चौहत्तर आंदोलन का मशहूर गीत है- 'जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है।' कवि और सर्वोदय कार्यकर्ता रामगोपाल दीक्षित गीत में एक जगह कहते हैं- 'आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है, तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रांति द्वार पर आई है।' दरअसल, देश के लिए जिंदगी से ज्यादा चमकदार होती है, देश के लिए कुर्बानी। समय, समाज और इतिहास तीनों ही शहादत की इस लाली को सबसे गहरे और सच्चे जज्बे के रूप में स्वीकारते रहे हैं, इन्हें सम्मान देते रहे हैं।
पर स्थिति तब उलट जाती है जब जान न्योछावर करने के आदर्श जज्बे के साथ जानबूझकर खिलवाड़ होता है, राजनीति होती है। पिछले दिनों मुंबई हमले में शहीद हुए शहीद मेजर उन्नीकृष्णन के चाचा के. मोहनन ने जिस आक्रोश से भरकर खुद को आग के हवाले किया, उसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। मोहनन ने वैसे भी राजधानी में वहां जहां देश की सबसे बड़ी पंचायत बैठती है, उससे महज कुछ दूरी पर ही इस अकल्पनीय कृत को अंजाम दिया। आसान है बहुत यह समझना कि उनके भीतर जलते सवालों का रुख किस तरफ था। जैसा कि मौके से बरामद सुसाइड नोट से जाहिर है कि मोहनन 26/11 के मुख्य आरोपी अजमल आमिर कसाब को अब तक फांसी न दिए जाने से खासा खिन्न थे। यह खिन्नता इससे पहले भी जनता की आवाज बनकर सड़कों पर कई बार अलग-अलग शक्लों में फूट चुकी है। यह और बात है कि कसाब को फांसी का मुद्दा अब तक सरकार और उसके विरोधियों के लिए महज पॉलिटिकल माइलेज लेने का वसीला ही ज्यादा रहा है। इसलिए इस मुद्दे पर जो सियासी बहस या प्रतिक्रिया अब तक सामने आई है, उससे जनता में भड़का गुस्सा शांत होने की बजाय और तेज ही हुआ है।
कानून की अपनी मयार्दाए हैं, जिनका पालन लाजमी है। पर उस रवैए का क्या जो इन मर्यादाओं की आड़ में अपना हित साधने से नहीं चूकते। बदकिस्मती से ऐसा करने वाले लोग न सिर्फ सरकार के जवाबदेह पदों पर बैठे हैं बल्कि उनके विरोधियों का रैवया भी तकरीबन ऐसा ही रहा है। 26/11 की घटना को अदालत तक ने 'देश पर आक्रमण' माना है। लिहाजा, इसके आरोपी के साथ बर्ताव को लेकर सरकार की सख्ती साफ दिखनी चाहिए। पर आलम यह है कि सरकार कसाब को फांसी तो दूर इस हमले से सीधे बावस्त पाकिस्तान तक के साथ अपने सलूक को अब तक निर्णायक कसौटी पर नहीं उतर पाई है। यह साफ तौर पर उस शहादत के साथ क्रूर मजाक है, जो देश के लिए कुर्बानी के जज्बे को सर्वापरि मानती है।
मोहनन तकरीबन 99 फीसद जल चुके हैं और शायद ही उनकी सांसें ज्यादा समय तक उनका साथ दें। पर उनके आक्रोश का लावा तब तक धधकता रहेगा, जब तक यह देश न सिर्फ कसाब को फांसी से झूलता देख ले बल्कि देश के खिलाफ उठने वाली हर आवाज, हर हाथ और हर दुस्साहस को उसी की भाषा में जवाब देना नहीं सीख लेता। भूले नहीं होंगे लोग कि जब शहीद उन्नीकृष्णन के घर कुछ औपचारिक आंसू, सांत्वना और फूलमाला लेकर केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन पहुंचे थे तो उनके पिता ने कितनी सख्त प्रतिक्रिया जताई थी। इस अपमान से बिफरे मुख्यमंत्री ने यह तक बयान दे डाला था कि अगर यह शहीद उन्नीकृष्णन का घर नहीं होता तो उनके दरवाजे पर कोई कुत्ता भी नहीं जाता। अच्युतानंदन को अपने इस बयान को लेकर काफी फजीहत उठानी पड़ी थी। आखिरकार हारकर उन्होंने माफी मांगी। देश के लिए शहीद होने के जज्बे को महज फर्ज अदायगी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। शहीद की विधवा और परिजन को सिलाई मशीन और फ्रेम में जड़े प्रशस्ति के कुछ शब्द और चांदी-तांबे के कुछ मेडल भर इसकी कीमत नहीं। इस महान जज्बे के कारण जिस पीड़ा और संकट से शहीद के परिजनों को गुजरना पड़ता है, उसका तो बगैर अनुभव के अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। मोहनन ने उस पीड़ा का एहसास सरकार को दिलाने के लिए जो तरीका अपनाया है, वह देश के नाम एक और कुर्बानी है।
सही कहा आपने। इसपर ध्यान दिया जाना चाहिए।
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समाधि द्वारा सिद्ध ज्ञान।
प्राक़तिक हलचलों के विशेषज्ञ पशु-पक्षी।