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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

बोध अपराध का अबोध


हर दौर अपने पिछले दौर और समय की चुगली करता है। पर हमारा दौर सिर्फ इस मायने में ही अपने पिछले दौरों से जुदा नहीं है। पहली बार है कि हम कई उन बातों के बदलने या ना होने पर सिर पीट रहे हैं, जो अब तक हमारे जेहन के लिए सुकूनदेह हुआ करते थे। दरअसल, यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत का, संबंधों और संवेदनाओं के लगातार छीजते चले जाने का। वैसे यह पीड़ा और शिकायत भी नई नहीं है। इस तरह का रोना भी प्रबुद्ध चेतना की दुनिया में फर्ज अदायगी की अक्षर परंपरा बन चुकी है। पिछले तकरीबन दो दशकों में हमारा समय और समाज इन स्थितियों से इतनी बार दो-चार हो चुका है कि अब न तो कोई सनसनी उसे सहमाती है और न ही किसी त्रासद खबर पर वह चौंकता है। पर बावजूद इसके कहना तो यही पड़ेगा कि भीतर तक पसर जाने वाले जिस स्याह और क्रूर परिवेश को रचने व उसके साथ जीने की लाचारी को हम चाहकर भी नहीं लांघ पा रहे, वह मानवीय चेतना के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षाकाल है। हम इस इम्तहान से किनारा कर न तो किसी बेहतर समय की कल्पना कर सकते हैं और न ही भविष्य के किसी  सुनहरेपन को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।
बहरहाल, बात उस दुखद खबर की जो हालात की जघन्यतम परिणति को लेकर, जो एक बार फिर हमारे सामने थोड़ा संवेदनशील और एक अपेक्षित जिम्मेदार 'सामाजिक' के आचरण पर खरे उतरने की दरकार सामने रखती है। देश की राजधानी में कर्ज के बोझ से दबे एक बाप की मजबूरी उस सीमा को लांघ गई कि उसे इस बोझ से मुक्ति का मार्ग अपने बेटे की हत्या से ही निकलता महसूस हुआ। बेटा भी उम्र में महज चार साल का। यह घटना महज अपनी दुनियादारी में चूके और हारे मनुष्य के हिंसक मनोविज्ञान भर नहीं समझाता, बल्कि संबंधों के कथित सुरक्षा दायरे में घुसपैठ कर चुकी हिंसा के समाजशास्त्र का नया पन्ना यहां  से खुलता है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो एक बाप अपने अबोध बेटे के खिलाफ आपारिधिक षड्यंत्र को उस अंजाम तक नहीं ले जाता, जैसा कि इस घटना की शुरुआती जानकारी से जाहिर है। न सिर्फ मासूम की हत्या घर से दूर गला घोंटकर की गई बल्कि हत्या के शक की सूई दूसरी तरफ घूमे और कर्जदार होने का बोझ भी आसानी से सिर से उतर जाए, ये सारा ब्लूप्रिंट हत्यारे पिता के दिलोदिमाग में पहले से साफ था। लिहाजा, यह सिर्फ प्रतिक्रियात्मक अपराध भर नहीं, इसके पीछे है वह सामाजिक सच जिसके आगे संबंधों का हर धागा कमजोर है, संवेदना का हर आग्रह बेमानी है।
अब तक के हालात में यह क्रूरता सिर्फ महिलाओं के खिलाफ दिखती थी। पर अपराध की यह नई प्रवृत्ति यौन अपराध या महिलाओं के प्रति पुरुष दुराग्रह से भिन्न है। इस अपराध को हमारी जैविक रचना से भी जोड़कर नहीं देखा जा सकता। दरअसल, यह उस समय का सच है जिसने जिंदगी को साधन, सुविधा और अर्थ की फांस में जकड़कर रख दिया है। हमारा समय, हमारा समाज और साथ ही हमारी सरकार, विकास और उपलब्धि के नाम पर जिन चुभती सचाइयों पर आंखें मूंदती रही है, यह उसका ही प्रतिफलन है कि एक चार साल के बच्चे का जीवन जिन हाथों में सबसे ज्यादा सुरक्षित होना चाहिए था, वही हाथ उसका गला घोंटते हुए भी नहीं कांपे। परिवार, परंपरा, संबंध और संवेदना की गोद में दूध पीती सामाजिकता को कुचलकर आगे बढ़ने वाले कदम किस दिशा और मंजिल के आकांक्षी हैं, यह समझ हमारी चिंता के केंद्र से अगर अप्रासंगिक रूप से बाहर है तो एक बाप का हत्यारा होना और एक अबोध की मौत की खबर भी हमें शायद ही परेशान करें। पर शायद यह पूरा सच नहीं क्योंकि हम एक संवेदना विरोधी दौर के जरूर हमराही हैं, संवेदना शून्य दौर के नहीं। संवेदनाओं के साथ बची-खुची रिस्तों की गुंजाइश ही हमें जीवन को जीने का तर्क और भविष्य के लिए वर्तमान को रचने का मंत्र सीखा सकती है।   

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