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सोमवार, 12 मई 2014

मदर इंडिया 2०14



 किसी को अगर यह शिकायत है कि परंपरा, परिवार, संबंध और संवेदना के लिए मौजूदा दौर में स्पेस लगातार कम होते जा रहे हैं, तो उसे नए बाजार बोध और प्रचलन के बारे में जानकारी बढ़ा लेनी चाहिए। जो सालभर हमें याद दिलाते चलते हैं कि हमें कब किसके लिए ग्रीटिग कार्ड खरीदना है और कब किसे किस रंग का गुलाब भेंट करना है। बहरहाल, बात उस दिन की जिसे मनाने को लेकर हर तरफ चहल-पहल है। मदर्स डे वैसे तो आमतौर पर मई के दूसरे रविवार को मनाने का चलन है। पर खासतौर पर स्कूलों में इसे एक-दो दिन पहले ही मना लिया गया ताकि हफ्ते की छुट्टी बर्बाद न चली जाए। रही बात भारतीय मांओं की स्थिति की तो गर्दन ऊंची करने से लेकर सिर झुकाने तक, दोनों तरह के तथ्य सामने हैं। कॉरपोरेट दुनिया में महिला बॉसों की गिनती अब अपवाद से आगे कार्यकुशलता और क्षमता की एक नवीन परंपरा का रूप ले चुकी है।
सिनेजगत में तो आज बकायदा एक पूरी फेहरिस्त है, ऐसी अभिनेत्रियों की जो विवाह के बाद करियर को अलविदा कहने के बजाय और ऊर्जा-उत्साह से अपनी काबिलियत साबित कर रही हैं। देश की राजनीति में भी बगैर किसी विरासत के महिला नेतृत्व की एक पूरी खेप सामने आई है। पर गदगद कर देने वाली इन उपलब्धियों के बीच जीवन और समाज के भीतर परिवर्तन का उभार अब भी कई मामलों में असंतोषजनक है।
आलम यह है कि मातृत्व को सम्मान देने की बात तो दूर देश में आज तमाम ऐसे संपन्न, शिक्षित और जागरूक परिवार हैं, जहां बेटियों की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है। इस मुद्दे को अभिनेता आमिर खान ने अपने टीवी शो 'सत्यमेव जयते’ के पिछले सीजन में काफी जोर-शोर से उठाया था। इसकी देश की संसद तक में चर्चा हुई।
रही जहां तक प्रसव और शिशु जन्म की बात तो यहां भी सचाई कम शर्मनाक नहीं है। देश में आज भी तमाम ऐसे गांव-कस्बे हैं, जहां प्रसव देखभाल की चिकित्सीय सुविधा नदारद है। जहां इस तरह की सुविधा है भी वहां भी व्यवस्थागत कमियों का अंबार है।
सेव द चिल्ड्रेन ने अपनी सालाना रिपोर्ट वल्डर््स मदर्स-2०12 में भारत को मां बनने के लिए खराब देशों में शुमार करते हुए उसे 8० विकासशील देशों में 76वें स्थान पर रखा है। स्थिति यह है कि देश में 14० महिलाओं में से एक की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है।
स्वास्थ्य सेवा की स्थिति इतनी बदतर है कि मात्र 53 फीसद प्रसव ही अस्पतालों में होते हैं। ऐसे में जो बच्चे जन्म भी लेते हैं, उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों में 43 फीसद बच्चे अंडरवेट हैं।
टीयर-2 देशों की बात करें तो सर्वाधिक बाल कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं। ऐसी दुरावस्था में हमारी सरकार अगर देशवासियों को मदर्स डे की शुभकामनाएं देती है और समाज का एक वर्ग इस एक दिनी उत्साह में मातृत्व के प्रति औपचारिक आभार की शालीनता प्रकट करने में विनम्र होना नहीं भूलता तो यह देश की तमाम मांओं के प्रति हमारी संवेदना के सच को बयां करने के लिए
काफी है।
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हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी!
