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गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

गोपन का ओपन



रोटी, कपड़ा और मकान ये तीन आदिम जरूरतें आदमी को जिलाए रखने के लिए तो जरूरी हैं पर अगर मनुष्य का दर्जा 'सामाजिक' का माना जाए तो इन जरूरतों से आगे उसे कुछ और भी हासिल करने की जरूरत है। यह समझ हमारे संविधान निर्माताओं की भी रही तभी उन्होंने मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी शामिल किया। अधिकार किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था में हमारे हाथ की तरह होते हैं, जिससे हम रचना और विकास की सीढ़ियां बनाते हैं और फिर अपने आरोहण के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। दुनियाभर में सभ्यतागत विकास के हर चरण को इन्हीं हाथों और सीढ़ियों ने संभव बनाया है।
अभिव्यक्ति की आजादी हमारी सामाजिक व लोकतांत्रिक साझी समझदारी का निर्माण करते हैं। विचार का समन्वयकारी चरित्र ही कल्याणारी भी है। पर इस चरित्र  का तब सबसे स्याह रूप सामने आता है जब हम इस आजादी को महज अपने 'गोपन' को 'ओपन' करने की सही-गलत सहूलियतों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
दो-तीन दशक पहले तक जिन इबारतों को लिखने के लिए गली-मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक शौचालयों के दीवारों का चोरी-चुपके इस्तेमाल होता था उसके लिए आज अनंत साइबर स्पेस है। कमाल की बात है कि इस स्पेस ने अभिव्यक्ति की आजादी को चाहे जितना सहज बनाया हो पर इस आजादी के मुंह पर स्वच्छंदता की कालिख भी कम नहीं मली गई। दुनियाभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि अपनी 'असामाजिकता' को समाज के हिस्से शातिराना तरीके से खिसकाना सबसे आजाद ख्याल है। लिहाजा ऐसे ख्याली लोगों की मनोरुग्णता और मलीन फैंटेसी से साइबर स्पेस पटने लगा है। दिलचस्प है कि ऐसे हिमाकती लोगों में पुरुषों की गिनती सबसे ज्यादा है। इतनी ज्यादा कि यहां आधी दुनिया की मौजूदगी साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से पसीना तक बहाना पड़ सकता है। यकीन न हो तो आप इंटनेट पर किसी भी तेज-तर्रार सर्च इंजन पर बैठकर  तसल्ली कर लें।
मेरे एक वरिष्ठ कवि साथी ने बताया कि खासतौर पर ब्लागरों और सोशल नेटवर्किग साइटों पर समय गुजारने वालों जो नई देसी और भाषाई दुनिया अपने यहां सामने आई है, वह कथित सेक्स फैंटेसी के नाम पर लोकाचारों और लोक मर्यादाओं की जड़ों पर अनजाने ही काफी सघन और कठोर प्रहार कर रहे हैं। लिहाजा अपने आसपास होने वाली बातचीत और व्यवहारों में अचानक हम कोई बड़ा परिवर्तन नोटिस करने लगें तो हैरत नहीं। इस मुद्दे पर कायदे का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है, नहीं तो हमारे चौंकने या सन्न रह जाने के ढेर सारे तार्किक आधार हमारे सामने होते।  
सवाल यह है कि हमारे लोग संस्कारों की सामासिकता को दूध पिलाने वाले मां-बहन, भाई-बहन, भाभी-चाची, फूआ-मौसी जैसे पारिवारिक रिश्तों को आखिर किसी जिद की भेंट चढ़ाया जा रहा है। क्या यह बायलॉजिकल फैक्ट कि दुनिया में दो ही जाति है- पुरुष और स्त्री, एक व्यक्ति की सोच-विचार की उड़ान को थामे रखने वाली अकेली डोर है। यह सब अगर है भी तो इस डोर को थामे पतंगबाजों में महिलाएं क्यों नहीं शामिल हैं।  सवाल जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है इसका जवाब। एक पुरुष अकेले में अपनी दुनिया को किस तरह की नंगई और सोच से रचना और भरना चाहता है, इसका जेनेसिस रिपोर्ट इतना सनसनीखेज हो सकता है कि महिलावादी आंदोलन से लेकर मनुष्य की सामाजाकिता का अध्ययन करने वाले शास्त्र तक के औचित्य पर सवाल खड़े हो जाएं।

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