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गुरुवार, 29 मई 2014

रोनाल्ड रीगन की तरह उभरे हैं मोदी


महज तुलना के भरोसे कभी भी गंभीर विमर्श आगे नहीं बढ़ाता। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि तुलना का कोई महत्व ही नहीं है। तुलनात्मक विवेक का होना तार्किकता के लिए तो जरूरी है ही, इससे अच्छे-बुरे की एक सामान्य समझ को विशिष्ट बनाने में भी मदद मिलती है। तुलना को लेकर यह भी काफी महत्व की बात है कि यह हमारी स्वाभाविक वृति का हिस्सा है। अपनी कोई भी राय बनाने या किसी निर्णय पर पहुंचने के लिए हम अकसर जिस साधन की मदद लेते हैं, वह तुलना ही है। एक की दूसरे से, पहले की बाद से तुलना करके ही हम अपनी किसी समझ को गढ़ते हैं।
देश में आजकल ऐसी ही समझ को गढ़ने का एक नया सिलसिला शुरू हो गया है। इस सिलसिले के केंद्र में हैं भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। कोई उनकी तुलना उनकी पृष्ठभूमि और जीवन को देखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से कर रहा है तो कोई उन्हें गुजरात की माटी से निकला देश का एक और महापुरुष बता रहा है। गुजरात की ऐतिहासिकता को खंगालने वाले महात्मा गांधी, सरदार पटेल, मोरारजी देसाई की पांत में नरेंद्र मोदी को बिठा रहे हैं।
मोदी की छवि और नेतृत्व क्षमता को देखते हुए लोग उनकी तुलना दूसरे देशों के नेताओं से भी कर रहे हैं और यह काम भारत में ही नहीं पड़ोसी पाकिस्तान से लेकर ब्रिटेन और अमेरिका तक हो रहा है। कोई मोदी को चीनी राष्ट्रपति शी जिन पींग के समकक्ष रखकर देख रहा तो कोई रूसी राष्ट्रपति पुतिन और मोदी में विलक्षण समानताएं देख रहा है। 6० वर्षीय जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे से भी मोदी की तुलना करने वाले बहुतेरे हैं।
बात जिन पींग की करें या फिर पुतिन की या कि शिंजो आबे की, लोग इन विश्व नेताओं की तुलना नरेंद्र मोदी से करने में इसलिए दिलचस्पी दिखा रहे हैं कि इन सभी नेताओं ने अपने देश की एक मुश्किल वक्त में कमान संभाली है। यही नहीं, इन तीनों नेताओं को यह भी श्रेय जाता है कि वे अपने देश को लोगों में राष्ट्र स्वाभिमान की भावना का संचार कर लगन, ऊर्जा और जोश को नए सिरे से बहाल कर पाने में सफल रहे।
इस दृष्टि से नरेंद्र मोदी की सबसे दिलचस्प तुलना की गई है पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से। इस तुलना में अतीत और वर्तमान के बीच जहां संवाद के पुल का निर्माण होता है, वहीं यह भी दिखता है कि किस तरह एक नया उन्नयन, एक नया उभार पूरी दुनिया की निगाहों को अपनी तरफ मोड़ने में सफल होता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय विचार और संवाद जगत में उनको लेकर बातें हो रही हैं बल्कि अब भारत को लेकर भी नए तरह के आकलन और मूल्यांकन सामने आ रहे हैं।
बहरहाल, बात मोदी और रीगन की। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के प्रशासन से जुड़े रहे डेविड कोहेन ने लेख में नरेंद्र मोदी की तुलना पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से की है। उन्होंने दोनों नेताओं में कई समानताएं गिनाई हैं। उनका मानना है कि भारत को अपनी वृहद आर्थिक संभावनाओं को साकार करने में मोदीनॉमिक्स मददगार होगा। उनकी बात से भारतीय पाठक दंग हैं कि पश्चिम से एक आवाज आई है जो मोदी के प्रति नकारात्मक नहीं है।
