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रविवार, 6 मार्च 2011

नाबालिग दुनिया में बालिग नाखून


यौनिकता का अध्याय सौंदर्यशास्त्र में भी शामिल है और समाजशास्त्र भी मनुष्य की इस वृति को अपने अध्ययन के लिए जरूरी मानता है। पर यही यौनिकता आज अपने बढ़े नाखूनों और हिमाकतों के साथ अपराध की सबसे संगीन दुनिया को आबाद कर रही है। अपराध की यह  दुनिया भीतरी तौर पर जितनी सघन है, बाहरी दुनिया में भी इसका विस्तार उतना ही हुआ है। भीतर-बाहर जहां तक यौनिक अपराध की नीली रौशनी पहुंची है, उसे देख मनुष्यता को रचने वाली ताकतों की त्रासद स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
बहरहाल, बात बाल यौन शोषण की। यह मुद्दा बड़ा है पर उससे भी ज्यादा अहम है कि हम इस मुद्दे को किस रूप में देखते हैं। सरकार ने अब तक के अपने अध्ययनों और समझ के आधार पर इस मुद्दे पर कानूनी सख्ती की पहल नए विधेयक के जरिए की है। यह  सराहनीय है। सराहना महज इसलिए नहीं कि इससे इस बर्बर अपराध पर पूरी तरह लगाम कसी जा सकेगी बल्कि इसलिए कि बचपन तक को अपने नाखूनों और जबड़ों में लेने वाली मानसिकता के खिलाफ राष्ट्रीय चिंता और जागरूकता का आधार इससे काफी व्यापक हो जाएगा। केंद्रीय कैबिनेट ने इस बाबत जिस विधेयक को मंजूरी दी है, उसमें कुल नौ अध्याय और 44 धाराएं हैं। प्रस्तावित कानून में बाल यौन अपराध के ज्यादातर प्रचलित प्रसंगों को समेटने की कोशिश की गई है। इसके मुताबिक अगर यौन अपराध को बच्चे के किसी विश्वासपात्र या उसके संरक्षण का दायित्व निभाने वाले किसी व्यक्ति, सुरक्षा बलों के सदस्य, पुलिसकर्मी, लोकसेवक, बालसुधार गृह से जुड़े लोग, अस्पताल या शैक्षणिक संस्थानों के किसी सदस्य ने अंजाम दिया तो उसे संगीन अपराध माना जाएगा।
जाहिर है कि सरकार का इरादा उस पूरे परिवेश को बच्चों के प्रति खास तौर पर संवेदनशील बनाने का है, जहां बच्चों को कायदे से सबसे ज्यादा सुरक्षित माहौल मिलना चाहिए। प्रस्तावित बिल की धारा सात को लेकर चर्चा सबसे ज्यादा है। इसके तहत 16 से 18 साल के बच्चों के बीच साझी सहमति से बने यौन संबंध को लेकर किसी तरह की सजा का प्रावधान नहीं है। कह सकते हैं कि सेक्स को लेकर रजामंदी की उम्र कानून की नई प्रस्तावित व्याख्या में बालिगाना दहलीज के भीतर दाखिल हो गई है। विधेयक की इस प्रस्तावना के हिमायती और विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ को लगता है कि नई खुली और बदली जीवनशैली ने यौन संबंधों को लेकर किशोरों और युवाओं की सोच-समझ को काफी हद तक बदल दिया है। खुले बाजार की छतरी में गढ़ा गया यह नया समाजशास्त्र कई लोगों को खासा खतरनाक लगता है। पर इस बात से तो शायद ही कोई इनकार करे कि हमारी सामाजिक परिस्थतियां अब कई मामलों में पहले जैसी नहीं रही।
नया बदलाव परंपरा के ठीक उलट जरूर है पर यह नए समय की सचाई भी है। लिहाजा, इन पर विचार करते हुए आंख और दिमाग के खुलेपन की दरकार है। सरकार का विधेयक अभी प्रस्तावित है। लिहजा, बहस और चर्चा की गुंजाइश अभी खत्म नहीं हुई है। विधेयक को लाने की तत्परता को देखते हुए यह तो साफ है कि सरकार की मंशा बाल यौन अपराध के खिलाफ गंभीर और कारगर पहल करने की है। इसलिए यह जरूरी है कि स्वयंसेवी संगठनों से लेकर संबंधित सरकारी विभाग और मंत्रालय इस बाबत सहमतियों और असहमतियों के बीच मजबूत लोकतांत्रिक निर्णय तक पहुंचें। विवाद और विरोध के कारण कई बड़ी पहल बीच रास्ते में ही रुक जाती है, जैसा कि महिला आरक्षण बिल को लेकर हो रहा है। भूलना नहीं होगा कि बाल यौन अपराध महज अपराध नहीं बल्कि यह एक  संवेदनशील समाज रचना के बुनियादी संकल्प के आधार को ही चुनौती है। और अगर कबूलनी ही है तो चुनौती इस आधार की पुष्टता को बनाए और बचाए रखने की कबूलनी होगी। 

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