषण में कहीं न कहीं यह तथ्य भी रेखांकित हुआ है कि देश में एक तरफ सुविधाओं के अधिकतम उपभोग की होड़ पैदा हुई है, वहीं कई ऐसे इलाके और तबके भी हैं, जहां लोगबाग आज भी विकास के बुनियादी सरोकार तक से कटे हुए हैं। देश के 49 फीसद घरों में अगर आज भी खाना पकाने के लिए सूखी लकडि़यों का इस्तेमाल होता है और नल से पेयजल की पहुंच मात्र 43 फीसद लोगों तक है, तो साफ है कि हमारी विकास नीति देश की तकरीबन आधी आबादी की जिंदगी का अंधेरा दूर करने में विफल रही है। जनगणना आंकड़ों के विश्लेषण में यह बात साफ झलकती है कि पानी-बिजली-सड़क जैसे आधाराभूत क्षेत्रों में अब भी हम काफी पीछे हैं।
मसलन, 2005 में बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की शुरुआत हुई थी। योजना का लक्ष्य 87 फीसद बगैर बिजली की सुविधा वाले घरों तक बिजली पहुंचाने की थी पर आलम यह है कि अब भी सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां तक या तो यह योजना नहीं पहुंची है या फिर काम अधूरा है। पेयजल उपलब्धता आैर सफाई-स्वच्छता से संबंधित कार्यक्रमों की भी यही हालत है। दरअसल, यह स्थिति इसलिए भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में सरकार का ध्यान विकेंद्रित के बजाय केंद्रित विकास की तरफ ज्यादा रहा है।
नतीजा यह कि एक तरफ देशभर में अरबपतियों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही है, वहीं कम से कम 14 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो कुपोषण का शिकार हैं। यह विरोधाभासी अंतर हमारे विकास और समृद्धि के इकहरेपन के कारण है। सरकार अब वर्ष 2020 को लक्ष्य करके देश को समावेशी विकास लक्ष्य की ओर ले जाने की तैयारी कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले कुछ सालों में विकास का उजाला सबके हिस्से में आएगा।        

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