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गुरुवार, 14 जुलाई 2011

पानी बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं



बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि राजधानी दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है। 
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है। कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खिंचे या यहां-वहां से जुगाड़े गये ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रोरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नये मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसों के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं। बताते हैं कि नम्रता शिरोडकर की बहन शिल्पा शिरोडकर को कई बड़े बैनरों को फिल्में एक दौर में इसलिए मिलीं कि उसे कैमरे के आगे पानी में किसी भी तरह से भीगने से गुरेज नहीं था। खबरें तो यहां तक आर्इं कि उसे एक फिल्म में इतनी बार नहलाया-धुलाया गया कि अगले कई महीनों तक वह निमोनिया से बिस्तर पर पड़ी रही। हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भीगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे। 
वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है। इसे उस सनक या समझ का ही कमाल कहेंगे कि टूथपेस्ट बेचना हो या मानसून आने की खबर देनी हो, तरीका चाहे जो भी हो होता दैहिक ही है। बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कॉस्टयूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं। इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिंता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है। 

2 टिप्‍पणियां:

  1. यश चोपड़ा साहब ने पिछले तीन दशक में जितनी भी फिल्में निर्देशित की हैं, उनमें सफेद साड़ी में नायिका भीगती ज़रूर दिखाई दी है...यही ऑब्सेशन राज कपूर में भी था....शायद मीडिया ने उन्हीं से प्रेरणा ली हो...

    जय हिंद...

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  2. शुक्रिया खुशदीप...यश चोपड़ा के फिल्म से बड़ा परदा देश आैर समाज का है और इसी बड़े परदे पर मीडिया अपनी मनमाफिक फिल्में रिलीज कर रहा है....भींगा सावन और जलता बदन की तर्ज पर

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