एक ऐसे समय में जब छवियों की अतिशयता ने जीवन के एकांत तक को भर दिया है। यह बात समझनी थोड़ी असहज हो सकती है कि लोक की बनावट को जीवन रचना की तरह रेखांकित करने वाले सौंदर्यबोध की परंपरा ने हिंदी काव्य इतिहास को अनूठेपन को काफी हद तक और काफी दूर तक गढ़ा है। ऐसे में कई बार यह स्थिति विरोधाभासी लगती है कि पिछले तकरीबन दो दशकों में हिंदी के ठेठपन के हिमायती ज्यादातर नए कवियों के यहां इस परंपरा का न तो निर्वहन दिखाई पड़ता है और न ही उनकी कथित सामयिकता इस अनूठेपन का कोई विकल्प सूझाने का जोखिम ही उठाती है। बहरहाल, जिक्र हिंदी के वरिष्ठ कवि रवीन्द्र भारती के हालिया कविता संग्रह 'नचनिया' का।
इस संग्रह में लोक स्मृतियों का ऐसा जीवंत ताना-बाना बुना गया है कि आधुनिक समय में भी उनकी मौजूदगी का एहसास होता है। भारती के इस संग्रह की कविताओं का शीर्षक और आधार बिंब दोनों ही 'नाच' है। कुलीनता की नई शब्दावली से खारिज 'नाच' और 'नचनिया' जैसे शब्दों के बहाने लोकरंग की उस उत्सवी दुनिया से पहचान कराई गई है, जो महज फंतासी नहीं बल्कि एक ऐसा ठेठ और ठोस यथार्थ है, जिसके गुणधर्म और गुणसूत्र आज भी हमारी चेतना की जमीन को आद्र करते हैं- 'नाचो/ पीछे को आगे से जोड़े/ आगे को पीछे से बांधे/ नाचो कि नाचेगी दुनिया/ मियां यह नाच है।''नचनिया' से पहले अपने विलक्षण नाटक 'कंपनी उस्ताद' से खासी चर्चा और शोहरत पा चुके रवीन्द्र भारती चूंकि सामाजवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि से आते हैं, लिहाजा आधुनिकता के स्नो-पाउडर से चमकते चेहरे-मोहरों की बजाय वह 'धूल-धूसर गात' वाला लोक उन्हें ज्यादा खींचता है, जिसका विस्मरण अब काव्य अनुभूति के क्षेत्र की एक खतरनाक सचाई बनती जा रही है- 'उसके घूंघरू की आवाज/ यहां तक आ रही है छम्म, छम्म.../ बच्चे मुस्करा रहे हैं-/ लगता है जैसे वे नचनिया को नहीं/ विलुप्त हो रही किसी प्रजाति को देख रहे हैं।' 'नचनिया' जिस लोक का हिस्सा है या कि जिस लोक को रचता है, उसकी पदचाप भले पीछे छूट गई हो पर उसकी छाप को कवि ढोलक और मृदंग पर पड़ने वाली थाप की तरह महसूस करता है- 'मुहब्बत का पहला पाठ-/ किसी किताब ने नहीं, इन्हीं नचनियों ने पढ़ाया था।'
'नचनिया' के लोक में कवि सामयिक स्थितियों को पूरी तरह खारिज नहीं करता बल्कि वह आज के कई विरोधाभासी और विसंगतिपूर्ण स्थितियों को रेखांकित करता है। 'गुजरात' शीर्षक से संग्रह में दो कविताएं हैं। पर भारती के लिए गुजरात का टेक्स्ट नारावादी या प्रचारित बिंबों भर से महज नहीं बनता बल्कि उसकी लोकचेतना का कंपास ही यहां भी उसके दृष्टिकोण को तय करता है, तभी तो वह समकालीन 'गुजरात' की यात्रा पर जाते हुए हठात् कह उठता है- 'आगे क्या हुआ पता नहीं चला/ सिर्फ इतना मालूम हुआ कि सूत्रधार ने जैसे कहा-/ ग से गांधी/ व से वालदैन/ कि गोली चल गई।' मौजूदा गुजरात का रक्तिम यथार्थ कवि को विचलित भी करता है- 'गिद्ध कितना मंडरा रहे हैं.../ यह भी ससुरे हैं चिरई की जाति।'
लोकबोध की दरकार के साथ एक खतरा भी और वह खतरा है अतीतगामी होने का। भारती की काव्य चेतना ने भरसक इस खतरे का अतिक्रमण किया है पर वे यहां-वहां चूके भी हैं और ऐसा अनायास नहीं बल्कि जान-बूझकर हुआ दिखता है। 'नचनिया' संग्रह की एक कविता है 'दिल्ली में कथक'। वस्तुत: यह एक व्यंग्य कविता है जो केंद्रित विकास की भीतरी विरोधाभासी स्थितियों का खुलासा करती है। पर यहां भी कवि के भीतर का नचनिया न तो उसे ढ़ंग से आक्रोश से भरने देता है और न ही व्यंग्यात्मक अभिधा से आगे जाने देता है- 'बेलीक मत अलापिए राग, पकड़े रहिए/ संविधान की लय/ खैर छोड़िए राजनीति/ आजादी जवान भई/ कथक में आइए/ हां ता थई..तत/ थई..तत...थई।' वैसे इसे भारती के शिल्पगत मिजाज के रूप में भी देख सकते हैं, जहां एक कवि खुद से अपनी सीमा और मर्यादा दोनों तय करता है।
अंतिम तौर पर कोई राय 'नचनिया' को लेकर बनानी हो तो यही कह सकते हैं कि न सिर्फ समकालीन हिंदी काव्य चेतना बल्कि देश और समाज के बीच गढ़ी जा रही समकालीन चेतना के विरुद्ध यह संग्रह एक रचनात्मक हस्तक्षेप की तरह है। अच्छी बात यह है कि कवि की अंगुलियां समकालीन विसंगतियों की ओर कम बार उठी हैं। और जब भी उठी हैं तो ये अंगुलियां अपना लोक रचने, अपनी लोकमुद्राएं बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं। लोक अवहेलना और विस्मृति के दौर में नचनिया का नाच कोई स्वांग नहीं, जिस पर महज तालियां बजें और वाह-वाह हो। दरअसल यह एक निरगुनिया लोक संगीत है, जो लोक और परंपरा को एक सूर में अलापती है। हिंदी काव्य चेतना को इस सूर ने लंबे समय तक समृद्ध किया है, समकालीन स्थितियों में भी उसकी दरकार खारिज नहीं हुई हैं, ये बताती हैं भारती के नए संग्रह की 54 कविताएं।
नचनिया (कविता संग्रह) कवि : रवीन्द्र भारती प्रकाशक : राधाकृष्ण मूल्य : 150 रुपए
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (3/2/2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
shukria... VANDNA JEE!
जवाब देंहटाएंपुस्तक से परिचय कराने के लिए धन्यवाद..
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