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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

खादी से चलकर खाकी तक


गिरावट खादी से शुरू होकर खाकी तक पहुंच गई है। सार्वजनिक जीवन में पतित आचरण का रोना तो अब कोई रोना भी नहीं चाहता। सब मान चुके हैं कि इस स्यापे का कोई मतलब नहीं। आखिर अपनी नाक को किसी दूसरे के चेहरे पर देखने की हसरत कभी पूरी हो भी  नहीं सकती। राजनीति को लेकर हमारी शिकायत का मतलब कुछ ऐसा ही है। बहरहाल खाकी को लेकन रुदन अभी जारी है। खादी के बाद बारी खाकी की। सब चाहते हैं कि पुलिस की लाठी और नाक दोनों बची रही ताकि हम बचे रहें, सुरक्षित रहें। अलबत्ता यहां भी अपेक्षा और सचाई के बीच खतरनाक घालमेल है, जो कि जाहिरा तौर पर नहीं होना चाहिए।  नागरिक सुरक्षा का खाकी रंग अब उतना भरोसेमंद नहीं रहा, जितना वह पहले था या उससे अपेक्षित है। दरअसल, यह तथ्य जितना सत्यापित नहीं है, उससे ज्यादा प्रचारित। आलम यह है कि पुलिस महकमे को लेकर हमारे अनुभव चाहे जैसे भी हों, पूर्वाग्रह खासे नकारात्मक हैं।
राजधानी दिल्ली में अपराध की घटनाएं तेजी से सुर्खी बनती हैं। लिहाजा, हर घटना को लेकर पुलिस कार्रवाई पर सबकी नजर रहती है। सफलता का श्रेय यहां की पुलिस को मिले न मिले, नाकामी पर खरी-खोटी सुनाने की उदारता मीडिया और समाज साथ-साथ बरतता है। जबकि एक तटस्थ और तुलनात्मक नजरिए से देखें तो दिल्ली पुलिस की कुशलता देश में सबसे बेहतर मानी जाएगी। और यह स्थिति तब है जबकि देश की राजधानी में तैनाती के कारण उसके आगे चुनौतियां भी सबसे ज्यादा हैं।
कुछ महीने पहले पुलिस सुधार की हिमायत करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंशा भी जाहिर की थी कि वह दिल्ली पुलिस को हर लिहाज से देश के पुलिस महकमे के लिए आदर्श बनाना चाहते हैं। हाल में दिल्ली की एक व्यस्ततम सड़क पर एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए चार्टड बस के ड्राइवर की जिस जांबाजी के साथ जान बचाई, उसे देखकर प्रधानमंत्री के इरादे की वजह समझ में आती है। दरअसल, नागरिक जीवन में तेजी से पसरती और गाढ़ी होती संवेदनहीनता के नजारे हम अक्सर सड़कों और अस्पतालों में देखते हैं। जब कोई दुर्घटना या बीमारी के कारण जिंदगी से जूझ रहा होता है और हम सब कुछ देख-समझकर भी खिसक लेने की चालाक पर बर्बर बर्ताव आसानी से दिखाते हैं।
पुलिस का महकमा इस लिहाज से खासा जवाबदेह और महत्वपूर्ण है कि संकट की आसन्न स्थितियों में सबसे पहले मदद की अपेक्षा उसी से होती है। यह उम्मीद आज इस कारण भी बढ़ गई है कि हमारे आसपास का समाज हमें हर लिहाज से नाउम्मीद कर रहा है। दिल्ली के दरियागंज थाने में तैनात इंस्पेक्टर प्रमोद जोशी की बहादुरी इस उम्मीद पर जिस तरह खरी उतरी है, वह हर लिहाज से प्रशंसनीय है। मीडिया ने भी इस खबर को जिस तरह दिखाया और छापा, वह काबिले तारीफ है।
दिलचस्प है कि प्रमोद जोशी के कंधे पर न तो फीते कम होते और न ही उसे इस कारण लाइन हाजिर किया जाता कि उसने अपनी आंखों के सामने घटी घटना पर संवेदनशील रवैया क्यों नहीं अपनाया। पर यह सोच अगर खाकी वर्दी पहने हर जवान के जमीर पर हावी हो जाए तो वह विश्वसनीयता सिरे से ही गायब हो जाएगी जो आज भी पुलिस के किसी जवान को देखकर कमोबेश हमारे दिलोदिमाग में पैदा होती है। जोशी अपने पुलिसिया ओहदे में बहुत बड़े नहीं हैं, लेकिन जिस तरह उसने आग लगी बस के पास से उसके ड्राइवर को बगैर जान की परवाह किए बगैर बचाया, वह फर्ज अदायगी जरूर इतनी बड़ी है जिसकी न सिर्फ तारीफ हो बल्कि उससे जरूरी सबक भी लिया जाए। खाकी रंग भरोसे का है, यह भरोसा एक बार फिर से गाढ़ा किया है प्रमोद की बहादुरी ने।

3 टिप्‍पणियां:

  1. खाकी में गिरावट कब नही रही पूरबिया भाई,

    अब तो कलम, न्याय की देवी, सेना की वर्दी, स्टेथोस्कोप...और भी न जाने क्या-क्या इस सूची में जोड़ते जाइए...

    जय हिंद...

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  2. खुशदीप... भरोसा एक बार फिर से गाढ़ा किया है प्रमोद की बहादुरी ने

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