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शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

'सत्य' भी हो यह रिकार्ड 'तथ्य'


आंकड़े तथ्य होते हैं और तथ्य तात्कालिक। रही सत्य की बात तो इसके पीछे तथ्य इतना ही है कि इसका आधार और सार दोनों सार्वकालिक, सार्वकालिक और कल्याणकारी होते हैं। बहरहाल, बात उस तथ्य की जो आंकड़े की शक्ल में एक बार फिर हमारे सामने आया है। सरकार खुश है बहुत यह घोषणा करते हुए कि वर्ष 2010-11 के बीच खाद्यान का रिकार्ड उत्पादन होगा। अगर यह अनुमान अचूक तथ्यगत आधारों पर है तो इसका सकारात्मक असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी आने वाले हफ्ते-महीनों में दिखना शुरू हो जाएगा।
एक तरफ जहां खाद्य मुद्रास्फीति की दर गिरने की संभावना जताई जा रही है, वहीं दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा बिल जैसे अटके मामलों पर सरकारी कदम अब तेजी से बढ़ेंगे, यह उम्मीद भी की जा रही है। पर ये सारी स्थितियां अनुमानित हैं, अभी इन्हें यथार्थ होना है। जहां तक अनाज उत्पादन में स्वावलंबी होने की बात है तो ये स्थिति देश के लिए नई नहीं है। हरित क्रांति के बाद मौसम की जब-तब की बेरुखी को छोड़ दें तो किसानों की मेहनत और पुरुषार्थ हमेशा रंग लाई है। हां, यह जरूर है कि अब हमारा स्वावलंबन रिकार्ड उपलब्धि का आंकड़ा दर्ज करा रहा है।
2010-11 के जुलाई से जून के बीच  23.58 करोड़ टन का अनुमानित खाद्यान्न उत्पादन, ऐसा ही एक रिकार्ड है। इससे पहले देश में 2008-09 में सबसे ज्यादा 23.44 लाख टन खाद्यान का उत्पादन हुआ था। बीच के दो साल में मौसम की मार से अनाज उत्पादन गिरा, सरकारी तर्क यही है और सरकार के बाहर भी इस तर्क पर तकरीबन सहमति है। बीते दो सालों में खाने-पीने की चीजों की महंगाई का रोना कमोबेश आम जनता रोती रही है। बीते 19 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह में भी जो खाद्य मुद्रास्फीति की दर रिकार्ड की गई है, वह 9.5 फीसद है। जाहिर है महंगाई का बोझ कुछ कम हुआ है पर अब भी यह सामान्य दर से ज्यादा है। ऐसे में अगर खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं तो सरकार खाद्यान की कमी या उसके वितरण में गड़बड़ी का बहाना आसानी से नहीं बना पाएगी।
साफ है कि आने वाले दिनों में यह बहुत कुछ सरकारी प्रयासों पर ही निर्भर करेगा कि वह रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन को आम उपलब्धता के रूप में किस तरह तब्दील कर पाएगी। रही बात खाद्य सुरक्षा बिल का तो यह मुद्दा सरकार के एजेंडे में तो जरूर लगातार टंगा हुआ है पर अब भी इसका एक असरकारी कदम के रूप में क्रियान्वयन बाकी है। अनाज उत्पादन में स्वाबलंबी होना और रिकार्ड उपलब्धि की तरफ बढ़ना सरकार को इस दिशा में भी फौरी कार्रवाई के लिए अगर प्रेरित करता है तो यह एक आदर्श स्थिति होगी। पर दुर्भाग्य से खाद्य सुरक्षा बिल के लटकने के पीछे मूल कारण अनाज की उपल्बधता की बजाय वह सरकारी तंत्र है, जो आज तक यह तय ही नहीं कर पाया कि गरीबी का स्तर तय करने का मान्य पैमाना क्या हो और इसके तहत लाभान्वितों की अंतिम संख्या कितनी मानी जाए।
सरकार और राज्य आज तक इस बात पर भिड़ रहे हैं कि बीपीएल परिवारों की सही संख्या क्या है। राज्य ज्यादा केंद्रीय अनुदान की चक्कर में इसे बढ़ाकर पेश करते हैं तो केंद्र के लिए यह मानना नाक कटाने जैसा होता है कि उसके लाख प्रयासों के बावजूद देश में तंगहालों की गिनती बढ़ी है। दरअसल आंकड़ों में 'अनर्थ' को 'अर्थपूर्ण' दिखाने की जुगत अभी इस बात के लिए तैयार ही नहीं है कि सारी आर्थिक सफलता और उन्नति के बीच समाज का एक बड़ा तबका आज भी अनाज, अक्षर और आवास के लिए मोहताज है। रिकार्ड अनाज उत्पादन का सार्थक मतलब तभी है जब ये मोहताजी हमारा मुंह न चिढ़ाए। सरकार का रिकार्ड इस मोहताजी के खिलाफ भी बने तो फिर उसे आंकड़ों के कसीदे अपनी तरफ से पढ़ने की शायद जरूरत भी न पड़े। क्योंकि तब उसकी सफलता 'तथ्य' को लांघकर 'सत्य' हो जाएगी।         

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