कोहेन रीगन के प्रशंसक हैं और भारत के भी। भारतीय समाज के बारे में उनकी आलोचना को एक अमेरिकी द्बारा भारत के कमतर दिखाने के बजाय उसे एक भारत समर्थक अमेरिकी की राय मानना चाहिए। जो अमेरिकी और भारतीय समाज की कई बुराइयों और अच्छाइयों में समानता देखता है। उन्हें अमेरिका के चालीसवें राष्ट्रपति रीगन और नरेंद्र मोदी में कई समानताएं नजर आती हैं। मसलन, दोनों ही सामान्य परिवेश से आए हैं। दोनों लोकप्रिय और राज्य के मुख्यमंत्री (रीगन कैलिफोर्निया के गवर्नर रहे हैं) रहे। दोनों ही नेता खुली अर्थव्यवस्था के समर्थक हैं। दोनों के राजनीतिक विरोधी भी एक जैसे हैं। अमेरिका की ही तरह भारत में भी सांस्कृतिक कुलीनों का एक वर्ग है जो हर बात की तस्दीक के लिए यूरोप के अपने पुराने शासकों की ओर देखता है। यह वर्ग रीगन की ही तरह मोदी का भी तिरस्कार करता रहा है। यह वर्ग इस खयाल से भी घबरा जाता है कि उसके देश का नेतृत्व एक चाय वाले के हाथ में आ सकता है।
अमेरिकी संभ्रांत वर्ग को लगता था कि रीगन एक गंवार और सीधे सादे व्यक्ति हैं जो अतिरेक से भरे हैं। उन्होंने चुनाव के समय चेताया भी था कि अगर रीगन राष्ट्रपति बन गए तो देश मुसीबतों में फंस जाएगा। चुनाव के बाद क्या हुआ यह अब तारीखहै। अमेरिका के इस वर्ग ने रीगन पर जातिवादी (रेसिस्ट) होने का भी आरोप लगाया। अमेरिका में इस वर्ग के पास जब तर्क और तथ्य नहीं होते तो वे गालीगलौज पर उतर आते हैं।
मोदी को भी उनके विरोधी सांप्रदायिक कहते हैं। इस तरह का आरोप लगाने के पीछे विरोधियों की नीति अल्पसंख्यकों को डराकर उनका समर्थन हासिल करने की रही है। डेविड कोहेन लिखते हैं कि उन्हें भारत की मुख्यधारा की मीडिया में हो रही चर्चा थोड़ी भ्रामक लगती है। इसके मुताबिक यदि आप धर्म के आधार पर लोगों के साथ अलग सलूक का समर्थन करें तो आप धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील समझे जाते हैं। यदि आप सभी नागरिकों को समान रूप से देखते हैं तो आप धार्मिक उग्रवादी हैं। उनके मुताबिक दूसरे धर्मों के अनुयायिओं विकास का अवसर देना हिदू धर्म की सहिष्णुता का परिचायक है। भारत के पड़ोसी पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की हालत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि मोदी को धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णु बताने वाले पड़ोसी देशों के मानक नहीं अपनाते।
कोहेन ने मोदी के पाकिस्तान के प्रति कठोर रवैए की तुलना रीगन के सोवियत संघ के प्रति रवैए से की है। उनका कहना है कि मोदीनॉमिक्स भारत की अंतर्निहित आर्थिक शक्ति के दोहन के लिए अच्छा है, जिसे क्रोनी सोशलिज्म ने अवरूद्ध कर रखा है। यदि भारत की बहुआयामी उद्यमिता को अवसर मिले वह आकाश की ऊंचाइयों को छू सकता है।
अमेरिका में नरेंद्र मोदी उसी वर्ग में अवांछित रहे हैं, जिस वर्ग में रीगन थे। उनके मुताबिक अमेरिका की नौकरशाही पर वामपंथी रुझान के आभिजात्य वर्ग का कब्जा रहा है। उसी ने मोदी के अमेरिकी वीजा मिलने में अड़ंगेबाजी की। अमेरिका ऐसे नेताओं को वीजा देते रहते हैं जिन्होंने अपने देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को गैरकानूनी घोषित कर रखा और दूसरे धर्मों के प्रति घृणा फैलाना जिनकी राष्ट्रीय नीति का हिस्सा है।
आखिर में डेविड कोहेन लिखते हैं कि भारत को शायद अपना रीगन मिल गया है। अमेरिका को अपना मोदी कब मिलेगा?
 

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