यह दौर युवाओं का है। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे युवा पहली बार किसी दौर की अगुवाई कर रहे हैं यानि कि युवाओं की मौजूदगी को महसूस करना कोई आविष्कारिक घटना सरीखा है। दरअसल, यह एक आशावादी दृष्टिकोण है भविष्य के प्रति। युवाओं के बहाने हम अपने भविष्य को बेहतर गढ़ना चाहते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं। वैसे कोई दौर उन तमाम लोगों का होता है, जो उस दौर के जीवनकाल को जीते हैं। यह अलग बात है कि नायकत्व की दावेदारी और अवधारणा दोनों ही समवेत की जगह भेड़िया और गड़ेरिया वाली समझ से बनती है। बहरहाल, ये बातें यहीं तक... आगे एक सीधा सवाल कि क्या हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी है? क्या नई पीढ़ी का मानस इतना आधुनिक और विकसित हो गया है कि वह अपने जनकों की परवाह किए बगैर भविष्य का रास्ता तय करना चाहते हैं?
अगर हम ऐसे कुछ सवालों से दो-चार होना चाहें तो अपने समय की एक अनुदार और निराशाजनक स्थिति की पूरी बुनावट समझ में आएगी। शहरों से लेकर गांव तक बुजुर्गों के अकेले और निहत्थे पड़ते जाने की नियति घनी होती जा रही है। कुछ साल पहले केंद्र सरकार का ध्यान इस ओर गया और उसे जरूरी लगा कि वह बच्चों को अपने मां-पिता के प्रति कानूनी तौर पर जवाबदेह बनाए। केंद्र ने तब इस मुद्दे को लेकर जो पहल की वह आज भी पूरी तरह कारगर नहीं है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों का गैरजिम्मेदार रवैया रहा। महज दस राज्यों में ही यह कानून पूरी तरह लागू हो पाया। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सबसे ज्यादा बुजुर्ग आबादी है। पर इन राज्यों ने बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानून को अपने यहां लागू करने की जरूरत ही नहीं समझी। रही जहां तक केंद्र सरकार की बात तो वह केंद्र शासित राज्यों से भी अपनी बात मनवाने में नाकाम रही।
नतीजतन तीन साल पुरानी पहल के अनपेक्षित हश्र के बाद केंद्र के स्तर पर भी अब बुजुर्गों की सुरक्षा को लेकर किसी नई पहल या एजेंडे को लेकर कोई चिता, कोई बहस नहीं चल रही है। आलम यह है कि 1999 के बाद से राष्ट्रीय बुजुर्ग नीति की न तो समीक्षा हुई और न ही नई नीति पेश करने को लेकर कोई अंतिम सूरत सामने है। गौरतलब है कि देश में दस करोड़ से ज्यादा बुजुर्गों को इस कानून के तहत संरक्षण दिए जाने का लक्ष्य था। अब जबकि बुजुर्गों के भरण-पोषण और कल्याण के लिए बना यह कानून अपने लक्ष्य और उद्देश्यों को कहीं से भी पूरा करता नहीं दिखता तो एक सवाल तो जरूर कचोटता है कि क्या हम सचमुच इतने असंवेदनशील और क्रूर समय को जी रहे हैं, जिनमें उम्र की लाचारी की तरफ न देखना हमारी आदत और खुदगर्ज जरूरत का हिस्सा बन गया है।
वरिष्ठ नागरिकों के नाम पर बैंकों के जमा खाते में कुछ फीसद का ब्याज बढ़ा देने और रेल यात्रा टिकटों में कुछ रियायत देकर हमारी सरकारें बुजुर्गों के प्रति जो टोकन रूप में फर्ज निभा रही हैं, उसकी एक असलियत यह भी है कि देश में अपराधी तो अपराधी, अपने बच्चों तक से इन उम्रदराज लोगों को जीवन का सबसे ज्यादा खतरा है। परिवार की संयुक्त अवधारणा के विसर्जन ने जहां नौजवानों के लिए सुविधाजनक एकल परिवार की संकल्पना सामने रखी, वहीं एक उम्र के बाद समय और समाज के लिए गैरजरूरी बोझ बनने की खतरनाक नियति को भी रच दिया। अगर हम सचमुच एक जागरूक, जवाबदेह और संवेदनशील भविष्य की कामना करते हैं तो हमारी सरकारों के साथ समाज को भी बुजुर्गों के प्रति ईमानदार और जवाबदेह होना पड़ेगा।



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